उदार शासक नहीं था शाहजहाँ
मुगल बादशाह शाहजहाँ को मुगल काल का सबसे महान और उदार बादशाह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है । जिसके विषय में यह धारणा फैलाई गई है कि शाहजहां स्थापत्य कला का बहुत बड़ा प्रेमी था और उसने आगरा का ताजमहल व दिल्ली का लाल किला जैसी कई ऐतिहासिक इमारतों या भवनों का निर्माण कराया। वस्तुत: इस प्रकार की धारणाओं का कोई मूल्य नहीं है । जहाँ तक शाहजहाँ के एक उदार शासक होने का प्रश्न है तो ‘दि लीजेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया’ के लेखक के. एस. लाल ने अपनी इस पुस्तक के पृष्ठ 132 पर लिखा है :- “शाहजहाँ रक्त बहाने में और अत्याचार करने के विषय में तैमूर लंग को अपना आदर्श मानता था। इसलिए उसने अपना नाम ‘तैमूर द्वितीय’ ही रख लिया था।”
शाहजहाँ ने चाहे अपने आप को ‘तैमूर द्वितीय’ घोषित कर दिया तो इसका अभिप्राय यह नहीं था कि भारत के लोग इस क्रूर बादशाह को वैसा ही जवाब नहीं दे सकते थे जैसा तैमूर लंग को दिया था ? ऐसा नहीं था कि प्रतिशोध करने के लिए हिन्दुओं का पराक्रम उसके शासनकाल में थक गया था । इसके विपरीत सच यह था कि यदि उसने अपने आपको एक क्रूर विदेशी आक्रमणकारी के नाम से सम्बोधित कराने में अच्छाई देखी तो भारत ने भी उसके लिए वैसे ही उत्तर खोज लिए जैसे उत्तर उस क्रूर तैमूर को उसकी क्रूरता के दिए गए थे ।
उसके शासनकाल में भी लोग निरन्तर अपनी स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करते रहे । इतना ही नहीं जहाँ लोगों ने उचित समझा वहाँ ‘घर वापसी’ के लिए भी हिन्दू से मुसलमान बने लोगों को फिर से अपने साथ लाने के भी बड़े-बड़े यज्ञ रचाए । घटना 1632 की है। शाहजहाँ कश्मीर से अपनी राजधानी लौट रहा था । उसे मार्ग में पता चला कि हिन्दू से मुसलमान बने कुछ लोगों ने अपना फिर से मजहब परिवर्तन कर हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया है । ऐसा सुनकर उस निर्दयी बादशाह की भौंहें तन गईं। उसने उन लोगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निर्णय लिया। डॉ आर सी मजूमदार का कहना है :- “- – – – तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक चुन लेने का विकल्प दिया गया । क्योंकि किसी ने उन्हें धर्मांतरण स्वीकार नहीं किया तो उनका वध कर दिया गया । चार पांच सौ महिलाओं को बलात मुसलमान बना लिया गया।”
कमजोर और कायर नहीं थे हमारे पूर्वज
कुछ लोग हमारे पूर्वजों के मौन रहकर बलिदान देने की भावना का यह कहकर मजाक उड़ाते हैं कि वह कमजोर और कायर थे । तभी तो उन्होंने चुपचाप अपना बलिदान दे दिया । ऐसे लोगों को यह सोचना चाहिए कि यदि वह कमजोर और कायर होते तो वह इस्लाम स्वीकार कर लेते , परन्तु उन्होंने अपने आत्मिक बल का परिचय देते हुए और यह जानते हुए भी कि अब मौत उनके लिए अनिवार्य है , इस्लाम स्वीकार नहीं किया । इसके विपरीत उन्होंने अपना बलिदान देना स्वीकार किया । इस प्रकार वह कमजोर या कायर ना होकर ऐसे मौन स्वतन्त्रता सैनानी थे , जिन्होंने देश में ‘हिन्दू क्रान्ति’ की सज रही यज्ञवेदी की अग्नि को प्रज्ज्वलित किए रखने के लिए अपनी मौन आहुति दे दी । उनके इस मौन उपकार का उपहास उड़ाना हमारी मूर्खता है।
लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ के पृष्ठ 15 पर लिखा है :- “हिन्दुओं की अवन्नत दशा का इतिहास भी उनके धर्म, पवित्रता और शुद्धता का एक पर्याप्त प्रमाण है । इस बात में सन्देह नहीं है कि इस जाति में समय-समय पर अनेक कायर ,देशघातक , जातिद्रोही , अधर्मी , विश्वासघाती उत्पन्न हो गए हैं । जिन्होंने अनेक बार धर्म और जाति को शत्रुओं के हाथों बेच डाला , किन्तु ऐसी दशा में ऐसी अधर्म आंधी के समय में ऐसी विपत्तियों में भी यदि हमारी जाति मुसलमानी तलवार के नीचे हर प्रकार के शूरवीर उत्पन्न करती हुई अपने धर्म पर स्थिर रही है तो और क्या प्रमाण इसकी शूरवीरता का हो सकता है ? क्या संसार में ऐसी उपमा किसी और जाति पर भी लागू हो सकती है ? क्या कोई दूसरी जाति भी मुसलमानों के धार्मिक जोश वीरता तथा साहस की तलवार के सामने सिर ऊंचा कर सकी थी ?”
जब शिवाजी का यौवन मचल रहा था देश की स्वाधीनता के लिए
शाहजहाँ के शासन काल के विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यही वह काल था जब आगे चलकर मुगल वंश को पूर्णतया नष्ट कर देने की नींव रखने वाले शिवाजी का यौवन स्वतन्त्रता के लिये मचल रहा था । इसी काल में पंजाब की धरती से गुरु परम्परा में पले सिक्ख भी देश धर्म के लिए समर्पित होकर काम कर रहे थे । जबकि अन्य प्रदेशों में भी इसी प्रकार के शूरवीर अपना आन्दोलन जारी रखे हुए थे । शिवाजी ने इसी शासक के शासनकाल में बीजापुर के दरबार में वहाँ के मुस्लिम शासक के लिए भरे दरबार में समस्त हिन्दू चेतना को प्रकट करने वाले ये शब्द कहे थे : – ” हम हिन्दू हैं और बादशाह यवन है और महायवन है, और महानीच है , हम गौ और ब्राह्मण के सेवक हैं , और वह उनका शत्रु है । हमारा और उसका मेल नहीं हो सकता । मैं ऐसे व्यक्ति को सलाम करना नहीं चाहता जो हमारे धर्म का शत्रु है ।”
लाला लाजपत राय ने अपनी उक्त पुस्तक में इस घटना को बड़े रोमांचक शब्दों में प्रस्तुत किया है । उस समय शिवाजी ने यह भी कह दिया था कि : – “मैं ऐसे व्यक्ति को कभी बादशाह नहीं मान सकता और ना कभी उसका अदब कर सकता हूँ । सलाम तो एक ओर रहा मेरे मन में तो यह आता है कि उसका गला काट लूँ।”
यदि शाहजहाँ का शासनकाल हिन्दुओं के लिए स्वर्ण युग होता तो निश्चय ही समर्थ गुरु रामदास जैसे महापुरुष के द्वारा शिवाजी का वैसे ही निर्माण नहीं किया जाता , जैसे कभी चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण तत्कालीन क्रूर शासकों के विरुद्ध किया था। हमें यह सदा ध्यान रखना चाहिए कि चाणक्य तभी पैदा होता है जब सत्ता क्रूर हो उठती है और उसे ऐसा लगने लगता है कि सर्वत्र ‘क्रान्ति ! क्रान्ति !! क्रान्ति !!!’ का शोर मच रहा है ।
उस क्रान्ति को वह अदृश्य रूप से निकाल कर बाहर यथार्थ रूप में स्थापित कर देने के लिए आन्दोलित हो उठता है। निश्चित रूप से ऐसे ‘चाणक्य’ की इस प्रकार की योजना तभी फलीभूत होती है जब देश का जनमानस भी उसके साथ होता है । चाणक्य कभी भी अपने लक्ष्य में सफल नहीं होते यदि उन्हें उस समय की प्रजा का साथ नहीं मिलता। इसी प्रकार हम को ध्यान रखना चाहिए कि समर्थ गुरु रामदास भी शिवाजी का निर्माण करने में कभी सफल नहीं होते यदि देश के जनमानस का समर्थन और सहयोग उन्हें नहीं मिलता । बात स्पष्ट है कि लोग क्रान्ति के लिए नेता खोज रहे थे और वह नेता उन्हें शिवाजी के रूप में मिल गया था । देश में क्रान्ति की छोटी-छोटी धाराएं वैसे ही शिवाजी रूपी बड़ी धारा में आकर विलीन होने लगीं जैसे गंगा में छोटी – छोटी नदियां आकर विलीन हो जाती हैं । वे ऐसा करके अपना स्वरूप नहीं खोतीं बल्कि एक महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना बलिदान देती हैं अर्थात गंगा के सहारे वह सागर का रूप बन जाना चाहती हैं । बस , यही बात भारतीय समाज के बारे में सोचनी चाहिए।
राजा चम्पतराय और रानी सारंधा का बलिदान
राजा चंपतराय और रानी सारंधा का अप्रतिम बलिदान भी मुगलों के काल की ही रोमांचकारी घटना है । जब मुगलों ने राजा और रानी को घेर लिया और दोनों को लगा कि अब अन्तिम समय आ गया है तो राजा ने कहा :- सारन ! तुमने सदा मेरे सम्मान को द्विगुणित करने का काम किया है। एक काम करोगी ?
रानी ने आंखों से आंसू पोंछते हुए साहस के साथ कहा – ‘अवश्य महाराज।’
राजा ने कहा -‘मेरी अन्तिम याचना है इसे अस्वीकार मत करना ।’
रानी ने अपनी तलवार अपने हाथों में ले ली । बोली महाराज – ‘यह आपकी आज्ञा नहीं , मेरी इच्छा है कि आपसे पहले मैं संसार से जाऊं। ‘
रानी राजा का आशय नहीं समझ पाई थी । तब राजा ने कहा मेरा आशय है कि अपनी तलवार से मेरा सिर काट दो। शत्रु की बेड़ियां पहनने के लिए मैं जीवित नहीं रहना चाहता ।
रानी ने कहा – नहीं , महाराज ! मुझसे यह अपराध नहीं हो सकता । पर तब तक रानी के सैनिकों में से अन्तिम सैनिक को भी मुगलों ने समाप्त कर दिया था। रानी ने कठोर निर्णय लिया और अपने पति का अपने हाथों से हृदय छेद दिया । बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गए। सरदार ने आगे बढ़कर रानी से कहा :-‘हम आपके दास हैं । हमारे लिए आपका क्या आदेश है ?’
मुंशी प्रेमचंद जी लिखते हैं कि :- “सारंधा ने कहा अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो यह दोनों लाश उसे सौंप देना। यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली । जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था।”
कोई छद्मवेशी इतिहासकार ऐसे अप्रतिम बलिदानों का मूल्य समझे या न समझे , पर हर देशभक्त भारतीय तो इनका मूल्य अवश्य ही समझता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति