हमारे देश का संविधान हमारे जनप्रतिनिधियों को चुनने के लिए केवल इतनी व्यवस्था करता है कि ऐसा व्यक्ति (1) भारत का नागरिक हो (2) सजायाफ्ता मुजरिम ना हो (3) पागल या दिवालिया न हो इत्यादि।
जिस देश के जनप्रतिनिधियों के भीतर जनप्रतिनिधि बनने के लिए केवल इतनी ही योग्यता रखी गयी हो, उस देश में सुशिक्षित और सुसंस्कारित सभ्य समाज के बनाये जाने का सपना कैसे फलीभूत होगा? यह बात विचारणीय है। जनप्रतिनिधियों के चारित्रिक पक्ष की प्रबलता, उच्च शैक्षणिक योग्यता, अपने विषय की विशेषज्ञता, संसदीय शासन प्रणाली की अच्छी समझ, राष्ट्रीय सोच, देश के सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों की अच्छी समझ, लोकतंत्र के प्रति पूर्णत: समर्पण का भाव इत्यादि गुणों को हमारे जनप्रतिनिधियों के लिए संवैधानिक रूप से अनिवार्य नही माना गया है।
लोकतंत्र के प्रति इस अन्याय को नेताओं ने अपने प्रति न्याय माना और धीरे-धीरे संसद में ऐसे अपात्र और अयोग्य लोग पहुंचने लगे जिनका लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में तनिक भी विश्वास नही था। राजनीति को इन लोगों ने व्यापार बना लिया और देश को कुछ परिवारों ने (नेहरू, गांधी परिवार की तर्ज पर) अपनी जागीर बना लिया। सारे ‘जागीरदार’ लोकतंत्र को देश में लाठी से हांक रहे हैं और उनका न्यूनतम सांझा कार्यक्रम केवल इतना ही है कि वे सभी एक दूसरे के लिए कभी कुछ नही कहते हैं। सत्ता का स्वाद तुम भी चखो और हम भी चखें, मौज करें, पर एक दूसरे के रंग में भंग ना करें।
देश को भांग पिला दी गयी है और सारा देश कह रहा है कि देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। पर जिन पर इस भांग का नशा नही हुआ है वो जान रहे हैं कि देश में लोकतंत्र मजबूत नही हुआ है अपितु लोकतंत्र की ‘अंतिम यात्रा’ ही निकाल दी गयी है। अंतिम यात्रा में ‘ओम नाम सत्य’ है नही कहा जा सकता है अपितु मेरे नेता का नाम सत्य है-बाकी सब असत्य है-का राग अलापा जा रहा है। इसे लोकतंत्र नही कहा जा सकता यह लोकतंत्र के लिए देश की आत्मा का विलाप है।
राजनीति में कुसंस्कारित लोगों की भर्ती खोलना लोकतंत्र की पहली हार थी। देश के राजनीति मूल्यों के प्रति समर्पण का अभाव दूसरी हार थी। देश की संस्कृति, और इतिहास के प्रति अज्ञानता का होना तीसरी हार थी। हार का सिससिला अनंत… इसलिए गलतियों का सिलसिला भी अनंत।
फलत: पहली, दूसरी, तीसरी या चौथी पंक्ति के नेताओं के हाथ में नही अपितु अब तो देश 8वीं और 10वीं पंक्ति के नेताओं के हाथों में है। जिन लोगों ने कभी सोचा भी नही था वो भी इस देश के पी.एम. बन गये। पूंछ हिलाती गर्दनों की जमीर बिक गयी और उधर देश का सौदा हो गया। जमीर ने शमशीर बेच दी और शमशीर ने तकदीर बेच दी। सारा लोकतंत्र तार तार होकर रह गया। शर्म भी मारे शर्म के ‘वैश्याओं के बाजार’ से दबे पांवों कूच कर गयी। अब सीबीआई इस शहर में और चाहे जो कुछ ढूंढ लें, पर उसे शर्म नही मिल सकती। ऐसे ही परिवेश में भाजपा के नरेन्द्र मोदी को एक पार्टी के नेता ने कह दिया है कि देश का पी.एम. चाय बेचने वाला नही बन सकता।
इस वाक्य को लोगों ने गंभीरता से लिया है। कहने वाले की बहुत छीछालेदार की गयी है। लेकिन सपा के ‘नरेश’ ने जो कुछ कहा है वह गलत ही क्या है? जिस देश में पिछले 67 वर्ष से केवल प्रबंध ही ये किया जा रहा हो कि एक ‘चाय बेचने वाला’ देश का पी.एम. नही बन सकता, उस देश के राजनीतिक परिवेश और राजनीतिक संस्कारों को अपने वाक्य से कहकर उस नरेश ने कोई गलती नही की है। नरेश के सच को अब शोर से दबा दिया जाएगा, जबकि होना ये चाहिए कि व्यवस्था की पड़ताल हो, और देखा जाए कि क्या वास्तव में ही देश की स्थिति ऐसी बन चुकी है कि एक चाय बेचने वाला देश का पी.एम. नही बन सकता? यदि हां, तो क्यों और यह स्थिति कब तक बनी रहेगी?
एक बार स्वामी रामतीर्थ जापान गये हुए थे। एक लंबी रेल यात्रा के बीच उनका फल खाने का मन हुआ। गाड़ी एक स्टेशन पर रूकी, पर उन्हें वहां कोई फल या फल वाला दिखाई नही दिया। उनके मुंह से अनायास ये शब्द निकल गये कि संभवत: इस देश में फल नही मिलते हैं। स्वामी जी इन शब्दों को एक जापानी सहयात्री ने समझ व सुन लिया। वह अगले स्टेशन पर गाड़ी के रूकते ही शीघ्रता से नीचे उतरा और स्वामी की के लिए वहां से अच्छे फलों की एक टोकरी ले आया। उसने वो फल स्वामी जी के सामने लाकर रख दिये और उनसे खाने का निवेदन करने लगा। तब स्वामी जी ने उस सहयात्री को फलवाला मान कर उसे उस टोकरी के फलों का मूल्य देना चाहा। परंतु उस सहयात्री ने अपने फलों का मूल्य लेने से यह कहकर मना कर दिया कि इन फलों का मूल्य केवल इतना ही है कि आप मेरे देश के विषय में अपने देश में जाकर ये ना कहना कि जापान में अच्छे फल नही मिलते। स्वामी जी उस सहयात्री की देश भक्ति से अति प्रभावित हुए।
इधर हमारे राजनीतिज्ञ हैं जिनके विषय में दशकों से कहा जा रहा है कि इनमें नैतिकता, शर्म और लोकतंत्र के प्रति निष्ठा नही रही है। इन्हें भगाओ, अथवा हटाओ। लेकिन ये हंै कि हटते ही नही हैं और ना सुधरते हैं। एक से बढ़कर एक घटिया और निम्न स्तरीय वक्तव्य हमें इन चुनावों में सुनने को मिल रहा है। अब इनमें से वो डा. राधाकृष्ण्न ढूंढ़ना कठिन है, जिन्होंने एक ब्रिटिश मंत्री के यह कहने पर कि पश्चिमी देशों ने जो उन्नति की है यह भारत ने क्यों नही की? उसे यह जबाव दिया था-यह सही है कि पश्चिम के लोगों ने चिड़ियों की भांति उड़ना सीख लिया है और मछलियों की तरह तैरना सीख लिया है वह दूसरे ग्रहों पर जाकर बसने की भी सोच रहे हैं, लेकिन मानव की तरह धरती पर प्रेम से रहना वे नही सीख सके हैं। जिसे केवल भारत ने ही सीखा है और सिखाया है, अपना भौतिक वैभव लूट जाने के बावजूद भी प्रेम करूणा और मानवता जैसे सदगुण केवल भारत से ही सीखे जा सकते हैं।
यह अच्छा है कि जनता के दरबार में आकर नेता घटिया बातें कर रहे हैं। इसलिए जनता अब इन ‘नरेशों’ को सबक सिखाये और सफाई अभियान के लिए ‘झाडू वालों’ के पीछे झाड़ू लेकर ही पड़ जाए। जिससे कि उन्हें पता चल जाए कि झाडू दूसरों का ही सफाया नही करती है अपितु यह झाडू संभालने वालों का भी सफाया करना जानती है।