भारत का वैदिक ज्ञान हीं है ज्ञान विज्ञान की जननी
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
न्यूटन के आगे सेब गिरा फिर उनके लिये सब यूरेका यूरेका हो गया। ऐसे ही एक बार महर्षि कणाद (लगभग छठी सदी ईसापूर्व) किसी फल को ले कर कुछ सोचते-विचारते जंगल में भटक रहे थे। गंभीर चिंतन में थे इसलिये नाखून से फल को कुरेदते हुए अपनी धुन में चले जा रहे थे। एकाएक ठिठक गये जब फल का छोटा सा ही अंश नाखून से चिपका रह गया। क्या इससे भी छोटा आकार संभव है, उन्होंने उस टुकडे को बारीक-बारीक कुरेद दिया लेकिन अब विचार आविष्कार में बदलने की तैयारी करने लगा था। सबसे लघुतम-सबसे सूक्षतम क्या होगा? वह जो सबसे सूक्ष्मतम होगा उसका आकार क्या होगा? क्या उसे नष्ट किया जा सकेगा? कणाद ने सिद्ध किया कि परमाणु किसी पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है जिसे नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है। उन्होंने बताय कि भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है। कणाद पर चर्चा से पूर्व उपलब्ध भारतीय ज्ञान और शास्त्रों के भीतर थोडा और गहरे उतरने की आवश्यकता है। “इतिहास में भारतीय परम्परायें” कृति में उल्लेखित गुरुदत्त के विवरणों के अनुसार अंग्रेज वैज्ञानिक जॉन डाल्टन (1766 – 1844) के उल्लेखों से पहले प्रकृति पाँच तत्वों की मानी जाती थी – जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश। डाल्टन ने पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो ‘डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त’ के नाम से प्रचलित है। डाल्टन का विचार था कि सोना, लोहा, चाँदी, रागा, सीसा इत्यादि और ऑक्सीजन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन इत्यादि तत्व हैं। इनके बहुत छोटे छोटे कण होते हैं जो स्वयं में तत्व के गुण रखते हैं, इन्हे तोड कर और छोटा नही किया जा सकता। इन कणों का नाम एटम रखा गया। न्यूटन के दौर में मान्यता थी कि बीस-पच्चीस तत्वों से पृथ्वी के सभी पदार्थ बने हैं और संसार में इतने ही प्रकार के एटम हैं। इस समय के पश्चात पाश्चात्य वैज्ञानिकों के नये नये तत्वों का आविष्कार करना आरम्भ किया और वर्तमान में तत्वों की संख्या सौ से अधिक है।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ज्ञात हुआ कि कुछ तत्वों के एटम स्वयं टूटते रहते हैं और उनमें से उससे भी बारीक कण निकलते हैं। डाल्टन के नियम अब बदल गये तथा समय के साथ एटम में तीन प्रकार के कणों ईलेक्ट्रोन, प्रोटोन तथा न्यूट्रोंन की खोज हो गयी। यह ज्ञान होने के पश्चात कि सभी प्रकार के एटमों में ज्ञात ईलेक्ट्रोन, प्रोटोन तथा न्यूट्रोंन एक समान ही भार और आकर के होते हैं, अब संसार मे केवल तीन तत्व रह गये। जब ये तत्व विनाश को प्राप्त होते हैं तब शक्ति में परिवर्तित हो जाते हैं। गुरुदत्त विभिन्न साक्ष्यों के माध्यम से इन एटॉमिक पार्टिकल्स की वैदिक ग्रंथों में ज्ञात साम्यता के आधार पर मित्र (इलेक्ट्रोन), वरुण (प्रोटोन) और अर्यमा (न्यूट्रॉन) के रूप में पहचान करते हैं। ऋग्वेद का यह श्लोक इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि – “अदर्शि गतुरुरवे वरीयसी पंथा। ऋतस्य समयंत रश्मिभिश्चक्षुर्भगस्य रश्मिभि:। द्युक्षं मित्रस्य सादनमर्यम्णो वरुणस्य च। अथा दधाते बृहदुक्थ्यं वय उपस्तुत्यं बृहद्वय:” अर्थात असाम्यावस्था में शक्तिशाली प्रकृति, प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए अपने भीतर की शक्ति से चमकने लगती है। तब मित्र, वरूण और अर्यमा अंतरिक्ष में बन जाते हैं। यह एक महान प्रकृति के भण्डार से बन रहे हैं।
एटम की संरचना को ले कर हमारा आधुनिक ज्ञान कहता है – परमाणु के केन्द्र में नाभिक (न्यूक्लिअस) होता है जिसका घनत्व बहुत अधिक होता है। नाभिक के चारो ओर ऋणात्मक आवेश वाले एलेक्ट्रान चक्कर लगाते रहते हैं जिसको एलेक्ट्रान घन (एलेक्ट्रान क्लाउड) कहते हैं। नाभिक,धनात्मक आवेश वाले प्रोटानों एवं अनावेशित (न्यूट्रल) न्यूट्रानों से बना होता है। हमारा वैदिक ज्ञान कहता है कि महदीर्घवद्दा ह्रस्व परिमण्डलाभ्याम (ब्रम्हसूत्र) अर्थात हम मित्र (ईलेक्ट्रॉन) पर ऋण (-) विद्युत का आवेश, वरुण (प्रोटोन) पर धन (+) विद्युत का आवेश एवं अर्यमा (न्यूट्रॉन) को आवेश रहित अथवा न्यूट्रल मान सकते हैं। ऋग्वेद का यह उद्धरण देखें कि – अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहतं शरीरं। वृत्रस्य निण्यं विचरंत्यापो दीर्घंतम आशयदिंद्रशत्रु: अर्थात कि चारो ओर अस्थिर और बदलने वाले मार्गों से ह्रस्व (मित्र) परिधि में घूमने लगते हैं और उनके मध्य वरुणों के घेरे में शांत अर्यमा पडे रहते हैं (साईंस और वेद)। एटम की संरचना पर आधुनिक और पुरातन दोनो ही परिभाषायें मैंने एक साथ प्रस्तुत कर दी हैं और आप उनमे लेशमात्र का भी अंतर नहीं पायेंगे। महर्षि कणाद इस प्राचीन वैदिक अन्वेषण को अधिक वैज्ञानिकता से अपनी कृति वैशेषिक सूत्र में सामने लाते है और वे बाईनरी मॉलीक्यूल्स की बात करते हैं अर्थात एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ (बाईनरी मॉलीक्यूल) का निर्माण कर सकते हैं। कणाद रासायनिक बंधता के स्तर तक जाते हैं और उल्लेखित करते हैं कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। आज हम डाल्टन की थ्योरी को जानते हैं, कणाद को यह पीढी नहीं पहचानती। बिकलुल वैसे ही जैसे टपके हुए सेव से गुरुत्वाकर्षण खोजने वाले न्यूटन को कौन नहीं जानता लेकिन किसे जानकारी है कि बिलकुल यही सिद्धांत भास्काराचार्य ने भी प्रतिपादित किये थे।
आज न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गति के जो नियम हम जानते हैं उनसे पहले ही कणाद द्वारा विश्व के सामने रख दिये गये थे। आइजेक न्यूटन ने वर्ष – 1687 में अपनी पुस्तक प्रिंसीपिया में गति के जिन तीन नियमो ( Law of Motion ) को प्रतिपादित किया वे हैं – अ) यदि कोई बस्तु विरामावस्था में है तो वह तब तक विराम की अवस्था में ही रहेगी जब तक उसपर बाहरी बल लगाकर गतिशील नहीं किया जायेगा और यदि कोई वस्तु गतिशील है तो उस पर बाहरी बल लगाकर ही विरामावस्था में पहुँचाया जा सकता है। न्यूटन के प्रथम नियम को जड़त्व का नियम (Law Of Inertia) भी कहा जाता है। ब) वस्तु के संवेग (Momentum) में परिवर्तन की दर उस पर लगाये गये बल के अनुक्रमानुपाती (Directly Prepotional) होती है तथा संवेग परिवर्तन आरोपित बल की दिशा में ही होता है। स) प्रत्येक क्रिया के बराबर तथा विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। अब कणाद ने क्या सिद्धांत दिये उसे समझते हैं। वे कहते हैं – इसके अलावा महर्षि कणाद ने ही न्यूटन से पूर्व गति के तीन नियम बताए थे। वे कहते हैं – वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते (change of motion is due to impressed force) वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु (Change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which the force is impressed)। वेगः संयोगविशेषविरोधी (Every action there is always an equal and opposite reaction) (वैशेषिक दर्शन) अर्थात् वेग पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है। वैशेषिक दर्शन में ही कणाद गति के प्रकार भी बताते हैं अर्थात – उत्क्षेपण (upward motion), अवक्षेपण (downward motion), आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress), प्रसारण (Shearing motion) एवं गमन (General Type of motion)। सिद्धांतों में इतनी समानता? क्यों और कैसे मेरे लिखने का विषय नहीं है। मेरा प्रश्न यह है कि कणाद के गति सिद्धांत हमारी जानकारी से ओझल क्यों किये जा रहे हैं?
क्या हमने यह तय कर लिया है, ज्ञान जितना प्राचीन होगा उतना ही उसे अविश्वसनीय करार देना चाहिये? क्या हमने तय कर लिया है कि बुद्धिमत्ता पाश्चात्य का ठेका है, पूर्व ने जो कुछ सोचा या खोजा उसे नकार दिया जाना चाहिये? क्या हमने तय कर लिया है कि उपनिवेश रहते हुए हमारी जो अवधारणायें थी वह स्वतंत्र भारत में भी जस का तस बनी रहेंगी? ज्ञान के अनपढे पन्ने उपेक्षित छोड देना नये किस्म की बौद्धिकता है अथवा उनका उल्लेख करना आज साम्प्रदायिकता की परिभाषा में रखा जाने लगा है। ‘की फर्क पैंदा है’ वाली मानसिकता में हमने अपने सारे प्रश्नों के उत्तर तलाश लिये हैं।
✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
दिव्या रश्मि से साभार
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