(प्रात:काल उठकर मैं नित्य प्रति की भांति अध्ययन कर रहा था तो मैंने वैदिक विद्वान पं. रघुनंदन शर्मा की पुस्तक ‘वैदिक संपत्ति’ को पढ़ना आरंभ किया। इस पुस्तक के संस्करण की भूमिका 13 सितंबर 1931 को लिखी गयी थी। यह महज संयोग ही है कि 13 सितंबर ही पूज्य पिता महाशय राजेन्द्र आर्य जी की पुण्यतिथि है। इतिहास संबंधी पिताजी का ज्ञान वैदिक संपत्ति से प्रभावित रहा। इसलिए इस पुस्तक के अध्ययन से कुछ यादें मीठे अहसास के साथ सामने आ खड़ी हुईं, तब मैंने इतिहास के ‘महासत्य’ को पाठकों के सामने यथावत प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। बस उसी सोच का परिणाम है-ये लेखमाला।
– देवेन्द्र सिंह आर्य:
चेयरमैन-उगता भारत)
ऊं विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यदभद्रं तन्न आ सुव।।
(यजु 30, 3)
चार वाद
इस समय संसार के प्रत्येक विभाग में नाना प्रकार की धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्रांतियां हो रही हैं और नाना प्रकार के सिद्घांत कायम हो रहे हैं। कहीं नेशनलिजम, कहीं सोशयलिजम, कहीं अनारकिजम और कहीं कॉम्यूनिजम सुनाई पड़ता है, परंतु किसी भी सिद्घांत से मनुष्यो को संतोष नही है। मनुष्यों ने अब तक मनुष्य समाज को सुखी बनाने के लिए जितने सिद्घांत स्थिर किये हैं, गिनने में उनकी संख्या चाहे जितनी हो पर वे सब चार विभागों के ही अंतर्गत आ जाते हैं। ये चारों विभाग अशिक्षावाद, भौतिकवाद, साम्यवाद और नेचरवाद के नाम से कहे जा सकते हैं। अशिक्षावाद से हमारा तात्पर्य संसार के समस्त असभ्यों की रहन सहन से है, जो प्राय: जंगलियों में पाई जाती हैं और जिसमें किसी प्रकार का उन्नत ज्ञान नही ज्ञात होता। भौतिकवाद से हमारा तात्पर्य वर्तमान योरेप और अमेरिका की उन्नति से है, जिसमें सब काम भौतिक विज्ञान के ही अनुसार होते हैं। साम्यवाद से हमारा तात्पर्य वर्तमान रूस के बोल्शेविक सिद्घांतों से है, जिनके अनुसार सबको एक समान साम्पत्तिक सुख पहुंचाने का प्रयत्न हो रहा है और नेचरवाद से हमारा तात्पर्य योरप के उन सिद्घांतों से है जिनके अनुसार वहां के विचारवान कुदरती जीवन बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
बस, यही चारों प्रधान विभाग हैं जिनकी कि अनेक शाखाएं प्रशाखाएं संसार में दिखलाई पड़ती हैं। इन विभागों की ऐसी बनावट है कि यदि इनको एक दूसरे का परिणाम कहें तो अत्यधिक न होगी। क्योंकि हम देखते हैं कि जितनी असभ्य जातियां हैं यद्यपि सब खाती पीती हैं, सोती जागती हैं, ब्याह शादी करती हैं, लड़के बच्चे पैदा करती हैं गाती बजाती हैं, और पूर्ण आयु जीती हैं अर्थात अपनी एक पूर्ण सभ्यता रखती हैं जिसके अनुसार अपनी समस्त आवश्यक जीवनयात्राओं को अच्छी तरह संपन्न करती हैं पर वे अपनी इस सभ्यता की रक्षा नही करना चाहती। यदि उनको दौलत मिल जाए तो वे तुरंत ही अपनी सभ्यता को छोड़ दें और धीरे धीरे भौतिक उन्नति की ओर अग्रसर होती हुई भौतिकवाद में बिला जाएं। इस बात का नमूना हम संसार में देख रहे हैं।
हम देख रहे हैं कि देखते देखते योरप की अनेक जातियां असभ्य और जंगली सभ्यता से निकल निकल कर योरप के वर्तमान भौतिकवाद मं विली हो गयी। इसी तरह जापान, मिश्र, तुर्किस्तान और चीन आदि की अर्धशिक्षित और अर्धसभ्य जातियां भी उसी भौतिकवाद में समाती जाती हैं। किंतु जब भौतिकवाद की ओर देखते हैं तो पता चलता है कि भौतिकवाद भी अपनी वर्तमान स्थिति से स्वयं संतुष्ट नही है। क्योंकि भौतिकवाद में भी जंगली प्रवृत्ति ही काम कर रही है। जिस प्रकार जंगली अवस्था में मौका पाकर एक जंगली दूसरे जंगलीसे अधिक सुखी होने में कुछ भी विचार नही करता, प्रत्युत साथवालों को छोड़कर तुरंत ही अधिक सुख का भोग करने लगता है उसी तरह भौतिकवादी भ्ी अपने स्वार्थ के सामने दूसरे के दुखों की परवाह नही करता। यही कारण है कि जिस प्रकार असभ्य और अर्धसभ्य जातियां भौतिकवाद में समाती जाती हैं, उसी तरह असमानता और अशांति से तंग आकर भौतिकवाद भी साम्यवाद गैर नेचरवाद में परिणत होता जाता है। भौतिकवादियों के इन दो मार्गों के अवलंबन करने का कारण यह है कि उनमें व तक सबको एक समान उच्च शिक्षा नही मिली। उनमें अब तक शिक्षित और अर्धशिक्षित दो प्रकार के लोग हैं। इसीलिए अर्धशिक्षित लोग भौतिक साम्यवाद को और उच्चशिक्षित लोग नेचरवाद को पसंद करते हैं।
अर्धशिक्षित यह तो मानते हैं कि असमानता अच्छी नही है, पर भौतिकवाद में जो विलास का जहर है उसके लगने की योग्यता अभी उनमें नही आई। वे अब तक सबको एक समान ही विलाससामग्री पहुंचाना चाहते हैं। समझते हैकि यदि सबको भौतिक विलास और भौतिक आमोद प्रमोद पहुंचा दिया जाए तो सब लोग सुखी हो जाएं। उनके ध्यान में यह बात अभी नही आती, कि एक तो संसार में इतना विलास का बढ़ने वाला समान ही नही है जो सब मनुष्यों को समानताा से दिया जा सके। दूसरे विलास से मनुष्य को कभी संतोष नही होता और अंत में उसका मन पतित हो जाता है और वह कामी बनकर फिर उसी पशुवत दशा में चला जाता है, जहां से निकलकर वह आतिकवाद होता हुआ साम्यवाद तक पहुंचा है। परंतु योरप के उच्च शिक्षितों की बात और है। वे इस भौतिक साम्यवाद दुर्गुणों को जानते हैं। वे जानते हैं कि भौतिक विलास और श्रंगार की मात्रा चाहे जितनी कम हो, उसमें यह असर के वह नशे की तरह धीरे धीरे बढ़ जाता है और अंत में मनुष्य का नाश कर देता है। इसीलिए उन्होंने बड़े जोर से लोगों को पुकारा है कि लौटो लौटो नेचर की ओर लौटो।
बुराईयों की जड़ : इस कारण कार्य माला से ज्ञात होता है कि नेचरवादियों के सिद्घांत भी भौतिकवाद के ही परिणाम हैं। तू जिस प्रकार अशिक्षावाद का परिणाम भौतिकवाद है उसी प्रकार भौतिकवाद का परिणाम साम्यवाद और साम्यवाद परिणाम नेचरवाद है। नेचरवादियों का ख्याल है कि समस्त बुराईयों की जड़े भौतिकवाद अर्थात विज्ञानवाद ही है नेचरवाद में बौद्घिक विचारों को स्थान नही दिया जाता। नेचरवादियों का विश्वास है कि मनुष्य को उसके विचारों ने ही पतित किया है। वे कहते हैं कि मनुष्य जब अपनी स्वाभाविक स्थिति में था उस समय उसमें इस का विचारस्वातंत्रय न था वह एक प्रकार का पशु था और पशुओं की भांति उसे भी नेचर की ओर से प्रेरणाएं थीं और तदनुसार व्यवहार करने से ही वह हर प्रकार से सुखी थ। इसलिए यदि सच्चे सुख की अभिलाषा हो बौद्घिक विचारों को छोड़कर सबाके फिर नेचर के ही आधी हो जाना चाहिए। यद्यपि सुनने में बात बड़े मार्के की होती है पर इसकी खूबी तभी तक है जब तक इसका व्यवहार पढ़े लिखे लोग कर रहे हैं। ज्यों ही लोगों ने लिखना छोड़कर नेचर की ओर बढ़ना आरंभ किया और एक सौ वर्ष व्यतीत किये त्यों ही उनकी यह सभ्यता संतति के हाथ से निकल जाएगी और वे फिर उसी तरह के घोर जंगली और असभ्य बन जाएंगे जिस प्रकार वे नेचरवाद के पहिले और भौतिकवाद के भी पहिले थे।
इस प्रकार से यह चक्कर घूमकर नही पहुंचेगा जहां से चला है। ऐसी दशा में हम कह सकते हैं कि लोगों की स्कीमें और अनेकों विधियां जो मनुष्य जाति को सुखी बनाने के लिए योरप में निकाली गयी है सब उपर्युक्त चार भागों में समा जाती है और जिस प्रकार बाईचांस इत्तिफाकिया कारणकार्यभाव से उत्पन्न हुई है उसी तरह एक का परिणाम होने से अंत में अपने कारण में जगल दशा में समा जाएंगी। इसका कारण यही है कि ये सब मनुष्यों ने आवश्यकता उत्पन्न् होने पर अपने स्वार्थ के लिए स्थिर की है, सृष्टि की वास्तविक रचना और उसके उपयोग पर ध्यान देकर न हीं।
परमेश्वर और वेद
सृष्टि की वास्तविक रचना और उसके उपयोग करने की वास्तविक विधियों का ठीक ठीक पता लगाना मनुष्य बाहर है। उसका सच्चा ज्ञाता तो परमेश्वर ही है। वही आदि में मनुष्यों को सब भेद और विधियां बतलाता है। उसके बतलाए हुए रहस्यों और विधियों का ही संग्रह वेदों में है इसलिए अब तक मनुष्य अपना धर्म समाज और राष्ट्र वैदिक विधिा के अनुसार निर्माण न करे तब तक वह स्थायी रूप से सुखी नही रह सकता।
वैदिक विधि-त्यागवाद
यह वैदिक विधि जो आर्य सभ्यता में ओतप्रोत है एक पांचवी विधि है जिसका नाम त्यागवाद है। हमने इस विधि को इस समय इसलिए उपस्थित करना उचित समझा है क्योंकि भारतवर्ष अब निश्चय ही अपना राष्ट्र निर्माण करने के लिए उद्यत है। उसके राष्ट्र निर्माण का एक विलक्षण प्रभाव संसार भर पर पड़ने वाला है क्योंकि भारतवर्ष संसार की समस्त जनसंख्या का पांचवां भाग है और अपनी प्राचीनता में समस्त संसार का पितामह है।
उसकी सभ्यता उसका दर्शन और उसका धर्म आज भी संसार में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। आज भी उससे संसार के सभी लेाग आर्थिक लाभ उठाा रहे हैं। ऐसी दशा में संसार की समस्त जातियां उत्सुकता से सुनना चाहती हैं कि भारतवर्ष अपनी कौन सी नीति स्थिर करता है। अत: हमने समस्त संसार के उन लोगों के सामने जो नाना प्रकार की स्कीमें सोचा करते हैं और भारतवर्ष के उन लोगों के सामने जो भारत के लिए भी कोई विधि निमित्त करना चाहते हैं इस त्यागवाद की विधि को उपस्थित करने का साहस किया है। हमारा विश्वास है कि इस वैदिक त्यागवाद की विधि से ही भारतवर्ष और संसार का कल्याण हो सकता है, अन्य विवादग्रस्त वादों और विधियों से नही। क्योंकि संसार में सब प्रकार की विधियों की परीक्षा हो चुकी है और सब प्रकार की विधियां फेेल हो चुकी हैं इसलिए अब सिवाय इस भारतीय त्यागवाद के और कोई दूसरी विधि नही प्रतीत होती जो कि मनुष्य पशु पक्षी कीट पतंग और तृण पल्लवको एक समान लाभदायक होकर लोक परलोक के बच्चे सुखों को प्राप्त कराने वाली हो सके। यही कारण है कि हमने इस पुस्तक में आर्य सभ्यता के त्यागवाद का विस्तृत वर्णन किया है।
नेचर-वाद
हमने इस पुस्तक के उपक्रम में दिखलाया है कि इस समय योरप में वर्तमान भौतिकवाद से हताश होकर एक नवीनसभ्यता नेचरवाद दका उपक्रम हो रहा है पर उसमें उस सभ्यता को स्थिर रखने की शकित नही है। क्योंकि वह सभ्यता मनुष्यों को नेचर के अधीन हो जाने की सलाह देती है और अपनी बुद्घि और विचार को काम में लाने की आशा नही देती। इस सभ्यता के प्रचारकों का यह विश्वास है कि आरंभ काल में मनुष्य अत्यंत सुखी था और उनकी सुख शांति का कारण उसका नैसर्गिक व्यवहार ही था ज्ञान विज्ञान नही।
किंतु हम देखते हैं कि ज्ञान विज्ञान के छोड़ने से मनुष्य जंगली हो जाता है और अपनी तथा अपनी सभ्यता की रक्षा नही कर सकता। अतएव नेचरवाद की सभ्यता किसी अंश में अच्छी होती हुई भी अपने अंदर चिरस्थायी रहने की शक्ति नही रखती, इसलिए यह सभ्यता त्रुटिपूर्ण है। इस सभ्यता की त्रुटियां तब तक दूर नही हो सकतीं जब तक वैदिक आर्य सभ्यता का अनुकरण न किया जाए। नेचरवादियों के अनुसार आरंभ में मनुष्य अधिक सुखी और शांत था किंतु हम देखते हें कि उस सुख शांति का कारण नैसर्गिक जीवन न था प्रत्युत आदिम मनुष्यों की सुख शांति का कारण वैदिक शिक्षा ही थी जो मनुष्यात्पत्ति के साथ ही साथ परमेश्वर की ओर से दी गयी है।
इस वैदिक शिक्षा की दीर्घकालीनता और प्राचीनता को हमने प्रथम खण्ड में दिखलाया है और वेदों की सभ्यता मिश्र आदि देशों की समस्त सभ्यताओं से अत्यंत प्राचीन है और आदिमकालीन है। जो लोग वेदों के शब्दों से इतिहास निकालकर और ज्योतिष के सिद्घांतों का वर्णन निकालकर वेदों का उत्तपत्ति काल निश्चित नही है। वेदों से वेदों का समय नही निकला जा सकता। वेदों का समय तो आर्यों के प्राचीन इतिहास से ही निकल सकता है और वह समय वैवस्वत मनु तक जा पहुंचता है जो मनुष्योत्पत्ति का ही समय है।
-पं. रघुनंदन शर्मा की पुस्तक
‘वैदिक संपत्ति’ से