हुमायूँ को भी मिली चुनौती
बाबर के पश्चात उसका उत्तराधिकारी हुमायूँ बना था। हुमायूँ के शासनकाल में चित्तौड़ पर गुजरात के शासक बहादुर शाह के आक्रमण की प्रसिद्ध घटना का उल्लेख हमें इतिहास में मिलता है । उस युद्ध में रानी कर्णावती ने हुमायूँ के लिए कथित रूप से राखी भेजी थी । जब तक हुमायूँ रानी कर्णावती के पास पहुँचा तब तक रानी कर्णावती अपनी 13 हजार सहेलियों के साथ वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी अर्थात उसने जौहर कर लिया था । इसके अतिरिक्त उस विदेशी धर्मी बहादुर शाह के साथ युद्ध करते हुए हमारे 32 हजार हिन्दू वीर योद्धा भी बलिदान हो गए थे। इस प्रकार इस युद्ध में कुल 45 हजार योद्धाओं ने अपना बलिदान दिया था । बहादुर शाह के हाथों चित्तौड़ की पराजय का उल्लेख तो इतिहास में किया जाता है , लेकिन मातृभूमि और अपनी स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाले 45 हजार वीर वीरांगनाओं के बलिदान का उल्लेख क्यों नहीं किया जाता ? क्या यह इतिहास नहीं है ? यदि यह कहा जाए कि इतिहास विजेता का ही होता है तो फिर जलियांवाला बाग हत्याकांड के शहीदों को भी क्यों याद किया जाए ?
पन्ना धाय गूजरी ने दिया पुत्र का बलिदान
बाबर के पश्चात मेवाड़ और माँ भारती की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए राजधात्री पन्ना गूजरी ने अपने हृदय के टुकड़े चन्दन का बलिदान दिया था । उस बलिदान ने हमें भारत की ‘दाधीच परम्परा’ का स्मरण कराया। जिसमें देशहित ,समाजहित और मानवता के कल्याण हेतु मनुष्य अपना निहित स्वार्थ त्याग देता है । राजधात्री पन्ना गूजरी के उस इतिहास को यह देश भुला नहीं सकता है। पन्नाधाय के लिए दामोदर लाल गर्ग ने अपनी पुस्तक ‘राजधात्री पन्ना गूजरी’ के प्रारम्भ में ही लिखा है :-“गुर्जर जाति के विषय में हम यहां इसलिए विचार कर रहे हैं क्योंकि हमारे इस ग्रंथ की नायिका निर्माता पन्नाधाय इसी गुर्जर वंश में उत्पन्न हुई थी । गूजर अथवा गुर्जर शब्द किसी जाति विशेष अथवा किसी भूभाग का द्योतक नहीं , बल्कि तत्कालीन श्रेष्ठता अर्थात वीरता तथा स्वामीभक्ति के आधार पर ही इन लोगों को गुरजन , गुजरान जैसे शब्दों से सम्बोधित किया गया था जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर गूजर अथवा गुर्जर के रूप में स्थापित हो गए।”
रणथम्भौर के किले में राणा संग्रामसिंह ने स्वयं अपने पुत्र उदय सिंह को धायमाता पन्ना को सौंपा था । उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि पन्ना गूजरी प्रत्येक परिस्थिति में उनके पुत्र की रक्षा करेगी ।जब रानी कर्मवती ने बहादुर शाह के आक्रमण के समय जौहर किया तो उसने भी महाराणा संग्राम सिंह की उपरोक्त आज्ञा का पालन करते हुए धाय माता पन्ना गूजरी को ही अपना पुत्र सौंपना उचित समझा था । पन्ना गूजरी ने भी अपना कर्तव्य निभाते हुए उचित समय आने पर अपने पुत्र का बलिदान देकर उदय सिंह को बचाने का सराहनीय कार्य किया था । उसके इस महान कार्य के समक्ष इतिहास स्वयं नतमस्तक हो जाता है।
बाद में जब उदय सिंह मेवाड़ का शासक बना तो उसने भी पन्ना गूजरी के किए गए त्याग का उचित पुरस्कार देते हुए अपने शासन काल में माँ पन्नाधाय को माता जैसा ही सम्मान दिया था।
हिन्दुओं की वीरता को देखकर जब रोने लगी थी मुस्लिम सेना
हमने पूर्व में सलार मसूद के आक्रमण का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया था कि उस समय हमारे 17 हिन्दू राजाओं ने मिलकर एक राष्ट्रीय सेना का संगठन किया था और उस विदेशी आक्रमणकारी को राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में मिलकर परास्त किया था । उसकी विशाल सेना को हमारे हिन्दू वीर योद्धाओं ने गाजर मूली की भांति काट कर फेंक दिया था । इतिहासकार चिश्ती ने हमारे हिन्दू वीर योद्धाओं की वीरता से घबराए हुए मुस्लिम सैनिकों के बारे में लिखा है : – “मौत का सामना है । फिराक सूरी नजदीक है । हुनूदों( हिन्दुओं ) ने जमाव किया है । इनका लश्कर बेइंतिहा है। सुदूर नेपाल से पहाड़ों के नीचे घाघरा तक फौज मुखालिफ का पड़ाव है । यह कहकर वह बिलख बिलख कर रो पड़ा । या खुदा रहम कर जान बख्शी दे ।”
चिश्ती ने आगे लिखा है :-” इस समय कौन रहम दिल इंसान हो सकता था जो ऐसी स्थिति में सलार मसूद का साथ छोड़ता । रजब मास की 14 वीं तारीख (14 जून 1033 ) के दिन मसूद सहित उसकी सम्पूर्ण सेना का हिन्दुओं द्वारा सर्वनाश कर दिया गया। कोई पानी देने वाला भी ना रहा।”
हिन्दुओं ने इस युद्ध में मुसलमानों को कितनी बड़ी क्षति पहुंचाई थी ? – इसके बारे में शेख अब्दुर्रहमान चिश्ती का यह कथन पर्याप्त प्रकाश डालता है :- “इस्लाम के नाम पर जो अंधड़ अयोध्या , बहराइच तक जा पहुंचा था, वह सब नष्ट हो गया ।इस युद्ध में अरब ईरान के हर घर का चिराग बुझ गया । यही कारण है कि 200 वर्षों तक से अधिक समय तक यहां बुतपरस्ती जारी रही । हुनूद की अमलदारी रही।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत