डा. अशोक आर्य
हम सब जानते हैं कि महान् आचार्य चाणक्य के प्रताप से सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जिस राज्य गद्दी को पाया था| उनका पोता सम्राट अशोक इस राज्य का अत्यधिक शूरवीर और प्रतापी सम्राट था| देश धर्म के कार्यों में उसकी क्रूरता का भी परिचय मिलता है| इस अवसर पर वह क्रूर ही नहीं क्रूरतम रूप धारण कर लेता था| जब अशोक ने कालिंग पर आक्रमण किया तो बड़ा भयंकर युद्ध हुआ| इस युद्ध में बहुत भारी संख्या में सैनिकों की मृत्यु को देख कर अशोक में विरह की आग जलने लगी| अब वह युद्ध नहीं शांति का इच्छुक था| इस कारण दया, धर्म, निर्धन का सहायक, इस प्रकार के अनेक रूपों में वह अपनी जनता के सामने आया और भविष्य में कभी युद्ध न करने का संकल्प लिया|
महाराज अशोक के एक पुत्र तथा एक पुत्री थे| राजकुमार का नाम महेंद्र था और राजकुमारी का नाम संघमित्रा था|( कुछ इतिहासकारों ने इस राजकुमारी को अशोक की बहिन माना है, जो ठीक नहीं है|) राजकुमार और राजकुमारी दोनों ही अत्यधिक सुन्दर, सुशील , दयालु और बुद्धिमान् थे| वह अशोक के कार्य में समय समय पर हाथ भी बंटाते रहते थे तथा अपने पिता के यहाँ आने वाले बौद्ध धर्मावलम्बी गुरुजनों के आगमन पर उनकी खूब सेवा भी किया करते थे, इस कारण उनका अनुराग भी अपने पिता द्वारा चुने गए बौध मत की और अत्यधिक गूढ़ था| जब अशोक ने अपना जीवन धर्म प्रचार में अर्पित कर दिया तो यह दोनों भी धर्म के कार्यों में पिता के सहयोगी बन गए|
इस प्रकार इस धर्मनिष्ठ सम्राट की देखरेख में इन दोनों भाई बहिन का लालन पालन तथा दीक्षा का कार्य सम्पन्न हुआ| इन भाई बहिनों के पास सुन्दरता के साथ ही साथ अत्यधिक शीलता तथा विनम्रता के गुण भी थे| ऊँची शिक्षा तथा साधू लोगों की संगती के कारण तथा गुरुजनों के मध्य रहने के कारण इनके हृदयों में अत्यधिक धर्म की भावना भर चुकी थी| राजकुमार महेंद्र की आयु बीस वर्ष की हो चुकी थी और राजकुमारी उससे दो वर्ष छोटी अर्थात् अठारह वर्ष की थी| महाराज राजकुमार को युवराज पद पर आसीन करना ही चाहते थे कि एक बौद्ध भिक्षु के विचारों के अनुसार इन दोनों को बौद्ध भिक्षु बनाने का निर्णय लिया किन्तु इस सम्बन्ध में दोनों से पूछना आवश्यक था| अत: सम्राट ने दोनों से जब पूछा तो दोनों के हृदय कमल इस बात को सुनकार खिल उठे| चाहे वह एक सम्राट की संतान थे| उन्होंने कभी यह सोचा भी न था कि वह कभी भिक्षु बनेंगे किन्तु दोनों ने एकदम से पिता के विचार को शिरोधार्य करते हुए उस पर अपनी सहमती दे दी| उनको इसमें अपने मानव जीवन की सफलता दिखाई दी|
यह सुनकर सम्राट अति प्रसन्न हुए| कुछ ही समय में यह समाचार बिजली की भाँति पूरे राज्य में फ़ैल गया| देश के सब नागरिकों में भी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई| अब दोनों भाई बहिन को दीक्षा दे दी गई| राजकुमार महेंद्र को नया नाम धर्मपाल दिया गया तो बहिन संघमित्रा आज से आयुपाली के नाम से जगत् विख्यात् हो गई| अब दोनों ने अपने अपने संघ में रहते हुए धर्म की साधना करनी आरम्भ कर दी| जब धर्मपाल (राजकुमार महेंद्र) की आयु बत्तीस वर्ष की हुई, तब तक वह धर्म के प्रचार संबंधी सब जानकारी प्राप्त कर चुका था| अत: उसे सिंहलद्वीप में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेज दिया गया|
सिंहलद्वीप (वर्तमान लंका) में रहते हुए उसने जो अपना आध्यात्मिक रूप प्रस्तुत किया, इसे तथा इसकी सुन्दरता को देखकर वहां का राजा तिष्ठ विस्मित हो उठा| उसके आतिथ्य में रहते हुए भिक्षु धर्मपाल अथवा राजकुमार महेंद्र ने वहाँ अनेक उपदेश दिए| उसके उपदेशों को सुनकर वहाँ के अनेक स्त्री पुरुषों ने बौद्ध मत को अपना लिया| उनके उपदेशों से प्रभावित राजकुमारी अनुला ने भी अपनी पांच सौ सखियों सहित बौद्ध मत का अनुगमन कर लिया| वह भी भिक्षुणी के व्रत में बंध गई तथा धर्म प्रचारक के रूप में शिक्षा लेने लगी|
अब तक सिंघल द्वीप की बहुत सी महिलायें तथा कन्याएं बौद्ध धर्म अपना चुकी थीं| इस कारण अशोक सम्राट के सुपुत्र ने अनुभव किया कि इन सब को प्रशिक्षित करने के लिए किसी उत्तम मार्ग दर्शक की आवश्यकता है| ऐसी शिक्षिका जो धर्म का गूढ़ ज्ञान रखती हो, प्रचार में रूचि हो तथा स्त्रियों में अच्छे प्रकार से तथागत का प्रचार कर सके| जब उसने इस हेतू नजर दौड़ाई तो उसे अपनी बहिन संघमित्रा, जो इस समय बौद्ध भिक्षुक बनकर आयुपाली के नाम से धर्म प्रचार के कार्यों में जुटी हुई थी, ही दिखाई दी| अत; उसने तत्काल अपने पिता सम्राट अशोक को पत्र लिख कर उसकी सहायता के लिए आयुपाली को सिंहल द्वीप में भेजने का अनुरोध किया| पत्र मिलते ही अशोक ने अपनी बेटी को सिंहल द्वीप जाने के लिए कहा| यह बेटी, जो अब तक एक वैरागिनी बन चुकी थी और तथागत् अर्थात् बुद्ध मत की शिक्षाओं को ग्रहण करते हुए, उन शिक्षाओं का निरंतर प्रचार तथा प्रसार भी कर रही थी| उसने तत्काल जाने की तैयारी की और फिर सिंहल द्वीप के लिए प्रस्थान किया|
संघमित्रा को धर्म के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न देता था, इस कारण वह धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की इच्छा भी नहीं रखती थी| अत: सिंघल द्वीप में पहुँचने पर उसे अत्यधिक आनंद की अनुभूति हुई| भारत का ही नहीं यदि विश्व इतिहास का भी अवलोकन किया जावे तो हम पाते हैं कि यह प्रथम अवसर था, जब एक महान् सम्राट की अत्यंत सुन्दर कन्या ने भिक्षुक के रूप में दीक्षा ली हो और धर्म का अनुष्ठान करते हुए किसी अन्य देश में जीवन की पूर्णता को पाते हुए उस अन्य देश की नारियों को अज्ञान रूपी अन्धकार से मुक्त करने के लिए अपने ही देश को त्याग दिया हो| इस प्रकार अपने देश की एसी धार्मिक वृत्ति वाली त्यागी बेटी के विषय में सोच कर उस के अपने देश वासियों के मनों पर क्या विचार आया होगा, इसका तो अनुमान लगाया भी अति कठिन है?
राजकुमारी संघमित्रा संन्यासी रूप में, एक भिक्षुक रूप में आयुपाली के नाम से जब सिंहल द्वीप पहुंची तो उसकी सुन्दर रूप भंगिमा, तेज से भरी हुई मुख मुद्रा, तपस्विनी का वेष तथा उसकी धर्म के ऊपर अटल विश्वास की भावना को देखकर वहाँ के नारी और पुरुष मन्त्र मुग्ध से हो गए| सिंहल द्वीप जाकर संघमित्रा ने एक भिक्षुक संघ स्थापित किया ताकि इस संघ में सब भिक्षु महिलायें एक साथ रहते हुए धर्म के मर्म को समझ सकें| अब उसने अपने भाई को साथ लेकर वहाँ के प्राय: प्रत्येक घर में धर्म की अलख जगा दी| इस प्रकार धर्म से पूरे सिंघल द्वीप के सब परिवारों को जो प्रकाशित किया, वह प्रकाश आज लगभाग अढाई हजार वर्ष बीतने तक भी ज्यों का त्यों प्रकाशित होते हुए जन जन का मार्ग दर्शक बना हुआ है|
बौद्ध मत के ग्रन्थ महावंश में संघमित्रा का वर्णन बड़े विस्तार से दिया गया है| इस में संघमित्रा के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा गया है “ संघमित्रा ने पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था| सिंघल में रहते समय धर्म की उन्नति के लिए उसने बहुतेरे पुण्य कार्य किये थे| सिंघल के राजा ने बड़े ही आदर सत्कार तथा ठाट बाट से उसकी अंत्येष्टि की थी|” इन पंक्तियों को पढ़कर यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि अपने मत का प्रचार करते हुए संघमित्रा ने वहां पर ही अपने शरीर का त्याग कर दिया था|
इस सब से एक बात जो प्रकट होती है, वह यह कि हमारे इस अत्यंत पवित्र भारत देश में इस प्रकार की अनगिनत नारियां मिलती हैं जो एक से एक आगे बढ़कर देश, जाति, धर्म आदि के लिए कार्य करती हुईं अपने जीवन को सम्पूर्ण कर गईं किन्तु संघमित्रा की प्रतिस्पर्धा में सब निम्न ही दिखाई देती हैं क्योंकि संघमित्रा एक सम्राट् की राजकुमारी थी| एक इस प्रकार के राजा की कन्या थी, जिसे इतिहास में एक महान् शासक के रूप में सम्मान दिया गया| जब हम संघमित्रा के त्याग और बलिदान को देखते हैं तो हम पाते हैं कि वह अपने पिता सम्राट अशोक से भी कहीं आगे ही थी| अत: इस त्यागमयी राजकुमारी संघमित्रा के बलिदान और त्याग को स्मरण करते हुए सर स्वयमेव ही झुक जाता है |
डा. अशोक आर्य
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