डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
हाल ही में सरकार ने किसानों के लिए और राहतों की घोषणाएं की हैं। इसमें एक देश-एक मण्डी, तिलहन, दलहन, आलू-प्याज आदि को आवश्यक वस्तु अधिनियम के नियंत्रण से मुक्त करने और कांट्रैक्ट खेती आदि प्रमुख हैं।
देश-दुनिया के आर्थिक विश्लेषकों को अब यह साफ हो गया है कि खेती की अनदेखी अधिक दिनों तक नहीं की जा सकती। यह खेती-किसानी का ही परिणाम रहा कि कोरोना महामारी के दौर में जब सबकुछ थम गया तब अन्नदाता की मेहनत ही जीने का सहारा बन सकी। घर में कैद रहकर भी दो टाइम भरपेट भोजन इस खेती किसानी के भरोसे ही मिल सका। कोरोना महामारी के दुष्प्रभावों के बाद अब एक बात साफ हो गई है कि देश-दुनिया में किसी क्षेत्र पर सर्वाधिक निर्भरता है तो वह कृषि क्षेत्र है। इसमें कोई दो राय नहीं कि औद्योगिकरण समय की मांग है पर पिछले कुछ दशकों से औद्योगिकरण के नाम पर खेती-किसानी की उपेक्षा हुई जिसका परिणाम रहा कि गांव उजड़ते गए और शहरों में गगनचुंबी इमारतें बनती रहीं। इसके साथ ही उद्योग धंधों की प्राथमिकता के चलते कृषि क्षेत्र पर अपेक्षित ध्यान भी नहीं दिया गया। यह तो देश के अन्नदाता की मेहनत का परिणाम रहा है कि देश में खाद्यान्नों के भण्डार भरे हैं। कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण जब सबकुछ थम गया उस समय सबसे बड़ा सहारा खाद्यान्नों से भरे यह गोदाम ही रहे हैं। लोगों की एकमात्र आवश्यकता रसोई की सामग्री की उपलब्धता रही और इसमें सरकार पूरी तरह से सफल रही।
आज अर्थशास्त्री एक बार फिर यह कहने लगे हैं कि यदि अर्थव्यवस्था को उबारना है तो इसके लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। सरकार भी अब कृषि क्षेत्र पर खास ध्यान देने लगी है। यही कारण है कि लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए जो पैकेजों का दौर चल रहा है उसमें कृषि को खास महत्व दिया जा रहा है। कृषि क्षेत्र के प्रभाव को हमें दो तरह से समझना होगा। पहला यह कि कोरोना के चलते लॉकडाउन के हालातों और रोजगार ठप्प होने की स्थिति में लोगों को अनाज, दाल आदि उपलब्ध कराना ताकि कोई भी व्यक्ति भूखा ना सोए तो दूसरी और किसानों के हाथ में भी पूंजी का आना जिससे वे आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो सकें। केन्द्र हो या राज्य सरकारें सभी इस दिशा में आगे बढ़ रही हैं। यह समय की मांग भी और आवश्यकता भी। लॉकडाउन के दौरान देश के करीब 80 करोड़ लोगों तक गेहूं, चावल, दाल आदि मुफ्त उपलब्ध कराया गया। देश के कई राज्यों में आज भी गरीबों और साधनहीन लोगों को मुफ्त राशन उपलब्ध कराया जा रहा है। इतनी बड़ी तादाद में राशन सामग्री का वितरण कर लोगों को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने की बड़ी पहल अन्नदाता की मेहनत का ही परिणाम है। देश में रबी में रेकार्ड पैदावार हुई, इसका एक बड़ा कारण लॉकडाउन के दुष्परिणामों से या यों कहें कि बंदिशों से कृषि क्षेत्र को जल्दी राहत देकर बचाया गया। इससे फसल की कटाई से लेकर मण्डियों में खरीद तक का मजबूत नेटवर्क प्रभावी रहा। यही कारण है कि रबी में ही केवल और केवल गेहूं की सरकारी खरीद से देश के किसानों के हाथों में 75 हजार करोड़ रुपए पहुंचे हैं। अब इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य जिंसों, तिलहन-दलहन आदि की खरीद से किसानों के पास हजारों करोड़ रुपए और पहुंचे हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में सीधे किसानों के खातों में पैसा गया है इसका सीधा-सीधा लाभ किसानों को हुआ है।
हाल ही में सरकार ने किसानों के लिए और राहतों की घोषणाएं की हैं। इसमें एक देश-एक मण्डी, तिलहन, दलहन, आलू-प्याज आदि को आवश्यक वस्तु अधिनियम के नियंत्रण से मुक्त करने और कांट्रैक्ट खेती आदि प्रमुख हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी माह किसान रेल को हरी झण्डी दिखाई है तो राजस्थान सरकार ने कृषि प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राहत की घोषणाएं, सहकारी समितियों को गौण मण्डी का दर्जा देकर किसानों को अपनी उपज बेचने के अधिक व स्वतंत्र अवसर जैसी सुविधाएं दी हैं। इससे निश्चित रूप से कृषि क्षेत्र को डोज मिलेगी पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
कोरोना लॉकडाउन के दौरान जिस तरह से देश के कोने-कोने से मजदूरों-प्रवासियों ने पैदल ही सैंकड़ों मील की यात्रा कर गांव की ओर पलायन किया और जिस तरह के चित्र मीडिया के माध्यम से सामने आया उससे एक बात साफ हो जानी चाहिए कि सरकार को अब गांव आधारित और खासतौर से कृषि, सह कृषि और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने पर भी खास ध्यान देना होगा। जिस तरह से खेती में आधुनिक तकनीक के प्रयोग से पशुपालन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है उस नीति में भी अब बदलाव की आवश्यकता हो गई है। पशुपालन से किसानों की अतिरिक्त आय उनकी माली हालात को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है वहीं जैविक खेती या परंपरागत खेती को बढ़ावा देते हुए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम की जा सकती है। इस दिशा में सरकार को आगे आना ही होगा।
हालांकि आर्थिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि खेती ही अर्थव्यवस्था को जीवन दान दे सकती है। यही कारण है कि मानसून की अच्छी बरसात के चलते खरीफ फसल से बहुत आशा लगाई जा रही है। इसका एक कारण यह है कि देश में धान, दलहन-तिलहन आदि का रकबा गए साल की तुलना में बढ़ा है। माना जा रहा है कि खरीफ का रकबा अभी और बढ़ेगा, यह भी माना जा रहा है कि खरीफ में अधिक उत्पादन होगा और इससे अर्थव्यवस्था को पंख लगेंगे। यहां एक बात सबको समझनी होगी और जरूरी भी है कि किसान का भला ऋण माफी से नहीं होने वाला, उसका भला होगा तो केवल दीर्घकालीन सुधार कार्यों से। उसे अच्छा बीज मिलें, फसलोत्तर गतिविधियां वैज्ञानिक हों, मूल्य संवर्द्धन के लिए कृषि आधारित उद्योग लगें, भण्डारण खासतौर से कोल्ड स्टोरेज की चैन बने, कोल्ड स्टोरेज युक्त कंटेनर उपलब्ध हों ताकि उसकी उपज का सही मूल्य मिल सके। सबसे ज्यादा जरूरी है कि कृषि उपज के सरकारी मूल्यों की घोषणा समय पर, युक्तिसंगत और फिर फसल तैयार होते ही उसकी खरीद की व्यवस्था सुनिश्चित हो। किसान को सड़कों पर अपनी उपज फेंकने के हालात किसी भी हालत में नहीं आने चाहिए। सरकार को ऐसा रोडमैप बनाना होगा जिससे ऋण माफी जैसी योजनाओं के स्थान पर किसान की उत्पादकता बढ़ाने वाली राहत मिलें ताकि समग्रता में लाभ मिल सके।
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