अगर विकास कि बात करें तो कागज़ी तौर पर भारत निरंतर विकास की ओर अग्रसर है। और हाल ही में भारत ने विकास के नए आयाम को छू लिया, मिशन मंगल (मंगलयान) के प्रक्षेपण के साथ ही मंगल लॉन्च करने के मामले में भारत का अंतरिक्ष संगठन दुनिया का चौथा संगठन बन गया। इसे साफ़ तौर पर एक बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।
जहाँ एक ओर मंगलयान की सफलता को लेकर खुशियां मनाई जा रही हैं वहीँ इस मिशन पर किये गए 450 से 500 करोड़ के खर्च को लेकर इसकी आलोचनाएं भी की जा रही हैं। क्या भारत जैसा विकासशील देश जहाँ लगभग 23 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट ही सो जाते हों, करोड़ों लोगों तक मौलिक सुविधाएं न पहुंची हों। उस देश के लिए मंगल मिशन पर इतना खर्च करना, इन भूखे पेट सोने वाले गरीबों के लिए उनके हृदयों पर ठेस लगाने वाली बात नहीं है? साथ ही इससे सरकार की नीयत भी साफ़ पता चलती है कि वह किस तरह गरीब लोगों कि जरूरतों को नज़रअंदाज कर रही है। कहने को विभिन्न सरकारी योजनाएं हैं गरीबी उन्मूलन के लिए, परन्तु ज़मीनी हक़ीक़त तो कुछ और ही बयां करती है। केवल कागज़ों में हुआ विकास और गरीबी का उन्मूलन किसी रूप में असल नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा अगर नासा की एक रिपोर्ट पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलता है कि मंगल पर किसी भी प्रकार के जीवन के नाममात्र भी संकेत नहीं हैं।
हालांकि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने कहा है कि मंगल ग्रह पर हुआ 450 करोड़ रुपये का खर्च अभियान गलत नहीं था। देश का अंतरिक्ष कार्यक्रम लोगों पर केंद्रित है तथा एक एक रुपये को हिसाब से खर्च किया गया है। सवाल यहाँ फिजूलखच खर्च का नहीं है। वैसे भी सरकार द्वारा विभिन्न घोटालों में इससे ज्यादा रकम फ़िज़ूल ही इनकी जेबों में जा चुकी है। सवाल यहाँ इस तरह के अभियान पर खर्च का है। जब पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा अंतरिक्ष संगठन ‘नासा’ मंगल पर जीवन होने से मना कर चुका है। तो भारत का अंतरिक्ष संगठन इसरो वहाँ क्या खोजना चाहता है? (क्या भारत में भू-माफियाओं ने सारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया जो भारत वहाँ जाकर बसना चाहता है।) और अगर वहाँ कुछ मिल भी जाता है तो भारत के गरीब तबके को क्या मिलेगा, इस तबके को इससे क्या लाभ होगा? और जब कुछ होना ही नहीं है तो इतने बड़े खर्च का क्या लाभ? क्या यह रकम गरीबों के लिए, उनके विकास के लिए नहीं लगाई जा सकती थी? जवाब होगा ‘हां’ बिलकुल लगाई जा सकती थी, परन्तु सरकार शायद देश की आतंरिक स्थिति सुधारने की बजाये बाह्य उपलब्धियां जुटा लेना चाहती है। लेकिन शायद सरकार यह नहीं जानती कि पहले देश के आतंरिक हालत में सुधार की जरुरत है, देश से भुखमरी हटनी जरुरी है, गरीबों को बुनियादी सुविधाएं देना जरुरी है। न कि बाहरी दिखावा करना। कई बार पहले भी ये सवाल उठाया जा चुका है, इसी को लेकर कई बड़े आंदोलन भी हो चुके हैं। पर हालात हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। क्या बढ़ती जनसँख्या, साधनों का अभाव और बेरोज़गारी के साथ-साथ राजनैतिक कारण नही हैं जो गरीबी को बढ़ावा दे रहे हैं? आखिर विभिन्न योजनाओं के अस्तित्त्व में आने के बाद भी, क्यों आज तक गरीबी ख़त्म नही हुई? साफ़ है बनाई गयी योजनाएं कारगर नहीं थी, या फिर यहाँ भी भ्रष्टाचार ने उन लोगों तक योजनाओं को पहुँचने ही नहीं दिया, जिनके लिए ये परियोजनाएं बनाई जाती हैं। भ्रष्टाचारी है कौन, ये प्रक्रिया कहाँ से आरम्भ हुई? सब जानते हैं। पर आवाज़ को उठाने के लिए कोई तैयार नहीं। बस चोर और महाचोर की लड़ाई में हमेशा चोर का साथ देकर उसे महाचोर बनाने में जरुर सहयोग कर देते हैं।
भारत ने इससे पहले कई बार अंतरिक्ष का रुख किया है, जिसमें आर्यभट्ट 1975, भास्कर-1 1979, एप्पल 1981, भास्कर-2 1981, इनसेट-1बी 1983 और चंद्रयान-1 2008 मुख्य रूप से शामिल हैं। पर इससे हुआ क्या है, क्या वाकई हम कुछ हासिल कर सके हैं? इसे बड़ा कारनामा तो किसी भी रूप में नहीं कह सकते, क्योंकि अमेरिका यह सब 60 के दशक में ही कर चुका था, जो भारत आज 50 सालों बाद कर रहा है. क्या ऐसा कुछ प्रावधान नहीं हो सकता जिसके माध्यम से हम ‘नासा’ के साथ सीधे तौर पर काम कर पाएं। और महत्त्वपूर्ण खोजों में सबसे पहले शामिल हो सकें, न कि पहले ही कि जा चुकी खोजों को फिर से करें? और अगर खुद खोज करनी ही है तो इतने सेटेलाइट होने के बाद भी प्राकृतिक आपदाओं का पता लगाने में आज भी हम सक्षम क्यों नहीं हो पाएं हैं? केवल ओड़िशा में आने वाले फैलिन तक ही तो सीमित नहीं रहा जा सकता। और यह पर्याप्त भी नहीं है।
मंगलयान का सफल प्रक्षेपण तो कर दिया गया। पर यह अपने पीछे कई सवाल खड़े कर गया। क्या मंगलयान अपने तीनों चरण पूरे कर पायेगा, क्या एक साल की लम्बी अवधि पूरी हो सकेगी? इतने बड़े खर्च का हमें कुछ लाभ मिल सकेगा? या केवल एक उपलब्धि के तौर पर ही इसे देखा जायेगा? क्या आने वाले समय में मंगल पर जीवन को देखा जा सकता है? इत्यादि कई बड़े सवाल हैं जिनके उत्तर आज जनता जानना चाहती है।
इसी के साथ जनता यह भी जानना चाहती है कि अगर इन करोड़ों रुपयों को जनता के विकास के लिए खर्च किया जाता तो किस हद तक भुखमरी ख़त्म होती? अगर इसका दूसरा पहलु देखें तो साफ़ है कि स्थिति में किसी भी तरह का कोई बदलाव नहीं आता बल्कि भुखमरी और बढ़ जाती। योजनाओं का लाभ गरीबों तक जाते जाते तो वह मरने की कगार पर पहुँच जाते हैं। और बचा-खुचा कुछ मिलता भी है तो वह पर्याप्त नहीं होता। मुझे याद है एक बार ‘राजीव गांधी’ ने अपने भाषण में कहा था कि हम विकास के लिए देते तो सौ रुपये हैं पर वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते केवल दस रुपये ही बचते हैं। और अगर इसे आज के सन्दर्भ में देखें तो एक रुपया भी नही बचता, पूरे पैसे का बंटवारा समानता से कर लिया जाता है। जिनके लिए ये पैसा वास्तव में है उन्हें मिलता है ठेंगा। अब देखना यह है कि कितना कारगर साबित होता है ये मिशन मंगल? या यह भी ठन्डे बस्ते में जा गिरेगा।
(प्रवक्ता.कॉम से साभार)