वर्तमान संदर्भ में गंभीर चुनौती है वैदिक मूल्यों के लिएभारत सनातन संस्कृति का संवाहक है और आज भी संपूर्ण विश्व को अपनी सनातन संस्कृति से प्रभावित कर रहा है और प्रकाशित भी। यही कारण है कि कोरोना जैसी भयंकर महामारी से जब पूरा विश्व काल के गाल में जा रहा था तो ” मरता क्या न करता ” की लोकोक्ति विश्व में चरितार्थ हो गई।विश्व के सभी महाद्वीपों के विकसित राष्ट्र अमेरिका, रूस, इटली ,स्पेन, डेनमार्क,कनाडा, ब्रिटेन, ब्राजील आदि के साथ कुछेक इस्लामिक देशों में भी वेद मंत्रों की गूंज दिखाई दी। पढ़े लिखे संभ्रांत लोग डॉक्टर, इंजीनियर, पोप, पादरी भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए गायत्री मंत्र महामृत्युंजयी मंत्र का सस्वर उच्चारण करते हुए अपनी शक्ति सामर्थ्य ( Immunity ) को बढ़ाते हुए देखे गए।
त्वमेव विदित्वात्मेति नान्या पन्थे विद्यते अनाय ।।इस भव्य दिव्य मंदिर के कल्याण में कल्याण सिंह का योगदान मूगों की माला के केंद्र में बड़े मूंगे के समान दैदीप्यमान है।माननीय प्रधानमंत्री मोदी ने पैनी दृष्टि, परिपक्वता से लंबित प्रकरण के निस्तारण में सहयोग करके एक नए युग की शुरुआत कर अपने सक्षम नेतृत्व का परिचय दिया है जो इतिहास के पृष्ठों में इंद्राज रहेगा। सर्वोच्च न्यायालय के महामहिम न्यायाधीश गोगोई का जीवट भी आज नमन करने योग्य है।परंतु इस अवसर पर भी कुछ चिंतन करने का विषय है कि कौशल्या नंदन श्रीराम आदि प्रथम महाकवि महर्षि वाल्मीकि रचित प्रथम रामायण के अनुसार पूर्ण वैदिक महापुरुष थे। वे मर्यादा के पोषक और यज्ञों के संरक्षक थे। यज्ञों की सुरक्षा एवं संरक्षा तथा वैज्ञानिक शोध के लिए महर्षि विश्वामित्र उन्हें अपनी वैज्ञानिक यज्ञ शोधशाला में लाए थे। उन्हें तराश कर शस्त्र एवं शास्त्र की विद्या में निपुण कर राष्ट्र रक्षा में प्रशिक्षित किया। विश्व के अधिकांश देशों में राम को आज भी आदर्श माना जाता है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश में श्री राम को राष्ट्रीय महापुरुष माना जाता है एवं थाईलैंड की राष्ट्रीय पुस्तक रामायण है। इसी प्रकार श्रीराम एशिया के अधिकांश देशों में 10 लाख वर्ष बाद भी एक आदर्श है। डॉ पी एन ओक जो कि इतिहास के मास्टर पीस अनुसंधानक रहे हैं। उनकी रचित पुस्तक “भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें” में देखा जा सकता है। श्रीराम विस्तारवाद की नीति के कितने विरोधी थे कि लंका विजय के बाद विभीषण के राज्याभिषेक के समय विभीषण के अनुरोध को ठुकरा दिया और कहा – “विभीषण जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” अर्थात् लंका का राज्य मेरी मातृभूमि से बढ़कर नहीं है। वेद भी अपनी सूक्ति में ” त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा ” त्याग पूर्वक भोग करने की बात कहता है। वह कितना त्यागी महापुरुष होगा कि लोकतंत्र की स्थापना कर स्वर्गमयी, स्वर्णमयी लंका के राज्य को वहां की जनता को छोड़ दिया। “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा”।परमात्मा का संविधान जिसके जीवन का अंग था उसी मर्यादा पुरुषोत्तम महापुरुष के गर्भगृह का शिलान्यास एवं भूमि पूजन जिस अवैदिक, अवैज्ञानिक विधि से हुआ यह भी विचारणीय है। आज बहुत सारे कार्य माननीय मोदी जी के द्वारा राष्ट्रहित में हुए हैं और कुछ आगे भी होंगे। परंतु राष्ट्रनायक ( प्रधानमंत्री ) की गरिमामयी उपस्थिति में श्री रामजन्म गर्भगृह का शिलान्यास, भूमि पूजन जिन विद्वानों के द्वारा कराया गया है वह हमारी सत्य सनातन वैदिक संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है और मीडिया ने इसे प्रत्येक चैनल पर प्रसारित कर खूब वाह-वाह लूटी। जबकि पूर्व में प्रचारित किया गया था कि देश के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान चारों वेदों के कुछ चुनिंदा मंत्रों से शिलान्यास भूमि पूजन कराएंगे। लेकिन संपूर्ण कार्य वेद विरुद्ध था। लगता है कि सत्ता के गलियारों में चाटुकारों की पहुंच इतनी अधिक हो गई है कि मोदी जी भी उनके मकड़जाल में पूरी तरह फंस गए हैं। जबकि इस कार्यक्रम को सारा विश्व देख रहा है।दक्षिण अमेरिका का सूरीनाम राष्ट्र का राष्ट्रपति श्रीमान् चंद्रिका प्रसाद संतोखी वेद को हाथ में लेकर वेद मंत्र ” ओ३म् अग्ने वृतपते वृत्तम चरिष्यामि तच्छकेयम् तन्मये राध्यताम इदम् हमऽनृतात सत्यमुपेमि” बोलकर शपथ लेता है और हम ग्लोबल लीडर होकर उस पुरोहित के कहने पर कालिका माई की जय, भगवती माई की जय, क्षेत्रीय देवता की जय, कुल देवता की जय, जय श्रीराम बोलकर मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र के चरित्र का अवमूल्यन करके भी अंधी आस्था में डूबे हैं।जिन महाशय ने 21 वैदिक विद्वानों के साथ यह सुकर्म कराया वे है वृंदावन के श्री गंगाधर पाठक। जो मुख्य पुरोहित के रूप में प्रधानमंत्री के आमुख अर्थात पश्चिम दिशा में अपने श्रीमुख को कर रखा था जबकि यज्ञ के पुरोहित को सदैव उत्तराभिमुख होकर स्थान ग्रहण करना चाहिए। परंतु श्री गंगाधर पाठक विचार करें कि वेदपाठी होने के कारण आपके पूर्वजों से यह पाठक गोत्र प्राप्त हुआ, परंतु श्री गंगाधर पाठक ने अपने गंगा ज्ञान सागर से सबकुछ वेद विरुद्ध कराया। आचमन् भी ओम् केशवाय नमः, नारायण नमः, माधवाय नमः बोलकर इतिश्री कर ली। संकल्प पाठ भी “ओ३म् तत्सत् श्री ब्राह्मणे …..” नहीं बोला गया और जो बोला गया वह लेखनीबद्ध करने योग्य भी नहीं है।
श्री गंगाधर पाठक पुरोहित प्रधानमंत्री को बता रहे थे कि अयोध्या प्रसंग तो वेदों में आया है, इनसे कोई पूछे कि वेद तो ज्ञान विज्ञान से ओतप्रोत हैं उसमें मनुष्य मात्र के कल्याण की शिक्षा है ना कि किसी परिवार का इतिहास। हां कुछ वेद मंत्रों का अर्थ का अनर्थ कर अपना सिक्का जमाने के अलावा कुछ नहीं है। देखो एक प्रसंग -अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानाम पूरयोध्या ।
तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषा वृत: ।।
– अथर्व (१०|२|३१)वेद में इस शरीर को अयोध्या कहा है कि मनुष्य के भौतिक शरीर में आठ चक्र, नवद्वार और उसमें तेजस्वी कोष है, उसमें तेज से परिपूर्ण स्वर्ग है। इसी प्रकाशमयी कोष में ब्रह्म का निवास है। हे मनुष्य! तुम अमृत से परिपूर्ण इस ब्रह्म नगरी (अयोध्या) को जानो।इसी कारण महर्षि दयानंद लिखते हैं कि ब्राह्मण वही है जो वेद विद्या को आत्मसात् कर राष्ट्रनायक को सुपथ के सन्मार्ग पर अग्रसर करे। जिस पथ पर राष्ट्रनायक चलता है आम नागरिक भी उसी का अनुगमन करता है। जब राष्ट्रनायक अपनी संस्कृति पर पकड़ नहीं रखता तभी अवैदिक मत इसी के कारण पनपते है। शासक को स्मरण होना चाहिए सम्राट अशोक के बौद्ध ग्रहण करने के कारण वैदिक संस्कृति का पतन हुआ और राजा सुधन्वा ने जैन धर्म ग्रहण किया तो हम नास्तिकता की ओर बढ़ने लगे। जबकि बौद्ध, जैन, चार्वाक, इस्लाम, पारसी, क्रिश्चियन आदि धर्म नहीं है यह तो संप्रदाय या पंथ हैं। धर्म तो मानव जाति का वैदिक धर्म है जो सत्य सनातन है। जब सत्य एक हो तो धर्म भी एक होगा चूंकि सत्य सिद्धांत है तो धर्म उसका प्रयोग अर्थात् व्यवहार धारण करना। आज ऐसे ही शास्त्री, शास्त्रज्ञ होने का दंभ भर रहे हैं जो धर्म का क ख ग नहीं जानते। ये तो आम जनता को भ्रमित कर साधक बन रहे है। धर्म की ध्वजा वेद, शास्त्र, उपनिषद् एवं आर्ष ग्रंथ हैं। कंठी, माला, तिलक, छापा, रुद्राक्ष धारण करने से कोई भी ना महर्षि बना है और ना ही बनेगा।भारत के अथक प्रयास से ऋग्वेद को पूरे विश्व में प्राचीनतम ग्रंथ मानकर जो ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण है विश्व के संग्रहालय में रखकर राष्ट्र गौरव बढ़ा है। परंतु उसी ऋग्वेद के 10552 मंत्रों में से प्रथम मंत्र ” ओ३म् अग्निमीडे पुरोहितं …… ” भी बोला जाता तो कुछ आत्मसंतोष होता। ऐसे ही गंगाधरों के कारण मैकाले और मैक्समूलर जैसे लोग हमारी संस्कृति का उपहास करते है। ऐसे अवैदिक लोगों का एक्स-रे कर सरकार को सर्जिकल अभियान चलाना चाहिए। इसी अवैदिकता के कारण देश 1000 से अधिक वर्षों तक विदेशी आक्रांताओं के चंगुल में फंसा रहा। जब मुख्य आचार्यों का यह हाल होगा जो उस टीम के हैड (Head) थे तो बिना हेड वालों का क्या हाल होगा।
मुख्य आचार्य की योग्यता का उसी समय पता लगा जब मोदी जी को यजमान के बजाय जिजमान बोल रहे थे।हमें याद रखना चाहिए कि फ्रांस के शिक्षाविद् एवं न्यायाधीश जैकोलियट ने सन् 1860 में “बाइबल इन इंडिया” में उद्धृत किया है कि वेद एवं समस्त आर्ष ग्रंथ विश्व की प्राचीनतम धरोहर हैं। महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में जैकोलियट की “बाइबल इन इंडिया” की चर्चा की है। विश्व हमारे ज्ञान का लोहा मानता है और हम उससे अविज्ञ होते जा रहे हैं। यही कारण है अशोक सम्राट के कालखंड में इसी अविद्या के कारण अशोक ने बौद्ध धर्म और राजा सुधन्वा ने जैन धर्म स्वीकार किया तो सारा समाज बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की ओर अग्रसर हो गया। समाज भी नास्तिकता की ओर बढ़ने लगा। इसी नास्तिकता को आदि शंकराचार्य ने वेद का परचम फहराकर दूर किया और इसी कारण 33 वर्ष की अवस्था में तथाकथित कपोल कल्पित धर्माचार्यों ने विष देकर सदैव को नींद में सुला दिया। इसी प्रकार महर्षि दयानंद ने जब सत्यार्थ प्रकाश किया एवं राष्ट्र में सोयी, खोयी प्रतिभा को जगाया और सत्ता के मोहन राजभोग पर पल रहे काशी के पंडितों, स्वामी विशुद्धानंद, बालशास्त्री जैसे लोगों का भंडाफोड़ किया । साथ ही अवैदिक मतों पर आक्रामक प्रहार किया तो उन्हें भी 17 बार विष देकर जो कुछ किया, वह सब जानते हैं।इन्हीं कारणों से महर्षि दयानंद ने देश के समस्त राज महाराजों को संबोधित कर अपने उपदेश में बटी हुई ताकत को एक करने के लिए बहुत धर्मोपदेश किए। राष्ट्रीयता से ओतप्रोत करने के लिए ‘आर्याभिविनय’ पुस्तक में 108 मंत्रों की व्याख्या की है जिसे पढ़कर अंग्रेजी ब्रितानी सरकार ने ऋषि दयानंद को बागी फकीर घोषित किया।महर्षि दयानंद ने धर्मार्य, विद्यार्य एवं राजार्य सभाओं के माध्यम से शासन की व्यवस्था पर जोर दिया। राज चलाने के लिए विद्यावान एवं राजनीति के पंडित होने चाहिए। ब्राह्मण, मंत्री विद्वान हों पर राजा अर्थात् शासक उनसे किंचित भी कम विद्वान ना हो। शस्त्रास्त्र का महान् योद्धा और शास्त्रों का पंडित भी होना चाहिए जिससे उसकी मजबूत पकड़ से सब अनुशासन में रहें। साथ ही सभा एवं जनता भी शासक पर निष्पक्ष दृष्टि रखे।आज आर्य समाज के कर्णधारों को भी आगे आने की आवश्यकता है। मौन रहना भी गलत कार्यों की स्वीकारोक्ति है। अतः समय-समय पर हम अपना मौन व्रत तोड़ कर महर्षि के कार्यों को आगे बढ़ाएं यही ऋषि के लिए हवि होगी।जिस पार्टी का शासन सन् 1984 में मात्र दो सांसद थे और आज आपके पास भी आर्य समाज के एक दर्जन सांसद हैं – स्वामी सुमेधानंद, डॉक्टर सत्यपाल सिंह इत्यादि। हम उन्हें मजबूत करें और सहयोग करें तो आने वाला समय उज्ज्वल होगा। केंद्र एवं राज्य सरकारों को महर्षि दयानंद को अनुप्रतीक (Icon) बनाना चाहिए। ऐसा प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद, लौहपुरुष सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारमैया, वीर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस, महागोविंद रानाडे और डॉ भीमराव अंबेडकर के विचार हैं।शुभेच्छु
गजेंद्र सिंह आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता
जलालपुर अनूपशहर
बुलंदशहर उत्तर प्रदेश – 203390
+91-9783897511
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