सिद्धार्थ मिश्र
छल कपट, झूठ,भ्रष्टाचार एवं अवसरवादिता आज राजनीति के सर्वप्रमुख उपकरण बन चुके हैं । सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि ये आचरण कई बार सियासत के पूरे रूप स्वरूप को विकृत कर देता है । इस फेहरिस्त में राजनीति की अगली पेशकश है महापुरूषों का इच्छानुसार प्रयोग । निसंदेह ये सर्वमान्य सत्य है कि राजनीति को जनोपयोगी एवं कल्याणकारी बनाने के लिये आदर्शों की आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा ली जा सकती है। किंतु विशेष ध्येय की पूर्ति के लिये किसी महापुरूष के नाम का उपयोग कहां तक जायज ठहराया जा सकता है? जहां तक इस बिमारी का प्रश्न है तो हर एक दल आज इस बिमारी से जूझ रहा है । हर दल के पास कुछ विशेष महापुरूषों के जीवन का कॉपीराइट अधिकार है।
बीते दिनों गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा के गुजरात में शिलान्यास के बाद से ही कांग्रेस ने नये विवाद को जन्म दे दिया है। उनका आरोप है कि भाजपा सरदार पटेल के नाम का राजनीतिक प्रयोग करना चाहती है । अब प्रश्न ये है कि महापुरूषों का इस प्रकार का बंटवारा कहां तक जायज है ? नरेंद्र मोदी सरदार पटेल को आदर्श क्यों नहीं मान सकते ? तार्किक रूप से देखें तो इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती । जहां तक सरदार पटेल का प्रश्न है तो उनका कृतित्व आज किसी से छुपा नहीं है । विभिन्न रियासतों में बंटे हिन्दूस्तान को एक झंडे के नीचे लाने का जो सराहनीय कार्य उन्होने किया था उसका दूसरा उदाहरण मिलना तो मुश्किल है । उनकी इसी योग्यता के कारण ही उन्हे लौहपुरूष के नाम से जाना जाता है ।ऐसे में बतौर प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का ये कदम गलत नहीं ठहराया जा सकता । जहां तक कांग्रेस के विरोध का कारण है तो इसका कोई सार्थक पहलू नजर नहीं आता । पं नेहरू के काल में सरदार पटेल और उनके संबंध किसी से छिपे नहीं हैं । सरदार पटेल के जिन गुणों की आज सर्वाधिक चर्चा हो रही है,पं नेहरू के उनके इन्ही गुणों से अक्सर नाराज भी रहते थे । बात चाहे हैदराबाद के एकीकरण की हो अथवा सोमनाथ मंदिर के निर्माण की पं नेहरू ने हमेशा ही उनका विरोध किया था । ऐसे में अब अचानक इतना प्रेम उमड़ने का कोई कारण समझ नहीं आता? यदि मोदी का ये प्रेम एक चुनावी मुद्दा भी हो तो भी कांग्रेस के पास बहुत समय था,उनके नाम को भुनाने का । केंद्र सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं में सिर्फ एक को छोड़कर सभी योजनाएं गांधी नेहरू परिवार के नाम से चल रही हैं । क्या ऐसा नहीं है ? यदि है तो नरेंद्र मोदी के इस कदम को प्रशंसनीय ही कहा जाएगा। प्रशंसनीय इसलिये क्योंकि उन्होने दलगत राजनीति से बाहर आकर सरदार पटेल के पुरूषार्थ को लोगों तक पहुंचाने का एक सराहनीय कार्य किया है।
हांलाकि राष्ट्र पुरूषों के नाम को मुद्दे की तरह उछालना अब सियासतदानों के लिये कोई बड़ी बात नहीं है । सरदार पटेल के बाद भाजपा अब गांधी के चरित्र के गुणगान करते नहीं थक रही है । यहां एक प्रश्न है,क्या राष्ट्र में इनके अतिरिक्त और कोई प्रेरक चरित्र नहीं जन्मा ? अगर कांग्रेस की परंपरा की ही बात करें तो इस पार्टी में एक ही समय में नरम दल एवं गरम दल एक साथ मौजूद थे। नरम दल के गांधी,नेहरू का वंदन अभिनंदन दिन रात होता रहा है । जहां तक गरम दल तक प्रश्न है तो वो आज प्रत्येक दल द्वारा उपेक्षित कर दिया गया है । इस दल में लाला लाजपत राय और बालगंगाधर तिलक जैसे ओजस्वी राष्ट्रनायक आज भुला दिये हैं। दुर्भाग्य से नाम हथियाने की दौड़ में सही कोई भी दल इनका नाम नहीं लेना चाहता, क्यों? क्या इनके कृतित्व में कोई कमी थी? नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी किसी जमाने में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। दुर्भाग्य से आज कोई भी नेता उनका नाम नहीं लेना चाहता,क्यों? इन नामों के अतिरिक्त हमारे अमर क्रांतिकारी पं राम प्रसाद बिस्मिल, पं चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाकउल्ला खां, लाहिड़ी जी जैसे प्रखर नाम आज सियासदानों की जुबान से विस्मृत हो गये हैं ,क्यों सीधी सी बात है कि नेता उन नामों को उछालना पसंद करते है जिनसे मतों का सीधा ध्रुवीकरण होता दिखता है ।
महापुरूषों के अवमूल्यन में कांग्रेस ने गांधी नेहरू परिवार के अतिरिक्त सभी को बिसराया तो दूसरे दल भी इससे पीछे नहीं हैं । भाजपा पं दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेना पसंद नहीं करती । सामान्य संदर्भों में स्वयं को मुसलिमों का सबसे बड़ा हमदर्द घोषित करने वाले सेकुलर दल अशफाकउल्ला खां का नाम लेना पसंद नहीं करते । हद तो तब हो जाती है जब ये दल अपनी सुविधानुसार किसी राष्ट्रनायक के चरित्र की सुविधानुसार व्याख्या कर उसे विकृत बना देते हैं । यथा भगत सिंह के नाम को उछालने वाले कम्?यूनिस्?ट दल अक्?सर ही आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर सियासत करने से बाज नहीं आते । लोहिया जी के नाम पर राजनीति करने वाली सपा आज परिवारवाद का सबसे उदाहरण बन बैठी है । डा अंबेडकर के नाम को उछालने वाली बसपा आज उनके कृतित्व पर कालिख पोतने को अमादा है । सर्वविदित है कि डा अंबेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था आजादी के दस वर्षों बाद तक ही सुनिश्चित की थी । किंतु दुर्भाग्यवश आज ये व्यवस्था एक राजनीतिक उपकरण बन चुकी है । इन सारी बातों से एकबात तो स्पष्ट है कि वर्तमान दलों एवं नेताओं को इन महापुरूषों के चरित्रों से कोई लेना देना नहीं है । इनकी अपेक्षा मात्र मुद्दे तलाशकर विरोधी को निस्तेज करने की है ।
हैरानी की बात है कि आज सियासत का स्तर इतना गिर चुका है कि महापुरूषों के नाम पर भी रोजाना सियासत की जा रही है । ये बेहद दूर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि ये प्रखर चरित्र किसी एक की बपौती नहीं बल्कि पूरे देश के आदर्श हैं । ऐसे में अब वक्त आ गया है जब महापुरूषों के नाम पर सियासत बंद होनी चाहीये ।
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