अहसान न लें किसी का

कर्ज से बड़ा है यह मर्ज

– डॉ. दीपक आचार्य

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अपनी पूरी जिन्दगी में जो कुछ होता है उसमें सिर्फ और सिर्फ अपने पुरुषार्थ से ही सब कुछ होता है और वही स्थायी रहता है। जो व्यक्ति किसी न किसी प्रकार का सकारात्मक चिंतन एवं रचनात्मक पुरुषार्थ करता है उसके लिए सभी कर्म अपने आप सहज और साध्य हो जाते हैं। और ऎसे में पुरुषार्थी लोग न दूसरों से अपेक्षा रखते हैं, न अपने छोटे-मोटे कामों के लिए किसी का अहसान लेते हैं।

अहसान लेने या देने का अहसास मात्र ही हमारे मन-मस्तिष्क के लिए किसी न किसी प्रकार की प्रदूषित सृष्टि की रचना कर देने के लिए काफी है। संसार में जीने के दो रास्ते हैं। एक में अपनी बुद्धि, हुनर और शरीर पर पूरा एवं पक्का भरोसा रखते हुए पुरुषार्थ और आत्मनिर्भरता के लिए परिश्रम और अच्छे कर्मों का अवलंबन, संतोष तथा सेवा-परोपकार की भावनाएं समाहित हैं जिसमें हरदम मस्ती छायी रहती है।

दूसरा मार्ग है अपने मन-मस्तिष्क और शरीर के प्रति आत्महीनता और दीनता या पलायन का भाव रखते या दर्शाते हुए औरों के भरोसे जैसे-तैसे जिन्दगी गुजारना। इसमें संसाधनों और संबंधों का भरा-पूरा संसार जरूर होता है लेकिन उसमें न रस-रंग होता है, न गंध। सब कुछ दिखावे का है।

परजीवी और पराश्रित लोगों के चेहरों पर न कभी मुस्कान आ सकती है, न मन में खुशी। ऎसे लोग जब कभी कुछ क्षणों के लिए खुश दिखाने की कोशिश करें तो अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि किसी न किसी षड़यंत्र की भूमिका में कुटिल मुस्कान ही तैर रही है और यह स्वाँग से ज्यादा कुछ नहीं है।

परायों के भरोसे अपनी जिन्दगी की नौका को छोड़ देने वाले लोग मरते दम तक मुर्दाल ही रहते हैं। यह मुर्दानगी उनके चेहरे और हाव-भावों से अच्छी तरह देखी व अनुभव की जा सकती है। यों देखा जाए तो आदमी को फल की इच्छा को त्याग कर अपने बूते ही कर्मयोग को आकार देने का प्रयास करते रहना चाहिए तभी उसे जीवन का असली आनंद मिल सकता है।

ऎसे कर्मयोगी लोग फल के प्रति बेपरवाह होकर पूरी जिन्दगी अपनी मस्ती में ही अपने कामों में रमे रहते हैं। लेकिन सामान्य आदमी ऎसा नहीं कर पाता। आजकल आदमी को काम शुरू करने के पहले फल या प्राप्ति की चिंता ज्यादा होती है। उसके लिए कर्म से पहले फल होता है और यही कारण है कि फल हमारा पहला अभीष्ट हो गया है और उसे पाने तथा ज्यादा से ज्यादा पाने के उतावलेपन में हम उन सभी रास्तों को अपनाने से भी नहीं हिचकते, जो इंसान के लिए वज्र्य कहे गए हैं।

इसी में सबसे बड़ा है अहसान। आजकल हम छोटे-मोटे कामों के लिए लोगोें के आगे-पीछे परिक्रमा करते हुए जाने कितने-कितने और कैसे-कैसे अहसान लेने में लगे हुए हैं। इन अहसानों के बोझ तले दबे हुए हमने मानवीय मूल्यों, संस्कारों और नैतिक परंपराओं की बलि ही चढ़ा दी है।

हम वे सारे कर्म करने को विवश हैं या आनंद का अनुभव कर रहे हैं जो स्वस्थ मानसिकता वाला संस्कारवान आदमी किसी कीमत पर करना नहीं चाहता। बात-बात पर हम अहसान लेने के आदी हो गए हैं और ऎसे में हम अपने पर अहसान करने वालों के हर नाजायज-जायज कर्मों, व्यवहारों और क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं पर मुहर लगाने लगे हैं।

जो हम पर अहसान करता है उसके अहंकार का ग्राफ इतना बढ़ जाता है कि वह अपने आपको अधीश्वर मान कर वैसा ही व्यवहार करने लगता है। एक हम हैं जो अहसान-दर-अहसान लेते हुए भारी बोझ तले इतने दबे हुए हैं कि अहसान करने वालों की हर इच्छा पूरी करने में जिन्दगी खपाए जा रहे हैं।

भीख और अहसान में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। भीख में बेशर्मी और लज्जा का अनुभव होता है और उसके लिए भिखारी को किसी प्रकार का पछतावा नहीं होता लेकिन जो लोग अहसानों से जिन्दगी गुजार रहे हैं उनकी आत्मा मर चुकी होती है और वे जो भी कर्म करते हैं वह हृदय के भावों से परे रहकर सिर्फ यांत्रिक ही रहता है।

एक बार कोई भी व्यक्ति अहसान लेना आरंभ कर देता है फिर उस अहसानजन्य दुर्गुणों के गुणसूत्र पीढ़ियों तक दुष्प्रभाव फैलाते रहते हुए आत्महीनता को अभिव्यक्त करते रहते हैं। इसलिए अहसान जैसे मर्ज को अपने पास फटकने नहीं दें और पुरुषार्थी रहकर जीवन की मौज-मस्ती का आनंद लूटें।

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