भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रचार-प्रसार मानवता का प्रचार-प्रसार था। मेधा के उपासक रहे हमारे पूर्वजों ने विदेशों को भी मेधा का उपासक बनाकर सुशिक्षित और सुसंस्कारित विश्व समाज के बनाने में सहयोग दिया। जीतकर भी विनम्र और मर्यादित रहना भारत की ही परंपरा है, अन्यथा तो लोग जीत में आपा खो देते हैं, पराजित पक्ष के लोगों के लिए ‘कत्लेआम’ की घोषणा कर देते हैं, महिलाओं, बच्चों तथा वृद्घों तक को अपने अत्याचारों से आतंकित कर डालते हैं।
विशिष्ट सांस्कृतिक मूल्य
हमारे यहां तो पराजित रावण से भी राजनीति का पाठ सीखने के लिए श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण को भेजते हैं, रावण मृत्यु की अंतिम घड़ियां गिन रहा है। लक्ष्मण उसके पास जाकर खड़े हो जाते हैं, प्रणाम करते हैं, परंतु कोई उत्तर नही मिलता। तब, निराश होकर लक्ष्मण भाई राम के पास लौट आते हैं। जब श्रीराम को लक्ष्मण ये बताते हैं कि रावण ने कोई भी उत्तर नही दिया, वह शांत रहा। तब श्रीराम भाई लक्ष्मण से कहते हैं-‘लक्ष्मण! नि:संदेह तुम रावण के सिर की ओर खड़े होकर उससे कुछ सीखना चाहते होंगे। जो उचित नही है। पुन: प्रस्थान करो और रावण के पैरों की ओर खड़े होकर विनम्रता से राजनीति का पाठ सीखकर आओ’।
लक्ष्मण पुन: रावण के पास जाते हैं। भाई द्वारा बतायी गयी मर्यादा के अनुसार रावण के पैरों की ओर खड़े होकर उससे राजनीति का पाठ सिखाने का अनुरोध करते हैं, तो रावण ने लक्ष्मण का मनोरथ पूर्ण करने हेतु उसे राजनीति का पाठ पढ़ाया।
ज्ञान शत्रु से भी ले लो
इस दृष्टांत से हमें यही शिक्षा मिलती है कि ज्ञान तो यदि शत्रु से भी मिले तो ले लेना चाहिए। दूसरे, हमारी लड़ाई युद्घ के मैदान में होती है, अत: वहीं हमारी शत्रुता स्थापित रहती है। पराजय स्वीकार होते ही या किसी योद्घा के मैदान में गिरते ही शत्रुता समाप्त हो जाती है, पराजित के प्रति विजेता भी सम्मान और मानवता से भर जाता है। भारत के इस सांस्कृतिक मूल्य को समझा नही गया है, यह बहुत बड़ी बात है। इस सांस्कृतिक मूल्य से जहां शत्रुता का पराभव होता है, (शत्रु की पराजय के साथ ही शत्रुता का पराभव) वहीं शत्रु की वीरोचित मृत्यु के उपरांत उसके प्रति विजेता का सम्मान भाव से भर जाना, मरने वाले की वीरता और उत्कृष्ट जीवन का सम्मान करना होता है। भारत के गांवों में लोग आज भी मृतक शत्रु को भी कंधा देना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह कर्त्तव्यभावना इसी महान परंपरा का प्रतीक है। ईसाइयत और इस्लाम में युद्घों के समय कहीं भी और कभी भी भारत के इस सांस्कृतिक मूल्य का निर्वाह या पालन नही किया गया है। जबकि भारत के हर युद्घ में इस मूल्य का पालन हुआ। महाभारत में पराजित भीष्म पितामह से भी राजनीति का उपदेश पांडवों ने लिया और युद्घ के उपरांत सभी पराजित शत्रु योद्घाओं का भी उनके पद और प्रतिष्ठा के अनुसार स्वयं युधिष्ठर ने अंतिम संस्कार कराया।
‘सम्राट और परिव्राट’ बने धर्म ध्वजवाहक
हमारे ‘सम्राट और परिव्राट’ विदेशों में भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की धर्म ध्वजा को लेकर गये। संपूर्ण संसार को मेधा का उपासक बनने का पाठ पढ़ाया। डा. रामशंकर भट्टाचार्य अपनी पुस्तक ‘भारत विश्व संस्कृतियों की जननी’ के पृष्ठ 26 पर लिखते हैं-‘(आर्यों के) मूलत: एक ही जाति के होने के कारण विद्या के क्षेत्र में उनका प्रामाण्य अस्वीकार नही किया जा सकता’।
मनु के संविधान की अप्रतिम धारा
आर्यों ने विश्व के अन्य स्थलों पर जाकर कभी अपनी मान्यताओं को उन पर थोपा नही। कारण केवल एक ही था कि भारतीय लोग सत्य ज्ञान मेधा के उपासक रहे हैं। यदि अच्छी बात शत्रु के पास भी है तो उसकी अच्छी बात और अपनी अच्छी बात को मिलाकर एक पूर्णत: अच्छी बात को स्थापित करना हमारा लक्ष्य रहा। नैतिकता, न्याय और विजेता का धर्म पराजित योद्घा के प्रति ऐसी ही व्यवस्था करते हैं।
मनुस्मृति (2-239) में आया है कि ‘अमृत यदि विष के साथ मिला हो तथापि विष को त्यागकर अमृत को ग्रहण कर लेना चाहिए। सुवर्ण यदि अपवित्र स्थान पर भी पड़ा हो तो उसे वहां से उठा लेना चाहिए। शत्रु से भी यदि अच्छे आचरण की शिक्षा मिले तो ले लेनी चाहिए’।
मनुस्मृति का यह आदेश आदि संविधान निर्माता मनु के संविधान की एक धारा है। इसलिए प्राचीन काल में हमारे लिए मनु की यह व्यवस्था एक संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्य के रूप में मार्गदर्शक रही। इसे लोकतांत्रिक मूल्य इसलिए कहा जाएगा कि पराजित के प्रति सहिष्णु रहकर उसके गुणों का सम्मान करना हर किसी के वश की बात नही। हमारे इस मूल्य को भी शेष विश्व आज तक नही समझ सका है। इसीलिए आदि शंकराचार्य ने सन 800 के लगभग भी बड़े गर्व के साथ यह घोषणा की थी-‘कोई भी तत्वदर्शी मनुष्य मेरा सच्चा गुरू है, चाहे वह द्विज हो या चाण्डाल।’
महर्षि दयानंद जी महाराज ने 4 जून 1882 को ‘बंबई की एस्प्लेनेड थियेटर’ में दिये गये अपने भाषण में कहा था-‘संसार के लोगों की भाषाओं के ग्रंथों में यदि उत्तम ज्ञान मिले तो उसे भी प्राप्त करना चाहिए। उनकी भाषाएं भी सीखनी पड़ें तो अवश्य सीखनी चाहिएं। उनमें से जहां भी सत्य प्राप्त हो उसे ग्रहण करना चाहिए। इसी का नाम विद्याभ्यास है।’
‘ले और दे’ का सत्यार्थ
इसी नीति को ‘ले और दे’ की नीति कहा जाता है। भारत ने इसी नीति का अनुकरण किया। इस नीति को आज शुद्घ व्यापारिक दृष्टिकोण से देखा जाता है, परंतु इस नीति के व्यापारिक अर्थ नही हैं, अपितु इसके व्यावहारिक और वैज्ञानिक अर्थ हैं। यह हो ही नही सकता कि संसार में आप तो पूर्ण हैं और शेष सभी अपूर्ण हैं। आपकी पूर्णता में भी न्यूनता है और उनकी अपूर्णता में भी कहीं कोई गुण छिपा है। अब ढूंढ़ना आपको है कि आप अपनी पूर्णता और दूसरे की अपूर्णता में सुंदर समन्वय कैसे बैठाते हैं? यह ‘ले और दे’ की नीति इसी समन्वय की ओर संकेत करती है। विश्व और मानव समाज इसी उत्तम समन्वय से ही चलता है, अन्यथा विरोधों और तदजनित क्रोधाग्नि में जलकर यह भस्म हो जाएगा। भारत के इस मूल्य ने ही वृहत्तर भारत और आर्यावर्त के अधीन युगों-युगों तक विश्व को एक झंडे के नीचे रखा। उस ‘वृहत्तर भारत’ के गौरवमयी चिन्ह आज तक भी मिलते हैं, और कई देशों में तो उन गौरवमयी चिन्हों को लोगों ने अपने गौरवमयी अतीत की गौरवमयी झांकी के रूप में सहेजकर आज तक रखा है।
चीन और रामायण
आप अपने किसी मित्र, संबंधी या परिचित के यहां प्रवास पर जाएं, तो जितनी आत्मीयता से आपका प्रवास काल व्यतीत होता है, उतनी ही देर तक प्रवास काल की सुखद स्मृतियां आपके मानस में आत्मीयतापूर्ण गुदगुदी करती रहती हैं। यही बात तब सामने आती है जब कोई समन्वयात्मक दृष्टिकोण की संस्कृति किसी विपरीत संस्कृति के संपर्क में आती है और वहां उच्च मानवीय समाज की संस्थापना करने में सफल हो जाती है।
भारत की समन्वयात्मक संस्कृति ने चीन को गहराई से प्रभावित किया। आर्यों के प्राचीन काव्य ग्रंथ रामायण के ऐतिहासिक पात्रों ने चीन सहित संपूर्ण एशिया और वृहत्तर भारत के देशों के मानस को आज तक आलोकित किया हुआ है। यह अलग बात है कि चीन की रामायण में राम तथा लक्ष्मण को सीता का भाई बताया गया है। इन बातों पर चिंतन न करके इतिहास के इस तथ्य और सत्य पर विचार किया जाना अपेक्षित है कि रामायण ने चीन को कब से प्रभावित किया है और वह भारत के प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कितना निकट है? इसी निकटता के प्रदर्शन के लिए ही कश्मीर की एक पुकार पर अरब वालों के विरूद्घ युद्घ करने के लिए चीनी सेनाएं हिमालय को भी पार करके मित्रता का संदेश लेकर यहां आ गयी थीं। इतिहास को समय की रेत से पाटने की आवश्यकता नही है, अपितु जहां प्रकाश ने आत्महत्या की है, उस स्थल को खोजकर उसे इतिहास का एक पवित्र स्मारक बनाकर स्थापित करने की है।
चीन में राजा दशरथ को बनारस का राजा माना जाता है, और मान्यता है कि उसके 16 हजार रानियां थीं। बड़ी रानी कौशल्या से पंडित राम और लक्ष्मण व एक कन्या थी। रानी कौशल्या की मृत्यु के उपरांत रानी कैकेयी राजा की पटरानी बनी। उसके वीर कार्यों से प्रसन्न होकर राजा दशरथ ने उससे वर मांगने के लिए कहा। तब रानी ने समय आने पर वर मांगने की बात कही। इसी रानी का पुत्र भरत था, जब भरत 7 वर्ष का था तो रानी ने राजा को अपने दिये गये वचन के अनुसार अपने पुत्र भरत को राजगद्दी देने की बात कही। राजा को रानी कैकेयी की यह बात अच्छी नही लगी। उन्हें संदेह हुआ कि रानी कैकेयी हो सकता है कि अन्य राजकुमारों की हत्या न करा दे, इसलिए उन्होंने अन्य राजकुमारों को 12 वर्ष के लिए वन जाने का आदेश दिया। जब राम वन में थे तो उनके वनगमन के 9 वर्ष पश्चात राजा दशरथ का देहांत हो गया। भरत ने यह संदेश राम तक पहुंचाया। राम को राजा की मृत्यु में कुछ संदेह हुआ। राम ने कहा कि भरत यही संदेश तुम स्वयं सीता और लक्ष्मण को भी बताओ। संदेश सुनने के लिए सीता और लक्ष्मण को तालाब में खड़ा किया गया। भरत ने उन्हें पिता की मृत्यु का संदेश तीन बार सुनाया। जिसे सुनकर सीता लक्ष्मण अचेत हो गये। इन दोनों को तालाब से बाहर निकाला गया। उनकी चेतना लौटने पर राम से भरत ने बनारस चलकर राज्यकार्य संभालने का अनुरोध किया। इस अनुरोध को राम ने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया और कह दिया कि वह अपना वनवास काल पूर्ण होने पर ही लौटेंगे। भरत के अनुरोध पर राम ने उन्हें अपनी खड़ाऊं दे दीं। जिन्हें भरत ने राज्य सिंहासन पर रखकर राज्य कार्य का संचालन किया। निश्चित समय पर राम बनारस लौट आए। (डब्ल्यू. एच. जी राउज, कैम्ब्रिज प्रकाशन 1901ई.)।
रामायण की यह कथा निश्चित रूप से दोषपूर्ण है। इस कथा के दोष दूर करने के लिए भारत की सरकारों को अंग्रेजी काल में तो अवकाश मिलना असंभव था पर स्वतंत्रता के पश्चात तो समय मिल ही सकता था। दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंधों के युगों पुराने होने के दृष्टिगत इस काल्पनिक और भ्रमोत्पादक कथा को शुद्घ कराने के लिए विशेष आदान-प्रदान होना अपेक्षित था।
कथा को देने का हमारा प्रयोजन
इस कथा को यहां देने का हमारा विशेष प्रयोजन ये है कि रामचंद्र जी का व्यक्तित्व विश्वव्यापी रहा है। राम के आदर्श चरित्र ने भारत को ही नही अपितु विश्व को भी प्रभावित किया है। संसार के इतिहास में ऐसे बिरले ही महापुरूष हुए हैं जिनकी कथा-कहानियां विश्व के हर देश में किसी न किसी रूप में मिल जाती हैं। उनमें मर्यादा पुरूषोत्तम राम सर्वोपरि हैं, उनके व्यक्तित्व की सुगंध चीन को पार कर अन्य देशों में पहुंची, और वह भी उस काल में जब संचार साधनों का अभाव था। जब हम इस बात पर चिंतन करते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि राम का चरित्र अत्यंत महान था। राम का आदर्श चरित्र चीन के लिए ऐसा था जो अपने आप में ‘सम्राट और परिव्राट’ की भारतीय परंपरा को समाहित किये हुए था। राम सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से भारत की इस परंपरा के एकीभूत सम्पुंजन हैं, जिसने चीन को अपनी आभा से आलोकित किया। इसीलिए चीन बनारस (भारत) की सुरक्षा के लिए महाभारत काल में शल्य के रूप में आया तो इसी उद्देश्य से 713 ई. में भागा चला आया। मानो विश्व संस्कृति के केन्द्र को उजड़ता देखना चीन के लिए असहनीय था, या वह अपनी युगों पुरानी मित्रता को निभाने के लिए इसे आवश्यक मानता था, या भारत के सम्राटों को संतुष्ट रखना वह अपना पुनीत दायित्व मानता था।
‘उलूकवृत्ति’ को त्यागना होगा
हमें अरब के आक्रमणों को महिमामंडित करने की या उनका स्तुतिगान करने की आवश्यकता नही है। अंधेरों का गुणगान करने की ‘उलूकवृत्ति’ राष्ट्र की वीरता और गौरव परंपरा को बांझ और आभाहीन बनाती है। भारत तो प्राचीन काल से कहता आया है कि ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ अर्थात मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। इसलिए ‘उलूकवृत्ति’ भारत का धर्म नही है। इस वृत्ति को विदेशियों ने हम पर लादा है और हम आलस्य के वशीभूत होकर इसी ‘उलूक वृत्ति’ का गुणगान किये जा रहे हैं। निश्चित रूप से इस ‘उलूकवृत्ति’ को त्यागने का अब समय आ गया है। हम प्रकाश के उपासक रहे इसीलिए हमने अपनी स्वतंत्रता की और अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा को पहले दिन से अपना राष्ट्रीय जीवनव्रत घोषित कर दिया। अंधेरों का गुणगान करने की ‘उलूकवृत्ति’ को हमने त्याज्य माना, इसलिए पूरा राष्ट्र स्वतंत्रता के हन्ता विदेशी हमलावरों के विरूद्घ पूर्ण उत्साह के साथ उठ खड़ा हुआ।
जावा में रामायण का प्रभाव
जिस समय के लिए भारत के शत्रु लेखकों ने यह मिथ्या धारणा गढ़ी है कि भारत अपनी स्वाधीनता को खो चुका था, उसी समय (750-850ई.) हम जावा के दक्षिणी भागों में पाये जाने वाले प्रमबनन तथा पूर्वी भाग में पाये जाने वाले पनतरन मंदिर समूहों का निर्माण कर रहे थे और उधर हमारे परिव्राट आर्य राष्ट्र का निर्माण कर रहे थे। इनमें से पनतरन मंदिरों का काल 930-1400 ई का माना जाता है। शुद्घ भारतीय शैली में बने इन मंदिरों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हमारी स्थापत्य कला कितनी उत्कृष्ट थी? जिन लोगों ने भारत में स्थापित किलों, भवनों आदि को मुस्लिम स्थापत्य कला की अनुपम कृति सिद्घ करते हुए यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि भारतीय तो स्थापत्य कला के प्रति कभी गंभीर ही नही रहे वो इन मंदिरों को देख सकते हैं।
जावा के प्रमबनन मंदिरों में सीताहरण, सीता का विमान में रावण के साथ बैठा होना, रावण के साथ जटायु का युद्घ, राम द्वारा राक्षस वध, राम का समुद्र से युद्घ, राम के सम्मुख वानर कुंभकर्ण का निद्रामग्न होना और उससे जागना इत्यादि के बड़े ही मनोहारी चित्र स्थापित किये गये हैं। यहां के राजाओं का इस काल में मातरम् वंश था। यह शोध का विषय है कि इस काल के राजाओं ने अपने वंश का मातरम् नाम अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम दर्शाने के लिए रखा या अपनी मातृभूमि भारत से दूर रहकर भारत की स्मृतियों को बनाये रखने के लिए रखा। कुछ भी हो, इतना तो निश्चित है कि इन मंदिरों को देखकर आप अपने गौरवमयी अतीत में अवश्य खो जाएंगे। आपको यही लगेगा कि जिस समय ये मंदिर बनाये गये उस समय हम पूर्णत: स्वाधीन थे।
कम्बोडिया में रामायण का प्रभाव
कम्बोडिया को भी भारत ने युगों पूर्व से ही प्रभावित किये रखा है। ग्यारहवीं से बारहवीं शताब्दी में यहां हिंदू राजा सूर्यवर्मन द्वितीय ने मंदिरों का निर्माण कराया था। इन मंदिरों में अंकोरवाट का विश्व प्रसिद्घ मंदिर भी है। इस मंदिर में राम रावण युद्घ को बड़े ही मनोरम ढंग से चित्रित किया गया है। युद्घरत रावण के 10 सिर तथा 20 हाथ दिखाये गये हैं। रावण के रथ में जुते घोड़े का मुंह मनुष्य का है और वही घोड़ा उसके रथ को खींच रहा है। राम रावण का बड़ा ही रोमांचकारी चित्रण यहां किया गया है। वहीं हनुमान रावण के घोड़े से जूझ रहे हैं, राम निरंतर अपने बाणों की वर्षा रावण पर कर रहे हैं। एक चित्र में हनुमान रावण को रथ के नीचे फेंक देते हैं। इसी प्रकार के अन्य चित्रण से राम-रावण युद्घ को यहां बड़ी ही सजीवता से चित्रित किया गया है।
इस प्रकार कंबोडिया में रामायण का बहुत ही अधिक प्रभाव दिखायी देता है। अंकोरवाट का मंदिर हमारे स्वर्णिम अतीत का एक स्मारक है, जिसे हम भारतीयों को अपने लिए एक तीर्थ की मान्यता प्रदान करनी चाहिए। भारत सरकार को इस देश से अपने सांस्कृतिक संबंधों को अंकोरवाट के निर्माण की भावना को सम्मानित करते हुए निर्धारित करना चाहिए तथा अपने सांस्कृतिक संबंधों की समीक्षा करनी चाहिए। वृहत्तर भारत में भारतीयों की निर्माण कला को देखकर प्रभावित हुए फेडरिक लुई ने लिखा है-‘जब यूरोप सभ्यता से बहुत दूर था, उस समय के जो अवशेष एशियाई देशों में प्राप्त होते हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि भारत के निवासियों ने सभ्यता के निर्माण का ठोस आधार प्राप्त कर लिया था।’
जिस ब्रिटेन ने हमें पढ़ाने और समझाने की डींगें ये कहकर मारी हैं कि हमसे पहले भारत असभ्यों का देश था, उस ब्रिटेन का 750-850 ई में अस्तित्व ही नही था। उस समय इंग्लैंड था और इंग्लैंड में पूर्णत: जंगली लोग रहते थे। ये भूखे नंगे लोग थे और सभ्यता व संस्कृति का इन्हें कोई ज्ञान नही था।
राजा का दैवीय सिद्घांत भारतीय
राजा को पश्चिमी देशों ने दैवीय माना है। कालांतर में एक राजा के इस दैवीय स्वरूप के विरूद्घ क्रांतियों ने जन्म लिया। मांटेस्क्यू नाम के विद्वान ने शक्ति पृथक्करण का सिद्घांत प्रतिपादित किया और राजा के दैवीय स्वरूप को चुनौती दी। यद्यपि राजा के दैवीय स्वरूप की धारणा शुद्घ भारतीय थी। भारत के प्राचीन आर्य लोग शिक्षा और विद्याभ्यासी होते थे। उन्होंने राजा को भगवान इसलिए कहा था कि राजा जैसे ईश्वर किसी भी जीवधारी को उसके कर्मों का सम्यक परिणाम या फल देता है उसी प्रकार राजा भी प्राकृतिक न्याय के अनुकूल आचरण करते हुए लोगों के मध्य न्याय पूर्ण शासन करेगा और वैश्विक समाज में शांति व्यवस्था बनाये रखेगा। वैदिक शिक्षित समाज में भारत की यह शासन परंपरा युग युगों तक स्थापित रही। परंतु जब भारत के आर्य लोग विश्व के अन्य भागों में फेेले तो राजकीय परंपरा तो उन क्षेत्रों में भारतीय शासन परंपरा के अनुसार स्थापित कर ली गयी, परंतु शिक्षा प्रणाली विश्व के अन्य भागों में वैसी ही सुदृढ़ रूप में स्थापित नही हो पायी जैसी भारत में आर्यों ने की हुई थी। इस स्थिति का परिणाम ये हुआ कि जैसे शिक्षा का अधिकार शूद्रों व नारियों से छीन लेने पर जैसी स्थिति उनकी भारत में हो गयी थी वैसी ही विश्व के अन्य क्षेत्रों के लोगों की वहां हो गयी।
फलत: राजा अपने राजधर्म से च्युत हो गया, यूरोप के सारे राजा निरंकुश और स्वेच्छाचारी हो उठे। क्योंकि राजा को उसका राजधर्म बताने वाले लोगों का अभाव हो गया, शिक्षित पंडित विद्वान लोग ही तो राजा को प्राकृतिक न्याय के अनुरूप शासन व्यवस्था चलाना सिखता है। जब ऐसे पंडित ही नही होंगे तो राजा का निरंकुश हो जाना स्वाभाविक है। राजा की इस निरंकुश अवस्था ने यूरोप को अंधकार के युग में धकेल दिया। जिसने आगे चलकर रक्तिम् क्रांतियों को जन्म दिया।
विश्व ने इस बात को आज तक नही समझा है कि ये रक्तिम क्रांतियां भारत के बाहर ही राजवंशों के विरूद्घ क्यों हुईं और भारत में क्यों नही हुईं? इसके लिए हमें समझाया जाता है कि भारत की जनता प्राचीन काल से ही अत्याचारों को मौन रहकर सहने की अभ्यासी रही है, जबकि यूरोप की जनता ने राजाओं के इस प्रकार के अत्याचारों को सहन नही किया और वह विद्रोह पर उतर आयी। जिसका परिणाम ये हुआ कि विश्व से राजा के दैवीय स्वरूप का सिद्घांत समाप्त हो गया।
यह धारणा भ्रामक है
यह धारणा भ्रामक है। भारत के राजा दैवीय सिद्घांत के अनुसार शासन चलाने के अभ्यासी रहे हैं। स्वतंत्रता पूर्व तक के राजाओं में विलासिता, अकर्मण्यता और आलस्य तो था पर अपनी प्रजा के साथ अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न का लेशमात्र भी उनके शासन में नही था। क्योंकि भारत में राज्योत्पत्ति हुई ही इसलिए थी कि अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न को क्षत्रिय समाज ना होने दे। ईश्वरीय व्यवस्था में कहीं पर भी अन्याय, अत्याचार या उत्पीड़न नही होता है इसलिए राजा भी इन दानवी वृत्तियों पर निरंकुश लगाने के लिए कार्य करता था। इस प्रकार उसके शासन का उद्देश्य मानव की निजता और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना होता था। जबकि पश्चिम में शासन ने लोगों को प्रारंभ से ही अपना दास माना। अत: अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न उनकी शासन व्यवस्था का मूलाधार था। अब बतायें विद्रोह उनके विरूद्घ नही होगा तो किसके विरूद्घ होगा? भारत स्वतंत्रता के प्रकाश का उपासक रहा है, इसलिए यहां विद्रोह राजाओं के विरूद्घ ना होकर उन विदेशियों के विरूद्घ हुए हैं जिन्होंने विदेशी, दासत्व की विचार धारा को यहां लाकर इस स्वतंत्रता प्रेमी देश पर लादने का प्रयास किया। यह कितनी विडंबना है कि जिन लोगों ने हमें दासत्व का बोध कराया हम उन्हें स्वतंत्रता के उपासक मानने लगे तथा अपने स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों के बलिदान और उनके जीवन मूल्यों को विस्मृत कर बैठे। षडयंत्रों का भण्डाफोड़ करने का क्या अब समय नही आ गया है?
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत