जब हम भारत वर्ष क अतीत क विषय मं जानन की इच्छा करत हैं, तो हमारा
प्रचलित इतिहास हमं आज क खण्डित भारत की सीमाओं मं रहन क लिए ही बाध्य
करता है। इतिहास स शत्रुलखकों न उन गौरवपूर्ण पृष्ठों को विलुप्त कर दिया
है, जो ‘वृहत्तर-भारत’ का आभापूर्ण और शोभायमान चित्र प्रस्तुत कर सकत
हैं।
वृहत्तर भारत का वह गौरवपूर्ण काल
1947 ई. मं भारतीय भूभाग को लकर जन्म पाकिस्तान (बांग्लादश सहित) को भी
इतिहास की दृष्टि स इस प्रकार ओझल कराया जाता है कि जैस य सृष्टि प्रारंभ
स ही हमस अलग चला आया है। इसी प्रकार नपाल, बर्मा, कम्बोडिया, श्रीलंका,
इण्डोनशिया, चीन, ईरान, ईराक, जावा, सुमात्रा, थाईलैंड आदि दशों तक फल
वृहत्तर भारत क विषय मं तो कोई उल्लख ही नही किया जाता। कभी क वृहत्तर
भारत क अंग रह य सार दश हमारी आंखों स ओझल कर दिय जात हैं।
जब ब्रिटन मं नही था एक भी विद्यालय
जिस ब्रिटन क विषय मं तथ्य य है कि वहां सन 1868 मं पहला विद्यालय
स्थापित हुआ था, (उसस पूर्व शिक्षा का अधिकार कवल राजकीय परिवार क लोगों
क लिए ही था, और वह भी कवल राजभवनों क भीतर ही प्रबंध करक पूर्ण किया
जाता था) उस ब्रिटन न उस भारत को ‘मूर्खों और गडरियों’ का दश कहकर या
लिखकर अपमानित किया जिसक पास 1822 ई. मं 7,32,000 गुरूकुल थ। उस काल मं
दश मं लगभग इतन ही गांव थ। य तथ्य अंग्रजों न ही उस काल मं एकत्र किय थ,
जब वह अपनी शिक्षा व्यवस्था को लागू कर भारत की प्राचीन गुरूकुल परंपरा
को उजाड़कर भारत को गुलाम बनान की युक्तियां सोच रह थ, जिनस स्पष्ट होता
है कि प्रत्यक गांव मं एक गुरूकुल था। अत: दश की साक्षरता पर अपना बयान
दत हुए लार्ड मैकाल न 2 फरवरी 1835 को ब्रिटन की संसद मं कहा था कि-इस
दश की साक्षरता दर 97 प्रतिशत है। ऐस विद्यानुरागी दश को अशिक्षितों,
अनपढ़ों और पिछड़ों का दश बनाकर ही राज्य किया जा सकता था, उनक वैभवपूर्ण
अतीत स उन्हं काटकर ही राज्य किया जा सकता था। इसीलिए इतिहास स उन तथ्यों
सत्यों एवं कथ्यों को जानबूझकर मिटाया और हटाया गया जिनस हमार भीतर
आत्मगौरव की अनुभूति हो सकती थी।
शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत समन्वय
आइए, वृहत्तर भारत क विषय मं अब थोड़ा सा चिंतन करं। जी हां, उसी वृहत्तर
भारत क विषय मं जो 1000 ई. क समय तक भी लगभग बहुत ही अच्छी अवस्था मं बना
हुआ था। भारत क विषय मं यह अद्भुत और आश्चर्यजनक तथ्य है कि एक ओर
पश्चिमी सीमा पर जहां शत्रु को भगान क लिए शस्त्रों की बिजली चमक रही थी
वहीं पूरब मं शास्त्रों की ज्योति भी प्रकाशमान हो रही थी।
शस्त्र और शास्त्र दोनों ही अपना अपना कार्य पूर्ण गरिमा स निष्पादित कर
रह थ। अभी तक हम शस्त्रों की बिजली की चमक का, उल्लख कर रह थ अब थोड़ा
शास्त्रों की ज्योति पर भी विचार करत हैं। यदि इस पर विचार करं तो हमस
प्राचीनकाल स ही ‘ज्ञान की प्यास’ बुझान क लिए चीन बड़ी आत्मीयता स जुड़ा
रहा है। इसलिए सर्वप्रथम वृहत्तर भारत का एक अंग रह चीन क विषय मं विचार
किया जाना उचित होगा।
प्राचीन महाचीन एवं प्राग्ज्योतिष
चीन को हम प्राचीन काल मं महाचीन क नाम स जानत थ। महाभारत क सभापर्व मं
भारतवर्ष क प्राग्ज्योतिष (पुर) प्रान्त का उल्लख आता है। विद्वानों न इस
प्राग्यज्योतिष का समीकरण आजकल क आसाम (पूर्वात्तर क सभी सात प्रांत) क
साथ स्थापित किया है। रामायण बालकाण्ड (30/6) मं प्राग्ज्योतिष की
स्थापना का उल्लख मिलता है। विष्णु पुराण मं इस प्रांत का दूसरा नाम
कामरूप हमं सुनन को मिलता है। स्पष्ट है कि रामायण काल स महाभारत काल
पर्यन्त आसाम का नाम प्राग्ज्योतिष ही रहा। कालांतर मं पुराण काल मं इसक
नाम मं परिवर्तन आया।
चीनी यात्री हवनसांग और अलबरूनी क द्वारा हमं ज्ञात होता है कि कभी
कामरूप को चीन और वर्तमान चीन को महाचीन कहा जाता था। अर्थशास्त्र क
रचयिता कौटिल्य न भी चीन शब्द का प्रयोग कामरूप क लिए ही किया है। इसस
अनुमान लगाया जा सकता है कि कामरूप या प्राग्ज्योतिष प्रांत प्राचीनकाल
मं बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, हिंद, चीन, इण्डोनशिया, कम्बोडिया, जावा,
सुमात्रा तक फला हुआ था। इस विशाल प्रांत क प्रवास पर एक बार श्रीकृष्ण
भी गय थ। यह उस समय की घटना है जब उनकी अनुपस्थिति मं शिशुपाल न द्वारका
को जला डाला था। सभापर्व (68/15) मं वह स्वयं कहत हैं-‘हमार
प्राग्ज्योतिष पुर क प्रवास क काल मं हमारी बुआ क पुत्र शिशुपाल न
द्वारका को आ जलाया था।’
कामरूप का प्राचीन आर्य इतिहास
इस कामरूप प्रांत क विषय मं चीनी यात्री ह्वनसांग (629ई.) हमं बताता है
कि उसक काल स पूर्व कामरूप पर एक ही कुल क 1000 राजाओं का लम्बा शासन रहा
है। हवनसांग क इस कथन क अनुसार यदि एक राजा को औसतन 25 वर्ष भी शासन क
लिए दिय जाएं तो 25000 वर्ष तक एक ही कुल क शासकों न कामरूप पर शासन
किया। ह्वनसांग क समय मं ईसाइयत को आए हुए कवल 600 वर्ष ही हुए थ। जबकि
कामरूप पर एक ही कुल क वैदिक आर्य शासक पिछल 25000 वर्ष स निरंतर शासन
करत आ रह थ। अंग्रज इतिहासकारों न कभी कामरूप क 25000 वर्षीय इतिहास को
खोजन का कष्ट नही किया। करत भी नही, क्योंकि इसस आर्य धर्म या हिन्दुत्व
की गरिमा स्थापित हो जानी थी। उन्होंन तो इसक विपरीत कार्य किया कि सार
विश्व क इतिहास को ही पिछल 5000 वर्ष मं समटन का प्रयास किया जाए। अंग्रज
इतिहासकारों क लिए यह कार्य एक दूसर कारण स भी किया जाना संभव नही था और
वो य कि अंग्रज स्वयं रोमन साम्राज्य और फ्रांसीसियों क गुलाम रह थ उनक
यहां बौद्घिक संपदा का सम्मान करन की परंपरा नही थी और ना ही उनकी क्षमता
थी कि व भारत क प्राग्ज्योतिषपुर क इतिहास पर प्रकाश डालत। ‘गुलामों क
गुलाम’ स य अपक्षा करना वैस भी मूर्खता ही है।
महाचीन बन गया आज का चीन
कालांतर मं महाचीन ही चीन हो गया और प्राग्ज्योतिषपुर कामरूप होकर रह
गया। महाभारत क पश्चात कौटिल्य न चाह प्राग्ज्योतिषपुर को ही चीन कहा है,
पर उसक पश्चात क इतिहास को पढ़त पढ़त महाचीन को हमन चीन मानना आरंभ कर
दिया। कामरूप स लगा चीन शब्द लुप्त हो गया और महाचीन मं लगा महा शब्द हट
गया। फलत: चीन कवल आज क चीन क लिए रूढ़ होकर रह गया। शल्य इसी चीन स आया
था जिस कभी महाचीन कहा जाता था, तब वह भी भारत का ही एक अंग था। यह चीन
प्रारंभ स ही भारत क प्रति आकर्षित रहा है। रूस क साइबरिया क साथ मिलकर
उस करना भी क्या था? जहां ना तो ज्ञान था और ना ही धान (भोजन) था। उसकी
दोनों प्रकार की क्षुधा का निवारण तो भारत क साथ संपर्क बनान स ही हो
सकता था। इसलिए चीन न भारत क साथ मिलकर चलन मं प्राचीन काल स ही रूचि ली।
भारत न भी चीन का मार्गदर्शन करन मं ‘ज्यष्ठ भ्राता’ की भूमिका का
निर्वाह किया। आज चाह भल ही चीन भारत का ‘ज्यष्ठ भ्राता’ बन रहा हो, पर
यह इतिहास की साक्षी आज की धारणा को तोड़ती है। इतिहास की समीक्षा स यही
तथ्य स्थापित होगा कि चीन क लिए भारत ‘ज्यष्ठ भ्राता’ रहा है।
यह एक सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत तथ्य है कि जिन लोगों स या जिन परिवारों
स हमार संबंध आत्मीयता क होत हैं, उन्हीं स मित्रता दर तक चलती है और एक
दूसर क घरों मं आना जाना होता है। भारत स चीन जान वाला पहला विद्वान
(ज्ञात इतिहास मं) कश्यप मातंग था। कश्यप मातंग ईसा की प्रथम शताब्दी मं
चीन गया था। पर यह नाम तो उन इतिहासकारों न दिया है जिन्होंन विश्व
इतिहास को पिछल पांच हजार वर्षों मं ही समटन का अवैज्ञानिक प्रयास किया
है। जबकि पांच हजार वर्ष पूर्व तो चीन स भारत क राजपरिवारों क वैवाहिक
संबंध स्थापित होन की साक्षी महाभारत स ही मिलती है। अत: चीन-भारत
संबंधों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है।
भारत की अश्वमध यज्ञ परंपरा
पाठकवृन्द! तनिक भारत की अश्वमध यज्ञ परंपरा का स्मरण कर। अश्व का
अभिप्राय उस यज्ञ स है जिसस संसार कार्य चल सक। अश्वशक्ति (हॉर्स पावर)
की खोज अश्वमध स ही की गयी है। संसार का कार्य धर्मव्यवस्था (जिस आजकल
कानून व्यवस्था कहा जाता है) स चलता है। इस प्रकार अश्वमध यज्ञ मं
सम्मिलित राजा महाराजा एक ही धर्म व्यवस्था स शासित अनुशासित मान जात थ।
भारत क अतीत मं ऐस अनकों (सहस्रों) सम्राट हुए हैं, जिन्होंन अश्वमध यज्ञ
कर विश्व क राजा महाराजाओं को एक ही धर्म व्यवस्था अर्थात वैदिक व्यवस्था
क अनुसार शासित होन क लिए प्ररित और विवश किया। इस प्रकार उस यज्ञ परंपरा
स चीन अनुपस्थित कैस रह सकता था? अत: इतिहास की गहरी पड़ताल की आवश्यकता
है। त्रताकालीन कपिल ऋषि क विषय मं कहा जाता है कि व पाताल लोक अर्थात
अमरिका मं तपस्या करत थ। आज अमरिका हमस भल ही दूर हो गया हो, परंतु उस
समय वह हमार लिए घर का ही एक कोना था। जिस आज ‘ग्लोबल विलज’ कहा जाता है
उस हमन युगों पूर्व साक्षात कर दिया था।
गंगा का इतिहास
गंगा को मैदानों मं लान क पीछ का इतिहास भी यदि समझा जाए तो स्पष्ट होता
है कि गंगा उस समय चीन की अनुपजाऊ पथरीली भूमि की ओर स बहा करती थी,
अर्थात हिमालय स दक्षिण को न बहकर उत्तर को बहती थी। हमार भगीरथ नामक
राजा न अपन कुशल इंजीनियरों की सहायता स इस नदी का बहाव परिवर्तित करा
दिया और यह तब स हिमालय स दक्षिण की ओर को बहन लगी। इतन प्राचीन इतिहास
की इन साक्षियों स यदि प्ररणा ली जाए और इतिहास की गंभीरता स समीक्षा की
जाए तो भारत और चीन क प्राचीन संबंधों की कहानी का रोमांच स्वयं ही हमार
सामन प्रकट होन लगगा।
डा. आर.सी. मजूमदार न आकाशवाणी दिल्ली स प्रसारित अपनी एक वार्ता मं ऐस
अनकों बौद्घ पंडितों क नाम गिनाए हैं, जो भारत स चीन गय थ और जिन्होंन
संस्कृत और पाली की कोई तीन हजार पुस्तकों का चीनी मं अनुवाद किया था।
अनुवाद करन का यह क्रम अनवरत दसवीं शताब्दी तक जारी रहा। विद्वानों का यह
आना जाना दोनों दशों को सांस्कृतिक रूप स निकट लाया।
चीन न भारत स बहुत कुछ सीखा था, इसलिए उसन भारत क बौद्घ धर्म क लिए भी
दरवाज खोल दिय। यद्यपि भारत क वैदिक ज्ञान का इस काल मं निरंतर हृास हो
रहा था और जैसा कि जयचंद जैस विद्वानों का मानना है कि भारत न छठी
शताब्दी स 18वीं शताब्दी तक ज्ञान विज्ञान क क्षत्र मं ऐसा कोई उल्लखनीय
कार्य नही किया, जिस युगांतर कारी कहा जा सक।
भारत रहा है चीन का आध्यात्मिक गुरू
जयचंद जी की इस बात मं तार्किक बल है। हम इतिहास को चाह कितना ही
सकारात्मक और रचनात्मक सांचों मं ढालन का प्रयास कर लं परंतु यह सत्य है
कि इस काल मं हमार ज्ञान विज्ञान की प्रगति बाधित हुई और हम कई क्षत्रों
मं पिछड़ गय। परंतु इसक उपरांत भी चीन स फाहियान (399-414) ह्वन सांग
(629-645) इत्सिंग (671-695) और जैस कई यात्री विभिन्न कालों मं यहां आए
और यहां क संस्मरणों को उन्होंन पुस्तकों क रूप मं लिपिबद्घ किया और अपन
दशवासियों को बताया कि भारत कितना महान है? चीन न भारत को महान माना तो
कवल इसलिए कि वह भारत क ज्ञान विज्ञान स प्रभावित था और वह महात्मा बुद्घ
को भारत स भी अधिक सम्मान दता था। इसलिए चीन न भारत क शास्त्रों स सदा ही
जीवन जीन की कला सीखी और भारत को अपना ‘आध्यात्मिक गुरू’ माना।
रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति क चार अध्याय’ क पृष्ठ 165 पर
लिखत हैं (भारत मं आन वाल) दूसर चीनी यात्री हुवन सांग थ, जो सातवीं सदी
मं भारत आए थ। उस समय भारत मं राजा हर्षवर्धन का राज्य था। भारतवर्ष मं व
629 स 645 तक रह। ह्वन सांग गोबी की मरूभूमि और मध्य एशिया होकर हिमालय
को पार करक भारत आए थ। उनक यात्रा विवरण स ज्ञात होता है कि उन दिनों
मध्य एशिया मं बौद्घ राजाओं का राज्य था। तब मध्य एशिया क तुर्क भी बौद्घ
ही थ। (बौद्घ राजाओं का राज होन तथा मध्य एशिया क तुर्कों क भी बौद्घ
मतावलंबी होन की साक्षी रखांकित करन योग्य है। इतिहास का कितना क्रूर
सत्य है कि कालांतर मं य तुर्क ही भारत क लिए साक्षात यम बनकर टूट पड़
थ)….ईसा क पहल हजार वर्षों मं भारत क संत, पंडित तथा उपदशक बड़ी संख्या
मं चीन गय थ। चीन जाकर बौद्घ धर्म का व्यापक प्रचार करन वालों मं तीन
भारतीयों क नाम अत्यंत प्रसिद्घ है-कुमारजीव (401ई.) बुद्घभद्र (421 ई.)
और बोधि धर्म (520ई.) इन तीन महापुरूषों न चीन जाकर जो काम किया वह आज तक
याद किया जाता है।
बौद्घ धर्म न चीन मं गहराई स जड़ं जमा लीं। 844ई. मं चीन क सम्राट वत्सुंग
न बौद्घ धर्म और जरथुस्त्र धर्म को प्रतिबंधित करन का कार्य किया। परंतु
बौद्घ धर्म इसक उपरांत भी वहां बना रहा।
वैदिक चिंतक कन्फ्यूशियस
ईसाइयत और इस्लाम न अपनी धार्मिक मान्यताओं स यह मत प्रतिपादित किया है
कि संसार मं नय-नय धर्म आत रहत हैं और नयों क आन स पुरान धर्म समाप्त हो
जात हैं। आधुनिक लखक ईसाइयत और इस्लाम की इस मान्यता स बहुत प्रभावित
हंै। इसका परिणाम य हुआ है कि जैन और बौद्घ आंदोलनों को भारत मं नय धर्म
की मान्यता दी गयी। जबकि वास्तव मं य दोनों आंदोलन धर्म क नाम पर हो रह
कुछ अनुचित कार्यों क विरूद्घ मात्र सुधारात्मक आंदोलन थ। इसी प्रकार चीन
मं कन्फ्यूशियस न जो अपन विचार प्रकट किय व कवल धर्म क नाम पर बहुदवता
वाद और अन्य कुछ पाखण्डों मं फंस चीन को वैदिक मान्यताओं की ओर आकर्षित
करन का प्रयास था। कन्फ्यूशियस क चिंतन पर भारत क वदों और उपनिषदों का
गहरा प्रभाव था। इसलिए इस महापुरूष न विविध दवी-दवताओं की पूजा की अपक्षा
सदाचारमय और पवित्र जीवन जीन को मनुष्य क लिए उचित बताया। उन्होंन कहा कि
मनुष्य का यह ध्यय होना चाहिए कि वह अपन जीवन को पवित्र व परोपकारी बनाए।
संसार मं हमं सब ओर कष्ट दिखाई पड़ता है। इस कष्ट को दूर करन का उपाय यही
है कि संसार क सब मनुष्य एक दूसर की सहायता करं। इस प्रकार स कन्फ्यूशियस
वद क संगठन सूक्त मं वर्णित ‘समूह निष्ठा’ को यहां संसार क लिए उपयोगी
बता रह हैं।
उन्होंन कहा कि मनुष्य अपन लिए ही न जिऐ, अपितु सबकी उन्नति मं ही अपनी
उन्नति समझ। बात वही है जिस वद न और भी सुंदर शब्दों मं यूं कहा
है-वर्धस्व वर्धय च। इसका अभिप्राय है कि मनुष्य अपनी उन्नति तो कर ही
दूसरों की उन्नति मं भी सहायक बन। भारतीय संस्कृति क प्राणवाक्य
‘उत्तिष्ठत: जागृत: प्राप्य वरान्निबोधयति’ क उन्नतिगामी सूत्र को इस
महापुरूष न यंू कहा कि मानव क जीवन क कष्टों का तभी अंत हो सकता है जब
प्रत्यक मनुष्य अपन जीवन को उन्नति शील बनाकर ऊंचा उठान का लक्ष्य
निर्धारित कर।
चीन न महर्षि कन्फ्यूशियस की बातों को ध्यान स सुना और उस महात्मा बुद्घ
की भांति ही महापुरूषों मं शीर्ष स्थान दिया। यहां पर यह दृष्टव्य है कि
चीन न कन्फ्यूशियस और महात्मा बुद्घ को ही सम्मान मं शीर्ष स्थान पर
क्यों रखा? निश्चय ही चीन क भारत की सांस्कृतिक मान्यताओं क प्रति असीम
अनुराग का परिणाम था यह।
बुतप्रस्थ स बना बुतपरस्त
वीर सावरकर न बुतपरस्त को बुद्घ प्रस्थ संस्कृत शब्द का पर्यायवाची माना
है। इसका अभिप्राय है कि बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) स बहुदवतावाद की
वदविरूद्घ अवधारणा भारत मं बौद्घ धर्म न प्रसारित की। कालांतर मं
बुतपरस्ती भारत क लिए अभिशाप बन गयी। क्योंकि इस्लाम की तलवार का सामना
करन मं बौद्घ धर्म की अहिंसा और कायरता न कई स्थानों पर दश क क्षात्र
धर्म को नीचा दिखाया। इसलिए ईसा की पहली शताब्दी स ही हूणों क आक्रमणों स
दुखी रह चीन न अपनी सुरक्षा क लिए 1800 कि.मी. लंबी दीवार लगान क उपरांत
भी बहुत संभव है
अहिंसा की बात करता था और चीन क लिए आत्मरक्षार्थ हिंसा आवश्यक हो रही थी
तब कन्फ्यूशियस न भारत की तरह ही बुद्घ की बुतपरस्ती को दश क लिए घातक
समझा और ‘एकश्वरवाद’ का उपदश दकर चीन को नई दृष्टि दन का प्रयास किया।
कर्नल टॉड का मत
चीनियों क विषय मं कर्नल टॉड न अपनी पुस्तक ‘राजस्थान क इतिहास’ मं जो
कुछ लिखा है उसका सारांश पं. रघुनंदन शर्मा न अपनी पुस्तक ‘वैदिक
संपत्ति’ मं इस प्रकार दिया है-‘मोगल, तातार और चीनी लोग अपन को
चंद्रवंशी क्षत्रिय बतात हैं, इनमं स तातार क लोग अपन को अय का वंशज कहत
हैं, यह अय पुरूरवा का पुत्र आयु ही है। (पुरूरवा प्राचीनकाल मं चंद्रवंश
का मूलपुरूष स्वीकार किया गया है) इस आयु क वंश मं ही यदु था और उसका
पौत्र हय था। चीनी लोग इसी हय को हयु कहत हैं और अपना पूर्वज मानत
हैं….चीनवालों क पास यू की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है कि एक तार का
समागम यू की माता क साथ हो गया। इसी स यू हुआ। यह बुद्घ और इला क समागम
की सी बात है। इस प्रकार तातारों का अय चीनियों का यू और पौराणिकों का
आयु एक ही व्यक्ति हैं। इन तीनों का आदिपुरूष चंद्रमा था और य चंद्रमा
वंशी क्षत्रिय हैं, यह अच्छी प्रकार सिद्घ होता है। ‘हिंदी-विश्वकोष’
पृष्ठ 318 मं उपनिवश शब्द पर लिखा है कि -‘चीन दश की पुरातत्व आलोचना स
यह सिद्घ होता है कि ई. सन पूर्व 8वीं शताब्दी मं भारतीय आर्य वाणिकों न
चीन दश क बहुत स स्थानों मं अपना प्रभाव फलाया था और बहुत स स्थानों मं
उपनिवश भी किया था। इसलिए चीनियों क आर्यवंशज होन मं तनिक भी संदह नही
किया जा सकता’।
प्रो. सत्यव्रत सिद्घांतालंकार ‘वैदिक संस्कृति का संदश’ नामक पुस्तक मं लिखत हैं-
‘भारतीय संस्कृति मं तथा इतिहास मं दो शब्द बड़ महत्वपूर्ण हैं। व
हैं:-सम्राट तथा परिव्राट। परिव्राट का अर्थ है-विचारों का प्रचार करन
वाला संन्यासी। सम्राट शब्द राजनीतिक है, परिव्राट शब्द सांस्कृतिक है।
सम्राट अपन दश का राजा है, परिव्राट वह संन्यासी है जो दश-विदश,
द्वीप-द्वीपांतर मं वैदिक संस्कृति का संदश वाहक है।’
अब जिन लोगों को य भ्रांति है कि भारतीय लोग अपन इतिहास और संस्कृति क
प्रति कभी सजग नही रह, वो सम्राट और परिव्राट क समीकरण पर चिंतन करं। यह
कितनी प्रसन्नता का और गौरव का विषय है कि ईसवीं सन 1000 तक भी भारत मं
सम्राट और परिव्राट का यह समीकरण भली प्रकार चल रहा था। दश क पश्चिमी
क्षत्र मं सम्राट (शस्त्र) कार्य कर रहा था तो उत्तर पूर्वी क्षत्र मं
परिव्राट (शास्त्र) अपना काम कर रहा था। चीन को हमार सम्राट और परिव्राट
दोनों न ही प्रभावित किया। उसी तथ्यपूर्ण इतिहास को पुन: प्रस्तुत करन की
आवश्यकता है। जब हमारी सम्राट और परिव्राट की परंपरा प्रभावित हुई तब
हमारा पतन हुआ, परंतु उस पतन को पतन कहना तो उचित है उस पराधीनता कहा
जाना उचित नही है। क्योंकि पराधीनता को कभी हमन स्वीकार नही किया। उसक
विरूद्घ तो हम सतत संघर्षरत रह। हमार इस संघर्ष का एक कारण यह भी था कि
हमारी रगों मं अपन सम्राट और परिव्राट पूर्वजों का रक्त दौड़ रहा था। आज
इस परंपरा पर गहन चिंतन कर इतिहास को नई परिभाषा दन की आवश्यकता है।
क्रमश: