बेबाक अभिव्यक्ति देती है आत्म- आनंद

जरूरी नहीं औरों को पसंद आए ही

– डॉ. दीपक आचार्य

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पूरी दुनिया और आसमान विचारों और तरंगों से भरा है और इन्हीं अदृश्य तरंगों से संसार का सारा व्यापार चल रहा है। अक्षर ब्रह्म है, ध्वनियों का वजूद हर क्षण रहता है। यह हमारी ग्राह्यता क्षमता और शुचिता के स्तर पर निर्भर करता है कि हमारी जरूरत के वक्त हम कितना कुछ अपने मन-मस्तिष्क की ओर आकर्षित कर पाते हैं।

जो जितना अधिक शुचितापूर्ण, सात्ति्वक और पारदर्शी होगा वह उतने ज्यादा अनुपात में लौकिक एवं पारलौकिक तरंगों का आनंद उठाएगा। बात सिर्फ ग्राह्यता क्षमता की है। और यह क्षमता तभी आ सकती है जबकि हम मन-मस्तिष्क से हमेशा पूरी तरह खाली रहें।

कोई भी इंसान बाकी सब कुछ कर सकता है लेकिन दिल और दिमाग से खाली होना हर किसी के बूते में नहीं है। जीवन के सत्य को समझने और जीवन लक्ष्य को पाने के लिए कठिन तपस्या की आवश्यकता है जिनसे होकर गुजरने पर ही वह स्थिति प्राप्त हो सकती है।

निरन्तर कल्पनाओं, आशाओं, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के भँवर में फंसे आम इंसान के लिए वह स्थिति पाना दुश्कर ही होता है जिसमें वह किसी क्षण अपने आप को खाली महसूस करे। दिल और दिमाग से एकदम खाली होना निर्विकल्प समाधि की अवस्था पाने जैसा ही है जिसमें व्यक्ति अपने आप ही में मस्त होता है, उसके दिल-दिमाग की सारी खिड़कियाँ हर क्षण खुली रहती हैं।

यही ताजगी जिसके जीवन में हमेशा बनी रहती है वस्तुतः वही इंसान जीते जी मुक्ति का अहसास पाता हुआ सदैव आनंद में निमग्न रहता है। फिर उसके तथा ईश्वर के बीच कोई ज्यादा दूरी नहीं होती। इस अवस्था में इंसान के मन में जो कल्पनाएं आती हैं, जिन विचारों का प्रवेश हमारे मस्तिष्क में होने लगता है वे सारे के सारे दैवीय और दिव्य विचार होते हैं जिनके सूत्रों को पकड़ लिया जाए तो वे हमारे सृजनधर्मी व्यक्तित्व को कालजयी स्वरूप देते रहते हैं।

इन विचारों के बीज हमेशा सुनहरा आकार पाते हैं और सार्वजनीन प्रभाव छोड़ते हैं। इन दिव्य तरंगों को अपने मन-मस्तिष्क में ज्यादा समय तक विश्राम करने का अवसर नहीं देना चाहिए बल्कि इनके आवागमन के सारे रास्ते हर क्षण खुले होने चाहिएं। कोई भी व्यक्ति वैचारिक धुंध को अपने भीतर रखकर कभी प्रसन्नता का अनुभव नहीं कर सकता है चाहे वह वैरागी हो या भोग-विलास का पर्याय सांसारिक।

जीवन्मुक्ति और चरम आनंद तभी मिल सकता है जब हम हर मामले में हमेशा ही खाली और खुले रहें तथा हमारे पास छिपाव-दुराव के लिए कुछ न हो। इस मामले में शून्यावस्था सदैव बनी रहनी चाहिए। यही अवस्था वह होती है जब परा अनूभूतियां और परा वाणी अपने आस-पास सदैव अनुभूत होती है और ऎसी अवस्था में इंसान अग्निधर्मा व्यक्तित्व का धनी हो जाता है जहाँ जो कुछ सृजन होगा उसका एक-एक शब्द अग्निशिखाओं से भरा-पूरा और प्रभावोत्पादक होगा। यह सृजन भय, अपेक्षाओं, आशंकाओं और तमाम प्रकार के अंधकारों से मुक्त होकर निरन्तर दैदीप्यमान रहता है और इसका असर पूरे व्योम में दिखाई देने लगता है। यह हर युग और हर क्षेत्र के लिए कालजयी और सार्वजनीन होता है।

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