कुछ कके दिखाएँ

दिखाऊ भौंपू न बने रहें

– डॉ. दीपक आचार्य

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इंसान की पहचान उसकी वाणी और कर्म से होती है। कामों की सुगंध अपने आप बिखरने और कीर्ति देने लगती है जबकि अपनी ही अपनी बड़ाई और चर्चाओं को सुनाने-सुनने में घण्टों रमे रहने वाले लोगों को वो प्रतिष्ठा और लोकप्रियता प्राप्त नहीं हो पाती जो किसी अच्छे काम से होती है।

इस मामले में दो किस्मों की प्रजातियां हमारे सामने हैं। इनमें एक वे हैं जो चुपचाप अपने कामों में व्यस्त रहते हैं और उन्हें बाहरी आडम्बरों, अभिनंदनों और सम्मानों से लेकर लोकप्रियता जैसे किसी बाहरी तत्व की न भूख होती है, न उनके मन में यह प्यास ही होती है कि लोग उनकी बड़ाई करें और सभी स्थानों पर उनकी पूछ हो।

दूसरी किस्म में वे लोग आते हैं जो वह हर मौका तलाशने में माहिर होते हैं जो कि उन्हें लोकप्रियता दिला सके या वे लोगों की नज़रों में आ सकें। आजकल लोगों में दूसरे लोगों की नज़रों में आने और बने रहने का जबर्दस्त भूत सवार है और इसके लिए वे लोग हर समय उसी तलाश में रहते हैं।

ऎसे खूब सारे लोग सभी स्थानों पर पाए जाते हैं जिनमें प्रदर्शन का ऎसा व्यामोह पसरा होता है जिसकी कोई सीमा नहीं होती। हर गाँव-शहर और महानगर में ऎसे लोगों को आसानी से गिनकर रखा जा सकता है जो कि हर किसी जगह अपनी पावन मौजूदगी से कार्यक्रमों और धरा को धन्य करते रहे हैं।

ऎसे लोग हमेशा बड़े कहे जाने लोगों के आगे-पीछे, दाँये-बाँये सिर्फ इसलिए ही घूमते रहते हैं कि कहीं भीड़ में उनका चेहरा भी नज़र आ जाए। ऎसे लोग कैमरों को देख कर और ज्यादा उत्साही, उतावले और उन्मादी हो जाते हैं। खूब सारे लोगों के बारे में तो यह कहा जाता है कि ये लोग कहीं न कहीं टाँग फँसाए रखते हैं लेकिन आजकल इस कहावत से भी ऊपर उठकर ऎसे-ऎसे लोग पैदा हो गए हैं जो भीड़ में अपना मुँह फँसाये रखते हैं और वह भी इसलिए कि किसी न किसी तरह उनकी छवि भी आम जनता की निगाहों मेें आ सके और वे भी अपने आपको अपने इलाके का लोकप्रिय व बड़ा आदमी मानते रहें, वे इस काबिल हों न हो, यह अलग बात है।

एक जमाने मेें ‘फोटो छाप नसवार’ हुआ करती थी लेकिन अब ऎसे ‘मुँह निकाल लोगों’ को देख कहा जा सकता है कि आदमियों की एक नस्ल ऎसी भी पैदा हो गई है जिसे फोटो छाप कहा जा सकता है।

ऎसे लोग हर इलाके में खूब सारे मिल ही जाएंगे, जो बिना किसी उद्देश्य और प्रसंग या बुलावे के हर कहीं अपनी पावन मौजूदगी का अहसास करा ही देते हैं और कोई कार्यक्रम ऎसा नहीं होता जिनमें इनकी पावन मौजूदगी नहीं हो। ऎसे फोटो छाप प्रजाति के लोगों के कारण से आयोजकों से लेकर दूसरे लोग भी हैरान हैं। अपनी छवि दर्शाने के चक्कर में ये लोग कई बार आयोजन करने वालों और अतिथियों को भी पीछे धकेल दिया करते हैं।

सब जगह बेवजह छाये रहने की बीमारी पाल लेने वाले ऎसे लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उन्हें क्या कह रहा है?  कोई कुछ भी कहे, कहता रहे, इन्हें क्या।

बेशर्मी की सारी हदों को पार कर चुके इस किस्म के लोग आजकल शादी-ब्याह के मौके पर आगे ही आगे चलते रहने वाले उन बड़े-बड़े चमकदार पीले-सफेद भौंपूओं की तरह होते हैं जिनमें से आवाज न निकल सकती है, न निकाली जा सकती है, पर दिखते बड़े आकर्षक हैं। लोगों को हमेशा यही भ्रम बना रहता है कि ये ही वे सुनहरे भौंपू हैं जो पूरी बैण्ड पार्टी में सबसे ज्यादा ताकत वाले, माधुर्य से भरे-पूरे और सुन्दरतम हैं।

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