ओ३म्
=============
संसार मे हम अविद्या व दुःखों को देखते हैं। इसका कारण है मनुष्यों की वेदज्ञान से दूरी। वेदों से दूरी वेदों का अध्ययन छोड़ देने के कारण हुई। प्राचीन काल में मनुष्यों के लिये जो नियम बनाये गये थे उनमें वेदों का स्वाध्याय करना अनिवार्य होता था। शास्त्रीय वचन है कि हम नित्य प्रति वेदों का स्वाध्याय करें तथा हम वेदों के अध्ययन से पृथक कभी न हों। प्राचीन मनुष्य को जन्म के बाद लगभग आठ वर्ष की आयु से वेदाध्ययन आरम्भ करना पड़ता था। अब भी गुरुकुलीय प्रणाली कुछ इसी प्रकार से होता है। लगभग 16 या पच्चीस वर्ष की आयु में कन्या व बालकों की शिक्षा पूरी हो जाती थी। इसके बाद भी वह वेदों से दूर न हों, इसलिये प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय की प्रेरणा की जाती थी। जन्मना व कर्मणा ब्राह्मणों के लिए वेदों का अध्ययन व अध्यापन अनिवार्य होता था। आज भी जो कर्मणा ब्राह्मण हैं उनके लिये वेदों का नित्य स्वाध्याय करना आवश्यक ही ही है व वह करते भी हैं। कर्मणा ब्राह्मण हमें वैदिक परिवारों, जिन्हें आर्यसमाजी परिवार भी कहा जाता है, उन्हीं में प्रायः प्राप्त होते हैं। हमारे जन्मना ब्राह्मणों ने वेदों का अध्ययन करना प्रायः छोड़ दिया है। पौराणिक जगत में वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थों का हिन्दी आदि भाषाओं में भाष्य, टीका व अनुवाद देखने को नहीं मिलता। हिन्दुओं की धार्मिक साहित्य प्रकाशित करने वाली संस्थायें वेदों व उनके सत्य अर्थों वाली टीकाओं को प्रकाशित करने का कार्य नहीं करती। यह एक प्रकार का धर्म को न जानना व उसके प्रचार में बाधायें खड़ी करना ही है। इससे ही अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों को बढ़ावा मिलता है।
ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ व वेदार्थ को जानने वाले ऋषि थे। उन्होंने चारों वेदों का पुनरुद्धार किया है। उनके समय में वेद प्रायः विलुप्त व अप्रचलित हो गये थे। उनके समय में वेदों की मुद्रित प्रति भी उपलब्ध नहीं होती थी। वेदों के सत्य अर्थों से युक्त भाष्य व टीकायें भी उपलब्ध नहीं थी। देश में कहीं कोई ऐसा स्थान उनके समय में नहीं था जहां आजकल की तरह वैदिक गुरुकुल रहें हों और जहां वेदाध्ययन कराया जाता रहा हो। ऋषि दयानन्द के समय में वेदाध्ययन करने में अनेक बाधायें उत्पन्न हुईं थीं। स्वामी दयानन्द के पुरुषार्थ, दृण इच्छा शक्ति एवं दैवयोग से उनको मथुरा में प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का शिष्यत्व प्राप्त हुआ था। स्वामी दयानन्द ने विद्या प्राप्ति में जो अपूर्व परिश्रम किया, उसके परिणामस्वरूप वह एक सच्चे योगी, ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए सन्यासी एवं विद्वान ही सिद्ध नहीं हुए, अपितु उन्होंने वेदार्थ करने की योग्यता भी प्राप्त की थी जो सन् 1863 में उनके शिष्यत्व काल की समाप्ती के बाद उनके भावी जीवन में दृष्टिगोचर हुई। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने वेदों को ढूंढकर प्राप्त किया था और उनकी परीक्षा कर उद्घोष किया था ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (वा मानवमात्र) का परमधर्म है।’ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने देश भर में वैदिक मान्यताओं का धुआंधार प्रचार किया। स्थान-स्थान पर जाकर वेदों पर प्रवचन किये। वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं से देश की धार्मिक जनता को परिचित कराया। असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन किया। विपक्षी व विधर्मियों से वैदिक विषयों पर शास्त्रार्थ किये। सत्य को मनवाने के लिये उन्होंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी थी। इसके साथ ही उन्होंने वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं के समर्थन में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया।
ऋषि दयानन्द ने सम्भवतः महाभारत के बाद वेदों के सत्य अर्थों तथा शास्त्रीय प्रमाणों के युक्त वेदों के भाष्य का कार्य आरम्भ किया था। उन्होंने अपने इस प्रयास में ऋग्वेद का आंशिक तथा यजुर्वेद का सम्पूर्ण भाष्य संस्कृत व हिन्दी में किया। वेदभाष्य करते हुए ही जोधपुर में वेदज्ञान के महत्व से अनभिज्ञ उनके विरोधियों ने विषपान कराकर उनकी जीवन लीला को समाप्त कर दिया। यदि ऐसा न होता तो वह कुछ अवधि बाद वेदभाष्य के कार्य को पूर्ण कर देते। इससे सारे संसार में सत्यज्ञान वा विद्या का प्रकाश हो जाता। इससे सारे संसार का उपकार होता परन्तु स्वार्थी व अविद्यायुक्त लोगों को देश व समाज का उपकार पसन्द नहीं होता, वह ऐसे उपकारी कार्यों में विघ्न उत्पन्न करते ही रहते हैं जिससे मानव जीवन की उन्नति में बाधायें आती रहती हैं। देश का सौभाग्य रहा कि उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायी विद्वानों ने चारों वेदों का ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों के अनुसार वेदभाष्य का कार्य पूर्ण किया। आज हमारे पास अनेक विद्वानों के सत्य अर्थों से युक्त वेदों के भाष्य वा टीकायें हैं जिनका अध्ययन कर मनुष्य अपने जीवन को श्रेष्ठ व श्रेय मार्ग का सिद्ध पथिक बनाकर मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। ऋषि दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना भी की थी। आर्यसमाज अन्य संस्थाओं के समान सीमित उद्देश्यों को पूरा करने वाली साधारण संस्था नहीं, अपितु यह एक अपूर्व व महान संगठन है जिसका स्वरूप आन्दोलन का है और यह वेदों के जन-जन में प्रचार के लिये स्थापित किया गया संगठन है। मात्र 145 वर्षों के अपने स्थापना काल में आर्यसमाज ने देश व समाज की सेवा करते हुए अनेक उपलब्धियां प्राप्त की हैं।
ऋषि दयानन्द और आर्यसमाजों के प्रयासों से वेदों का दिग्दिगन्त प्रचार हुआ है। वैदिक मान्यताओं की विश्व में चर्चा व स्थापना हुई है। देश की परतन्त्रता समाप्त हुई। देश से अविद्या व अज्ञान के बादल छंटे हैं। देश ज्ञान व विज्ञान में आगे बढ़ा है। देश से अन्धविश्वास व पाखण्ड दूर व कम हुए हैं। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि का प्रभाव कम हुआ है। वर्तमान समय में वेदों का स्वाध्याय करने वाला मनुष्य इन अवैदिक कृत्यों में फंसता नहीं है। हम जैसे बहुत से लोग ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़ कर ही अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों से दूर हुए हैं। यह भी स्पष्ट कर दें आर्यसमाज कुछ अन्य मत-संगठनों की भांति मूर्तिभंजक संस्था नहीं है अपितु यह सौहार्द बनाये रखते हुए प्रेमपूर्वक वेदों का मौखिक प्रचार कर लोगों को जड़ पूजा छोड़ने की प्रेरणा करती है। आर्यसमाज के प्रयासों से देश से सामाजिक असमानता दूर करने के क्षेत्र में भी उललेखनीय सुधार हुआ है। आर्यसमाज ने समाज में प्रचलित जन्मना-जातिवाद पर प्रहार किया था। जन्मना जाति वाद सामाजिक मरण व्यवस्था के तुल्य है। इस व्यवस्था में मनुष्य को अपनी प्रतिभा व गुणों का पूरा-पूरा विकास एवं उन्नति करने के समान अवसर सुलभ नहीं होते। आर्यसमाज ने इसके विरुद्ध भी तीव्र व सफल आन्दोलन किया जिसका देश पर अनुकूल प्रभाव हुआ। अधिकांश समझदार शिक्षित लोग अपने नाम के साथ जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करने में हिचकिचाते हैं। लाखों लोगों ने आर्यसमाज से प्रभावित होकर ही अपने नामों के साथ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करना छोड़ा है। आर्यसमाज के प्रभाव से ही स्त्रियों व शूद्रों को वेदाध्ययन, श्रवण, मनन व प्रचार का अधिकार प्राप्त हुआ है। ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित संगठन आर्यसमाज को ही यह गौरव प्राप्त है उनके प्रयासों से स्त्रियां वेदविुदषी बनीं तथा हमारे शूद्र बन्धु भी वेदों के विद्वान बने। गुरुकुल में पढ़े दलित परिवारों के बन्धु आर्यसमाज में कर्मकाण्ड करने वाले पुरोहित, उपदेशक, प्रचारक व लेखक बनते हैं। वेद विदुषी नारियां वेद पारायण यज्ञों की ब्रह्मा बनती हैं। इन नामों में हम आचार्या डा. प्रज्ञादेवी, डा. मेधादेवी, डा. सूर्यादेवी चतुर्वेदा, डा. नन्दिता शास्त्री, डा. प्रियम्वदा वेदभारती आदि के नाम गौरव के साथ ले सकते हैं। नारियों को वेदाध्ययन व अध्यापन का गौरव ऋषि दयानन्द के कारण ही प्राप्त हुआ और इससे देश विरोधी ताकते भी निर्बल हुईं।
महाभारत युद्ध के बाद देश में वेदाध्ययन समाप्त प्रायः हो गया था। महाभारत पर आकर देश में ऋषि परम्परा भी समाप्त हो गई थी। अन्तिम ऋषि जैमिनी हुए हैं। उनके बाद पांच हजार वर्ष के अन्तराल के बाद ऋषि दयानन्द अपने पुरुषार्थ एवं गुरु विरजानन्द से प्राप्त विद्या के कारण ऋषि बने। ऋषि दयानन्द ने अवरुद्ध वेदाध्ययन को आरम्भ कर अविद्या पर प्रहार किया। सभी मत-मतान्तरों ने उनका इस शुभ, देशहितकारी तथा मानव जीवन उन्नति के प्रतीक कार्य का भी विरोध किया और उनके मार्ग में अनेक अवरोध पैदा किये। कई बार कई स्थानों पर अपने ही बन्धुओं ने अपनी अविद्या एवं मूर्खता के कारण उनको विषपान कराया। हमारा सौभाग्य था कि ऋषि दयानन्द विषपान को यौगिक क्रियाओं से दूर करना जानते थे। अनेक बार वह इसमें सफल भी हुए। ऋषि दयानन्द के निजी कारणों से विरोध एवं हत्या करने के प्रयासों ने भी उनके धर्म व देश उपकार के लिए किये जा रहे कार्यों को शिथिल नहीं होने दिया। वह महाभारत के बाद सच्चे साधु, ईश्वरभक्त, वेदभक्त, ऋषि परम्परा में अनन्य निष्ठावान, आदर्श संन्यासी, वैदिक विद्वान, ज्ञानी, योगी, देशभक्त, स्वतन्त्रताप्रेमी, भारत माता के अद्वितीय पुत्र तथा सृष्टि के ज्ञात इतिहास में सच्चे व आदर्श महापुरुष एवं देवता सिद्ध हुए। उनको हमारा कोटि कोटि नमन है।
यह सत्य सिद्ध है कि ज्ञान व विद्या के पर्याय वेदों का प्रचार व प्रसार न होने पर ही अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा मत-मतानतर आदि समाज में फैलते हैं जिससे मनुष्यों के दुःखों में वृद्धि और मानवजाति का पतन होता है। अविद्या ही मत-मतान्तरों की जननी होती है। जहां अविद्या न होकर विद्या होती है वहां सच्चा धर्म, सद्ज्ञान, विद्या व वैदिक संस्कृति फलती एवं फूलती है। अविद्या से मनुष्य पाप कर्मों को करके दुःखों को प्राप्त होते हैं। पाप कर्म अविद्या के कारण ही होते हैं। ऐसे समाज व संगठनों में सच्चे आचार्य नहीं होते। जो होते हैं वह दिखावी आचार्य होते हैं जिनके पास विद्या नहीं होती। यदि उनके पास विद्या होती तो वह सबको समान रूप से सत्यउपदेश करते। अपने और परायों का पक्षपात नहीं करते। अविद्या के कारण ही शिक्षित लोग भी स्वार्थों के जाल में फंस जाते हैं और देश व समाज विरोधी कार्यों को करते हैं जिससे देश व समाज को हानि होती है। अविद्या मनुष्य की बुद्धि का पूर्ण विकास नहीं होने देती। अविद्यायुक्त लोगों में देश व इसके पूर्वजों के प्रति सम्मान की भावना भी नहीं होती। वह दूसरे चालाक लोगों द्वारा बहकायें जाने पर अपने पूर्वजों को ही निम्नतर मानने लगते हैं। वेदों के मर्मज्ञ, ऋषि तथा पूर्ण विद्यावान महर्षि दयानन्द ने इन सब बातों से देशवासियों व अपने अनुयायियों को परिचित कराया था। हमें ऋषि दयानन्द की शिक्षाओं और वेदों का अध्ययन कर अपनी अविद्या को दूर करना है। सभी अन्धविश्वासों व कुरीतियों से मुक्त होकर देश व समाज की उन्नति में योगदान करना है। अपने वर्तमान, भविष्य और परजन्म मनुष्य को सुधारना है। सत्य सिद्धान्तों पर आधारित श्रेष्ठ समाज को बनाना है। सभी कायिक, मानसिक व आत्मिक दुःखों से मुक्त होकर वेदमय पुरुषार्थ से मृत्यु को प्राप्त कर वेदविद्या का आचरण करते हुए सभी दुःखों से मुक्त होकर 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की मोक्ष अवधि में ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वर के आनन्द को भोगना है। यह तथ्य है कि वेदों से दूरी होने के कारण ही संसार में अविद्या उत्पन्न हुई, लोगों पर दुःखों का पहाड़ टूटा है, वह सुखों व मुक्ति से दूर हुए हैं तथा देश व विश्व में अनेक अमानवीय कार्य धडल्ले से हो रहे हैं। अतः देश देशान्तर में सुख व शान्ति के हमें सत्य और धर्म के मार्ग पर लौटना ही होगा। इसके लिये वेद ही सभी मनुष्यों का एकमात्र सहारा एवं आधार हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य