भारत में लोकतंत्र और पत्रकारिता-धर्म
भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा ही गौरवपूर्ण रहा है। स्वतंत्रता संग्राम को पत्रकारिता ने नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया था। हमारे बहुत से बड़े नेता उस समय या तो अपना समाचार पत्र निकालते थे या समाचार पत्रों के लिए नियमित लिखते थे। उस लिखने का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता था। हमारे नेताओं की नीतियां और नीयत दोनों ही जनता के सामने स्पष्ट हो जाती थीं जिससे जनता द्विगुणित उत्साह के साथ अपने नेताओं का साथ देती थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अन्य क्षेत्रों की भांति पत्रकारिता का स्तर भी गिरा और सारा कुछ ‘कमर्शियलाइज’ हो गया। राष्ट्रीय मूल्यों को और राष्ट्रीय गौरव को प्रोत्साहित करने वाली पत्रकारिता कहीं शनै: शनै: विलुप्त होने लगी। समाचार पत्रों में अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी को ‘हिंदुस्तानी खिचड़ी भाषा’ बनाने में समाचार पत्रों में नियमित लेखन करने वाले पत्रकारों और लेखकों ने पूरा सहयोग दिया है। इसलिए ‘हिंदी उर्दू’ और अंग्रेजी की ऐसी खिचड़ी पक गयी है कि हिंदी को हिंग्लिश कहकर बोलने में ही लोग समझते हैं कि हम हिंदी में बात कर रहे हैं। कई दैनिक समाचार पत्रों के समाचारों के शीर्षक इसी हिंग्लिश में होते हैं। छात्र, छात्राओं की प्रतिभा को मुखरित करने के लिए कई समाचार पत्र या पत्रिकाएं उन्हें जो सामग्री उपलब्ध कराते हैं उसको ‘हिंग्लिश’ में परोसा जाता है। इसने हिंदी की दुर्दशा को प्रोत्साहित किया है।
अब तनिक कल्पना करें कि जो छात्र ग्रामीण परिवेश से शहर में आया है, वह हिंदी तो जानता है, परंतु हिंग्लिश नही जानता। हिंग्लिश उसे सिखायी जाती है या वह अभ्यास से (आधुनिकता के नाम पर) उसे सीखता है। 90 प्रतिशत छात्र -छात्राओं के साथ ऐसा ही होता है कि उन्हें हिंदी के स्थान पर ‘हिंग्लिश’ को अपनाना पड़ता है। जबकि दिखाया कुछ ऐसा जाता है कि जैसे हिंदी सीखना कठिन है और यदि प्रगति करनी है तो ‘हिंग्लिश’ सीखनी अनिवार्य है। इस मूर्खता से किसी भी भाषा का भला नही हो रहा है। इसके विपरीत हम अपने अतीत से कट रहे हैं और वर्तमान को अनावश्यक ही बोझिल बनाकर भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। क्योंकि ‘हिंग्लिश’ हमें विदेशों में केवल उपहास का पात्र बना सकती है, सम्मान का नही। सम्मान तो मातृभाषा के प्रयोग से ही मिलता है, या फिर आप जिस देश में हैं उसकी भाषा का प्रयोग करते हैं तो उस समय मिलता है।
समाचार लेखन या संवाद लेखन में भी गंभीरता का अभाव हमें समाचार पत्रों में मिलता है। मोदी पर सरकार के दो मंत्रियों (गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे तथा वित्तमंत्री के यह कहने से कि भाजपा नेताओं को एकजुट करने में मोदी कामयाब रहे, कांग्रेस मोदी की तारीफ से खुद को असहज महसूस कर रही है, लिहाजा सोमवार को पार्टी ने चिदंबरम के बयान से नुकसान की भरपाई (शिंदे ने कहा कि कांग्रेस के लिए मोदी कोई चुनौती नही हैं। मैं दूसरों की नही कहता लेकिन यह मेरी और पार्टी की राय है) की भरपूर कोशिश की।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने एक सत्य को स्वीकार किया और पार्टी को पार्टी के मंच से ही आत्मावलोकन करने तथा वस्तुस्थिति को समझने के लिए प्रेरित किया तो यह कांग्रेस के लिए कोई ऐसी बात नही थी कि जिससे पार्टी को क्षति हो रही थी, अपितु इससे पार्टी की छवि ऐसी बनती कि वह सच को आईने में देखने पर डरती नही है, अपितु उसका सामना करती है। सच के प्रति सचेत करना पार्टी के प्रति अपकार नही अपितु उपकार करना होता है। इसलिए चाटुकारों से घिरी कांग्रेस हाईकमान को पी. चिदंबरम की बात को गंभीरता से लेने के लिए समाचार पत्रों को प्रेरित करना चाहिए था, उन्हें इससे होने वाली क्षति का बिजूखा नही दिखना चाहिए। बिजूखा दिखाना तो चाटुकारों का या शत्रुओं का कार्य होता है। नेतृत्व की भूलों को या उसके दृष्टिदोष को दूर करना प्रत्येक मंत्री का और प्रत्येक सदभाव रखने वाले प्रियजन या परिजन का कर्त्तव्य होता है। विदुर धृतराष्ट्र के प्रति पूर्णत: सेवाभावी और सदभावी थे, परंतु सत्य को प्रिय वचनों के साथ प्रस्तुत करने की उनकी शैली के धृतराष्ट्र भी कायल थे। इसलिए समाचार पत्रों को एक मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के लिए शब्दों के चयन पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। मोदी के रूप में विपक्ष की मजबूती तो देश के लिए आवश्यक है ही भविष्य को समझकर चलने वाले वर्तमान नेतृत्व की आंखें भी विवेक के साथ खुली रहें, यह भी आवश्यक है। इसलिए चिदंबरम के बयान से कांग्रेस की आंखें खुलें और वह जागे, ऐसा परिवेश बनाना आवश्यक है। क्योंकि सत्ता किसी के भी पास जाए, पर उसका जागा हुआ विवेकी विकल्प सदा तैयार रहना चाहिए। इसलिए इस समय कांग्रेस को अंतर्मन्थन के लिए प्रेरित करना चाहिए।
पंडित नेहरू के समय में कांग्रेस के मंत्री भी उनकी गलत बात का विरोध व्यक्त कर दिया करते थे। नेहरूजी ने उन आलोचनाओं को भरी पार्लियामेंट में सुना और अपनी भूल सुधार की। कभी भी ये शोर नही मचा कि पी.एम. को झुकना पड़ा या पी.एम. को अंतत: अपनी बात वापस लेनी पड़ी। इसका कारण जहां नेहरूजी की लोकतंत्र के प्रति गहननिष्ठा रही, वहीं हमारे पत्रकारों का संवाद के प्रस्तुतीकरण का ढंग भी एक कारण था। तब ऐसी परिस्थितियों के लिए यही कहा जाता था कि प्रधानमंत्री ने अपनी भूल सुधार की। जबकि आज ऐसी परिस्थितियों पर एक ऐसा परिवेश बना दिया जाता है कि जिससे दोनों पक्षों में तनातनी और भी अधिक बढ़ जाती है, और अपनी गलत बात के लिए गलत व्यक्ति अड़ा ही रहता है। उस अड़ने वाले से देश का चाहे जितना अहित हो, इससे किसी को कोई वास्ता नही होता। अच्छा हो कि तनातनी की हवा निकालने में पत्रकारिता सहायक हो, वैसे भी यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। अत: जहां गतिरोध की संभावना दीखे वहां विवेकपूर्ण सहज मार्गदर्शन का तीसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए दोनों पक्षों को उस विकल्प पर विचार करने के लिए प्रेरित करना प्रैस का धर्म है। चटकारेदार समाचार बना बनाकर जनता के जनमत को प्रभावित करना प्रैस का धर्म नही है।
अभी भी देर नही हुई है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अभी भी बहुत सी ऐसी शख्सियतें विद्यमान हैं जिनके अतीत से हमें काफी कुछ सीखने केा मिल सकता है। आवश्यकता गंभीरता के प्रदर्शन की है और उसे आत्मीयता से अपनाने की है। पत्रकार को सदा ही ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में विधायिका के किसी सदन का सदस्य चाहे वह भले ही न हो परंतु वह एक ऐसी जनसंसद (जो संसद से भी बड़ी होती है) का एक ऐसा सदस्य अवश्य है जो विधायिका के सदन में चल रही बहस का अपनी धारदार लेखनी के माध्यम से एक अनिवार्य अंग अवश्य है, जो उस बहस में भाग ले रहा है और बिना किसी उत्तेजना के भाग ले रहा है। वह सारी बहस को दृष्टाभाव से देख ही नही रहा है, बल्कि उस पर अपना मंतव्य भी साथ-साथ प्रस्तुत कर रहा है। उसका प्रयास है कि जनहित में उस निर्णय पर और निष्कर्ष पर पहुंचा जाए जिससे अधिकतम लोगों का भला हो सके। इसलिए उसका कार्य विवेकपूर्ण मार्ग को खोजना है, उत्तेजित होकर लड़ रहे दो पक्षों को वह अपनी ओर से एक उचित मार्ग और उपाय सुझाता है। विधायिका का ऐसी परिस्थितियों में यह दायित्व बनता है कि वह भी जनहित से जुड़े मुद्दों पर चर्चा में भाग ले रही प्रैस को उचित सम्मान दे और उसके निष्कर्षों से प्रभावित होकर अपने निष्कर्षों को तदानुसार संशोधित, परिवर्तित अथवा परिवर्द्घित करे। सारा देश ऐसे उचित और न्यायपूर्ण परिवेश का रास्ता जोह रहा है, आज मर्यादाहीन आचरण राजनीति का एक आवश्यक अंग बन चुका है। उसमें प्रैस एक अच्छे ‘रैफरी’ की भूमिका का निर्वाह करे। इसलिए राष्ट्रभाषा, देश के राजनीति मूल्य और लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रैस को अत्यधिक गंभीरता का परिचय देना चाहिए। सोशल मीडिया का स्तर बहुत गिर गया है। उस पर प्रिंट मीडिया को ध्यान देना चाहिए जिससे कि वह भी मर्यादित आचरण का पालन कर सके।