पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाता सभ्य मानव समाज
दीपावली का पर्व हजारों टन कार्बनडाईऑक्साइड पर्यावरण में घोलकर चला गया है। मैं प्रात:काल यज्ञ पर बच्चों को बता रहा था कि इस पर्व पर पटाखे छोड़ना मानव स्वास्थ्य के लिए और मानव समाज के लिए कितना घातक है? और उन्हें पटाखे क्यों नही छोड़ने चाहिए? बच्चों ने मेरी बात को ध्यान से सुना और जब मैंने यज्ञ से पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में मिलने वाली सहायता पर उन्हें समझाया कि एक चम्मच गो घृत को यज्ञ के समय अग्नि में डालने से क्विंटलों ऑक्सीजन बनती है तो उन बच्चों को बड़ा सुखद आश्चर्य और उन्होंने पटाखों के प्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन किया।
परंतु मैंने देखा कि जो लोग स्वयं को सभ्य समाज का अंग कहते हैं, उन्होंने ही इस पर्व पर ‘क्रैकर शो’ अर्थात पटाखा प्रदर्शनी का आयोजन किया। ऐसे आयोजन देखकर दुख होता है। जब सारा विज्ञान यह मान रहा हो कि पटाखों से पर्यावरण, प्रदूषण बढ़ता है और उस प्रदूषण से विषैली हुई वायु श्वांस के द्वारा जब हमारे फेफड़ों में जाती है तो वह कैंसर जैसी घातक बीमारी को न्यौता देती है। हर प्राणधारी कार्बनडाईऑक्साइड छोड़ता है और ऑक्सीजन अर्थात ओषजन प्राप्त करता है। प्रकृति ने वनस्पतियों को औषधीय गुणों से संपन्न किया, इसलिए पेड़, पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं और कार्बनडाईऑक्साइड ग्रहण करते हैं। यह एक प्रक्रियात्मक चक्र है जो चल रहा है, पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने के लिए। परंतु मनुष्य मननशील प्राणी होकर भी इस पर्यावरणीय संतुलन को तोड़ने का आत्मघाती प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह प्रकृति से मित्रता न करके शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहा है और प्राकृतिक संसाधनों को, पेड़-पौधों को, जल और वायु को अपने घातक प्रयासों से प्रदूषित करने पर लगा है। जब ऐसे लोगों को जो स्वयं को सभ्य समाज का अंग कहते हों और प्रकृति से गंभीर छेड़छाड़ करते हुए उससे शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते दीखते हों, तो कई बार मुझे उन्हें सभ्य समझने में भी शंका होती है।
पटाखों आदि से प्रदूषित हुई ऑक्सीजन को जब हमारे फेफड़े ग्रहण करते हैं तो वह कार्बोनिक गैस हमारे भीतर जाकर गंभीर उत्पात मचाती है। यह कार्बोनिक गैस हमारे हृदय को गंभीर रूप से आहत करती है। फेफड़ों से ओषजन क े अणु रक्त में मिल जाते हैं, जिससे रक्त का रंग लाल हो जाता है। जितनी ओषजन हमें मिलेगी उतना ही रक्त लाल हो जाता है। रक्त की यह लालिमा हमारे चेहरे पर उतनी ही रंगत बिखेरती है, और हमारा चेहरा लाल दमकने लगता है। हमारे चेहरे पर तेजस्विता और ओजस्विता इसी लालिमा के कारण बनते हैं। इसलिए तेजस्विता और ओजस्विता का मूल कारण स्वच्छ वायु है, यदि स्वच्छ वायु विषैली करने का प्रयास किया गया तो मनुष्य के चेहरे की तेजस्विता और ओजस्विता का विनाश होना अवश्यम्भावी है।
अब जो लोग ‘क्रैकरशो’ के माध्यम से वायु को प्रदूषित करने का प्रयास कर रहे हैं वो समाज के लिए कितना गलत कार्य कर रहे हैं यह अनुमान सहज की लगाया जा सकता है। विश्व के सभी वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पर्यावरण संतुलन को और बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को किस प्रकार मानव के जीने लायक बनाया जाए। इसी समय सभी वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में सहायक ओजोन परत में हो रहे छेदों को किस प्रकार भरा जाए? तब पर्यावरण के प्रति इतनी असावधानी मानव की मानसिक अवस्था का परिचय देती है जिसमें वह अपने आपको ही खत्म करने पर ही लगा है।
पटाखों से ही पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा हो ऐसी बात नही है इसके कुछ और भी कारण हैं। पेस्टीसाइड्स और रासायनिक पदार्थों के अधिक उपयोग से विषैले तत्व अन्न के अंदर आ रहे हैं और मनुष्य पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़ों आदि के लिए हानिकारक सिद्घ हो रहे हैं, ये पदार्थ भी पर्यावरण संतुलन बिगाड़ रहे हैं। प्रदूषित जल, सिंथैटिक पदार्थों से बने पैकेजिंग के सामान, फूड प्रौसेसिंग में प्रयुक्त रसायन, गंदी नालियां, सड़ते कूड़े, खुले में मृत जानवरों के पड़े शव, ये सभी भी खाद्य पदार्थों को प्रदूषित करते हैं और पर्यावरण संतुलन को भी बिगाड़ते हैं। पशु-पक्षियों के मांस जो कि खाने में प्रयोग किये जा रहे हैं, वे भी पर्यावरण से प्रभावित होते हैं और उसे प्रदूषित करते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक पौंड बीफ तैयार करने में 441 गैलन पानी का उपयोग हो जाता है, जबकि एक पौंड सेब के उत्पादन में मात्र 49 गैलन पानी पौधे को देना पड़ता है। पशुओं के दूध की गुणवत्ता चारे और जल वायु पर निर्भर करती है। पशु पक्षियों का वध पर्यावरण के लिए कई मायनों में घातक होता है। बहुत से स्पेसीज लुप्त हो गये हैं और कितने ही लुप्त होते जा रहे हैं क्योंकि मनुष्य उन्हें जीवित नही रहने देना चाहता। खान-पान की विविधता समाज के साथ जुड़ी है। विभिन्न धर्मावलंबी विभिन्न देशों में रहने वाले लोग और अलग-अलग विचारों वाले लोग खाने पीने के संबंध में भी अपनी पहचान अलग रखना चाहते हैं। इसलिए ऐसे पशुओं का वध वह केवल अपने शौक के लिए कर लेते हैं, जो हमारे पर्यावरण संतुलन को बहुत ही सुंदर बना सकता है। हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारें ऐसे पशुओं के वध को निषिद्घ करने में पीछे हट जाती है, केवल इसलिए कि उसे उस समुदाय की वोट चाहिए। हमारा आशय यहां पर गऊ हत्या से ही है। सारी दुनिया जानती है कि गाय पर्यावरण संतुलन के लिए कितनी उपयोगी है लेकिन फिर भी उसकी उपयोगिकता का उपयोग करना बेहतर नही माना जा रहा। यह आत्मघोती सोच है। भारतीय संस्कृति ने गो-वध को अपराध माना है लेकिन भारत की सरकार उसे अपराध नही मानती । ऐसी परिस्थितियों में हम पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ने की दिशा में निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं। क्या सर्वनाश होने के पश्चात ही हमारी आंखें खुलेंगी?