जहीरूद्दीन बाबर ने 1526 ई0 में भारत पर आक्रमण किया । जब वह भारत में एक बादशाह के रूप में काम करने लगा तो उसे भारत के लोगों से उपेक्षा और सामाजिक बहिष्कार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। उसने स्वयं ने लिखा है :- “मेरी दशा अति शोचनीय हो गई थी और मैं बहुत अधिक रोया करता था। पर मेरे मन में विजय तथा राज्य प्रसारण की उत्कृष्ट लालसा थी । अतः एकाध हार से ही सर पर हाथ रखकर बैठने वाला नहीं था । मैं ताशकंद के खान के पास गया जिससे कुछ सहायता प्राप्त की जा सके।”
जब बाबर ने सिन्धु नदी पार की तो हिन्दू राठौर राजपूतों के वंशजों के राजा और उनकी सेना ने उसका वैसे ही स्वागत किया जैसे भारत के वीर किसी आक्रमणकारी का करते आए थे । पी. एन. ओक अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ – भाग – 2 के पेज 37 पर लिखते हैं :-“भारत के सीमावर्ती निवासी और गक्खरों तथा अन्य हिन्दू जातियों द्वारा बाबर को सिन्धु के पार खदेड़ दिया गया। जलालाबाद मार्ग पर काबुल से लगभग 10 मील पूर्व में स्थित बुत खाक में होकर बाबर का प्रत्यावर्तन हुआ । इसका नाम लुटेरे मोहम्मद गजनी के उस मूर्ति भंजक करतब से पड़ा है जब भारत के हिन्दू मन्दिरों को लूटकर उनकी पवित्र मूर्तियों को विचूर्ण कर गया था।”
बाबर ने भारत में जहाँ – जहाँ भी कदम रखे वहीं -वहीं उसने हिन्दुओं पर घोर अत्याचार किए । यही कारण था कि बाबर से न केवल हमारे राजनीतिक लोग घृणा करते थे अपितु भारत का जनसाधारण भी उससे घृणा ही करता था । हिन्दुओं के इस प्रकार के आचरण से दुखी होकर बाबर ने लिखा था : -“जब मैं प्रथम बार आगरा गया मेरे लोगों तथा वहाँ के निवासियों में पारस्परिक द्वेष तथा घृणा थी। उस देश के किसान तथा सैनिक मेरे आदमियों से बचते (घृणा करते) थे तथा (उपेक्षा भाव समाज बहिष्कृत जैसा व्यवहार करते हुए ) दूर भाग जाते थे । तत्पश्चात दिल्ली व आगरा के अतिरिक्त सर्वत्र वहाँ के निवासी विभिन्न चौकियों पर किलेबन्दी कर लेते थे तथा नगर शासक से सुरक्षात्मक किलेबन्दी करके न तो आज्ञा पालन करते थे और न झुकते थे।”
भारत के लोग अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए ही विदेशी आक्रमणकारी बाबर से घृणा करते थे। इस की ओर संकेत करते हुए अबुल फजल लिखता है :- “यद्यपि बाबर के कब्जे में दिल्ली तथा आगरा आ गए थे , परन्तु हिन्दुस्तानी उससे घृणा करते थे ।इस प्रकार की घटनाओं में से यह एक विचित्र घटना है कि इतनी महान विजय और दान पुण्य के उपरान्त इनकी दूसरी नस्ल का होना , हिन्दुस्तान वालों का मेलजोल न करने का कारण बन गया और सिपाही इनसे मेलजोल पैदा करने एवं बेग श्रेष्ठ जवान हिन्दुस्तान में ठहरने को तैयार नहीं थे । यहां तक कि सबसे अधिक विश्वासपात्र ख्वाजा कला बेग का भी व्यवहार बदल गया तथा बाबर को उसे भी वापस काबुल भेजना पड़ा ।” (अबुल फजल : ‘अकबरनामा’ अनुवादक -रिजवी)
बाबर के विरुद्ध भी बनी राष्ट्रीय सेना
राणा संग्रामसिंह के साथ बाबर का युद्ध बयाना युद्ध के नाम से जाना जाता है । इस युद्ध में हमारे हिन्दु वीर सैनिक राणा के नेतृत्व में एक – एक इंच भूमि के लिए लड़े थे । बाबर राणा सांगा और उनके सैनिकों की वीरता को भुला नहीं पाया था । खानवा के युद्ध में भी हमारे वीर योद्धाओं ने जब बाबर और उसकी सेना के पैर उखाड़ दिए तो बाबर ने अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए हिन्दुओं के साथ हो रहे उस युद्ध को जेहाद की संज्ञा दी थी , जिससे उनके भीतर जोश पैदा किया जा सके।
यहाँ पर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बाबर को भारत से भगाने के लिए हमारे कई हिन्दू राजाओं ने मिलकर फिर एक राष्ट्रीय सेना का गठन किया। जिसका विवरण हमें ‘भारत की प्रसिद्ध लड़ाइयां’ नामक पुस्तक के पेज संख्या 214 पर मिलता है। लेखक लिखता है :- “राणा की सेना में इस बार 1 लाख 20 हजार सामंतों ,सरदारों , सेनापतियों तथा वीर लड़ाकुओं की संख्या थी । इसके अतिरिक्त राणा की सेना में 80 हजार सैनिक थे ,30 हजार पैदल सैनिकों की संख्या थी । युद्ध में लड़ने वाले 500 खूंखार हाथी थे । इस प्रकार 2 लाख 30 हजार सैनिक सवारों , सरदारों , सामंतों और शक्तिशाली राजपूतों को लेकर राणा सांगा युद्ध के लिए रवाना हुआ था । जिनका संग्राम में लड़ना ही जीवन था। डूंगरपुर , सालुम्ब , सोनगड़ा मेवाड़ , मारवाड़ ,अंबेर, ग्वालियर ,अजमेर , चंदेरी तथा दूसरे राज्यों का एक बहादुर राजा इस विशाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे।”
अपनों के विश्वासघात और धोखों ने महाराणा संग्राम सिंह को यद्यपि पराजय का घूंट पीने के लिए विवश किया , परन्तु अन्तिम क्षणों तक मातृभूमि के प्रति उनके हृदय में जो प्रेम था, वह हमारे गौरवशाली इतिहास की एक अमूल्य धरोहर है । उन्होंने निरन्तर 3 वर्ष तक इस विदेशी आक्रमणकारी बाबर और मुस्लिम लोगों से संघर्ष किया था । अन्त में बसवा नामक स्थान पर माँ भारती के इस महान सपूत ने अन्तिम सांस ली थी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत