चिंता हमें क्यों? उसे है
जिसने बसाया यह संसार है
– डॉ. दीपक आचार्य
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वर्तमान के संसाधनों और आनंद को गौण मानकर आजकल लोग भविष्य की आशंकाओं और चिंताओं में खोये हुए हैं। इस वजह से उनका मन-मस्तिष्क हमेशा उद्विग्न, अशांत और अधीर रहने लगा है और इसका प्रभाव शरीर पर भाँति-भाँति की बीमारियों के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा है। कर्मयोग के प्रति आत्मीय रुचि और लगाव की बजाय हमारा मन हमेशा भविष्य को लेकर आशंकित रहने लगा है।
अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए हम कल्पनाओं के कितने सारे ताने-बाने रोज बुनते हैं, वर्तमान में जो प्राप्त हो रहा है उसका भरपूर आनंद नहीं ले पा रहे हैं और जाने कितनी आशंकाओं ने हमें चिंतित कर रखा है। समाज और देश के मामलों में, अपने सगे-संबंधियों और परिचितों के मामलों में हम जितने गंभीर नहीं होते, उससे ज्यादा चिंता हमें अपने मामलों को लेकर रहने लगी है।
चिंता और आशंकाओं के बादल हर किसी के सर पर उमड़ते-घुमड़ते रहने लगे हैं चाहे वह बड़े से बड़ा आदमी हो या छोटे से छोटा। जो जहाँ है उसमें संतुष्ट नहीं है बल्कि उससे भी आगे बढ़ना और पाना चाहता है। महत्त्वाकांक्षाएँ होना अच्छी बात है लेकिन समाज और देश को भुला कर अपने ही अक्स को देख-देख कर उच्चाकांक्षाओं में रमे रहना और अंधेरों को सहचर बना कर अंधेरों के गुणगान करना न हमारे लिए अच्छा है, न औरों के लिए।
आज हमारी स्थिति यह हो गई है कि हम हर दिशा में, हर कोने में अपने स्वार्थ को देखते हैं, हर आदमी में अपने लिए श्रद्धा और सम्मान की अनिवार्यता देखते हैं और यह अपेक्षा करते हैं हर इंसान हमारे और सिर्फ हमारे लिए ही जिये, और हमारे लिए हर कुरबानी के लिए तैयार रहे। हम अपने बंधुओं को अनुचर और अंधभक्त बनाना चाहते हैं और यही कारण है कि हम अपने आगे बैण्ड वाले तलाशते हैं और पीछे भीड़ को।
अपनी सोच को थोड़ी सी बदल कर जीवन में अनुचरों और अंधभक्तों की बजाय यदि हमने साथियों की तलाश की होती या अपनी बराबरी पर लाकर अपने साथियों को साथ लेकर चलने की मनोवृत्ति रखी होती तो आज हम कहाँ से कहाँ पहुंच जाते। हमें यह कहने और करने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि हमें और भी बहुत कुछ करना है। सारा अपने आप हो जाता, सामूहिकता और आत्मीय भागीदारी की सोच के साथ जो काम होते हैं उनका कोई मुकाबला नहीं।
इन तमाम हालातों के बीच कुछ आत्मज्ञानी लोगों को छोड़ दिया जाए तो सारे के सारे भविष्य को लेकर आशंकित रहते हैं और अपने भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए कई सारे जायज-नाजायज जतन करते रहते हैं। सुनहरे भविष्य को पाने के लिए हर प्रकार के प्रयास करना इंसान के स्वभाव में है, होना भी चाहिए लेकिन इस सारी यात्रा में आशंकाओं, भ्रमों और शंकाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इससे भविष्य निर्माण का वेग व घनत्व कम होता है और जो ऊर्जाएँ तथा मनोबल लगना चाहिए उनका मार्गान्तरण हो जाता है और इस वजह से लक्ष्य पाने में निरन्तर देरी होने लगती है।
भविष्य सँवारने के सारे जतन तमाम झंझावातों और आशंकाओं से मुक्त होकर करने चाहिए क्योंकि जो हम वर्तमान में प्राप्त कर रहे हैं वह हमसे कोई छीन नहीं सकता। कर्म और भाग्य का यह पारस्परिक संबंध हर किसी को जीवित रखने और सामान्य जिन्दगी मुहैया कराने में कभी पीछे नहीं रहता। इस बात को कोई स्वीकारे या नहीं, मगर है सत्य।
जिस भगवान ने पूरी दुनिया बनाई है उसने सभी प्राणियों के लिए सभी प्रकार की जरूरी व्यवस्थाएं कर रखी हैं। उनके कर्मों के अनुसार सुख और दुःख प्राप्ति में न्यूनाधिकता हो सकती है लेकिन जीवन के लिए जो बुनियादी जरूरतें एक आदमी के लिए जरूरी हैं उनकी पर्याप्त व्यवस्था ईश्वरीय विधान में है। फिर चाहे वह हाथी के लिए मन की व्यवस्था हो या चींटी के लिए कण की। जो विश्वंभर है उसे सभी की चिंता है और वही सभी की जरूरतों को सहजतापूर्वक पूर्ण करता है।
हमारी चिंता मस्ती के साथ संतोषी जीवन जीने की नहीं होती बल्कि उससे भी बढ़कर हमारी सोच भविष्य के लिए संग्रह करने की होती है और यही हमारे वर्तमान को बिगाड़ने और भविष्य को आशंकाओं से भर देने के लिए एकमात्र जिम्मेवार कारण है। भविष्य को लेकर चिंता करने का सीधा सा अर्थ है कि हमारा ईश्वर पर श्रद्धा-विश्वास नहीं रहा, उसके विधान के प्रति हम आशान्वित नहीं हैं, बस यहीं से हमारे जीवन की दुविधाओं और त्रासदियों का दौर शुरू हो जाता है और हम जीवनानंद को भुला कर अपने दम पर सुरक्षित भविष्य पा लेने के जतन शुरू कर देते हैं। ऎसे में वर्तमान को हम न अच्छी तरह जी पाते हैं, न हमारा वर्तमान आनंद दे सकता है क्योंकि हम वर्तमान में रहते हुए भी वर्तमान के नहीं हुआ करते। यही आम आदमी की तमाम समस्याओं की जड़ है।
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