सर्वत्र क्रान्ति की ही गूँज थी
1605 ईस्वी में अकबर का देहान्त हुआ तो उसके पुत्र सलीम ने जहाँगीर के नाम से राजसत्ता प्राप्त की। जहाँगीर का शासनकाल 1627 ईस्वी तक रहा। लगभग 22 वर्ष शासन करने वाले इस मुगल बादशाह को भी हिन्दुओं ने चैन से शासन नहीं करने दिया । क्योंकि वह भी अपने पूर्ववर्ती मुगल बादशाहों की भांति हिन्दुओं के प्रति असहिष्णु बना रहा । यही कारण रहा कि उसके शासन काल में भी भारतवासी अपनी स्वतन्त्रता के लिए निरन्तर संघर्षरत रहे।
अमरसिंह ने किया था स्वाधीनता के लिए 17 बार युद्ध
चित्तौड़ के महाराणा प्रताप के देहान्त के पश्चात उनके पुत्र अमरसिंह ने मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया था । यद्यपि अमरसिंह अपने पिता महाराणा प्रतापसिंह की भांति वीर और साहसी तो नहीं था, परन्तु इसके उपरान्त भी उसने देश सेवा और राष्ट्रभक्ति की अनुपम मिसाल स्थापित की। हिन्दुओं के साथ छल करने वाले इतिहासकारों ने इतिहास के इस बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को इतिहास के पृष्ठों से विलुप्त किया है कि अमरसिंह ने अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए 17 बार जहाँगीर से युद्ध किया था।
कर्नल टॉड ( पृष्ठ 237) पर हमें बताते हैं :- “मुगलों से लगातार युद्ध करके राणा अमरसिंह की शक्तियां अब क्षीण हो गई थीं । उसके पास सैनिकों की अब बहुत कमी थी । शूरवीर सरदार और सामन्त अधिक संख्या में मारे जा चुके थे । लेकिन राणा अमरसिंह ने किसी प्रकार अपनी निर्बलता अनुभव नहीं होने दी। उसने सिंहासन पर बैठने के पश्चात और राणा प्रताप सिंह की मृत्यु के पश्चात दिल्ली की शक्तिशाली मुगल सेना के साथ 17 युद्ध किए और हर बार युद्ध में उसने शत्रु को पराजित किया।”
शराब और कबाब में डूबे रहने वाले जहाँगीर जैसे निकम्मे बादशाह को इस देश के इतिहास में सम्मान मिलता है । जिसे भारत के दृष्टिकोण से बादशाह या राजा माना ही नहीं जा सकता । क्योंकि ऐसे दुर्व्यसनी और दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति को राज कार्य करने के सर्वथा अयोग्य मानने की अनेकों व्यवस्थाएं हमारे धर्म शास्त्रों में दी गई हैं । इसके उपरान्त भी वह इतिहास के लिए एक महान व्यक्तित्व है । जबकि देश ,धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हर पल सजग , सावधान और सक्रिय रहने वाले अमर सिंह जैसे योद्धाओं को इतिहास भुला देने का कार्य करता है। इन 17 युद्धों में महाराणा अमरसिंह के पास सैनिकों की बहुत कमी पड़ गई थी । उनके छोटे से राज्य में से सैनिकों को ढूंढना तक मुश्किल हो गया था । जो भी लड़का किशोरावस्था में कदम रखता था , उसे ही परिवार के लोग देश सेवा के लिए भेज देते थे और वह राणा की सेना में भर्ती होकर देश सेवा के काम आता जाता था। सचमुच सारे मेवाड़ की इस अप्रतिम राष्ट्र सेवा का ऋण यह राष्ट्र कभी नहीं चुका सकता। 1614 ई0 में जाकर मेवाड़ को जहाँगीर अपने अधीन करने में सफल हो पाया था । इस युद्ध को इतिहास में बड़ी प्रमुखता से स्थान दिया गया है , क्योंकि इसमें एक हिन्दू योद्धा की पराजय हुई थी। हमारा मानना है कि पराजित भी योद्धा होते हैं , क्योंकि उनका जीवनादर्श देश सेवा होता है। इस दृष्टिकोण से अमरसिंह और उनके अन्य अनेकों योद्धा साथी , उनकी सेना के वीर देशभक्त सिपाही – ये सभी हमारे देश की अमूल्य धरोहर हैं।
सर्वत्र स्वाधीनता संग्राम चलता रहा
जहाँगीर ने अपने शासनकाल में जगन्नाथ पुरी के प्रसिद्ध मन्दिर पर आक्रमण किया तो वहाँ पर भी बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने अपने राजा पुरुषोत्तम दास के नेतृत्व में इस मुगल बादशाह का वीरता के साथ सामना किया था । यह घटना 1611 ई0 की है। बड़ी संख्या में बलिदान देने के पश्चात भी राजा और उसके वीर सैनिक राज्य की रक्षा नहीं कर पाए । बिहार में जहांगीर का समकालीन हिन्दू शासक दुर्जनसाल था । उसने भी अपने क्षेत्र में स्वाधीनता संग्राम जारी रखा था । यद्यपि उसके राज्य को 1615 ई0 में इस मुगल बादशाह ने जबरन हड़प लिया था । जगन्नाथपुरी में जहाँगीर ने जो कुछ राजा पुरुषोत्तम दास और उनके लोगों के साथ किया था , उसका प्रतिशोध लेने के लिए 1617 ई0 में फिर हिन्दुओं ने क्रान्ति खड़ी कर दी ।
राजा पुरषोत्तम दास को इस बात का बहुत दु:ख था कि पहले युद्ध में जहाँगीर उसकी पुत्री का डोला लेने में भी सफल हो गया था। इस बार विशाल मुगल सेना के साथ हिन्दुओं ने फिर टक्कर ली , यद्यपि वह फिर पराजित हो गए । इसी प्रकार जहाँगीर के शासनकाल में कश्मीर में भी हिन्दू राजा अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ाई लड़ते रहे। वहाँ पर किश्तवाड़ नामक राज्य पर एक हिन्दू शासक राज्य कर रहा था ।1620 ईस्वी में उसके राज्य पर जहाँगीर ने आक्रमण किया । 1622 ईस्वी में इस स्वाभिमानी राजा ने जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह अर्थात क्रान्ति का झण्डा ऊंचा कर दिया । इन सारे उदाहरणों से स्पष्ट है कि छोटे – छोटे राजा भी देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राणपण से कार्य कर रहे थे । उन्हें स्वतन्त्रता प्रिय थी , इसके लिए चाहे जितने बलिदान उन्हें देने पड़ जाएं , इस बात की कोई चिन्ता नहीं थी।
साहित्यकारों ने भी निभाया राष्ट्रधर्म
पराभव के उस काल में लेखनी धर्म निभाने वाले अनेकों साहित्यकारों, कवियों , लेखकों ने भी अपना राष्ट्र धर्म निभाने का कर्तव्य बड़ी गम्भीरता से निभाया। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में अनेकों स्थलों पर भारत के धर्म की प्रशंसा करते हुए भारतीयों को विदेशी लोगों से मुक्त कराने के संकेत दिए । उन्होंने मुगलों को ‘भूमि चोर’ तक की संज्ञा दी। जिससे स्पष्ट है कि वह राज्य हड़प करने वाले इन विदेशी आक्रमणकारियों को भारत के भूप मानने को तैयार नहीं थे। ‘कवितावली’ में उन्होंने अपने मन की व्यथा इस प्रकार व्यक्त की है :–
” एक तो कराल कलि,
काल सूलमूल तामें ,
कोढ़ में की खाजु सी
सनीचरी है मीन की ।
वेद धर्म दूरी गए
भूमि चोर भूप भए ।
साधु सीधमान जानि
रीति पाप पीन की।।”
1606 में जहाँगीर के शासनकाल में गुरु गोविंदसिंह ने हिन्दू धर्म की रक्षा का संकल्प लिया । जिसके लिए उन्होंने धर्म की तलवार बांधी। तब उनके दरबार में अकाल तख्त के आगे चित्तौड़ के वीर जयमल – फत्ता की वीरता को गीतों में गाकर प्रस्तुत किया जाता था। जिससे उन राष्ट्र वीरों का बलिदान व्यर्थ न जाए और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाया जा सके। ( संदर्भ : ‘द मुगल एंपायर’ पेज – 310 , भारतीय विद्या भवन मुंबई )
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति