एक सुपुत्र के तेज तै, कुल की ख्याति होय
पत्नी का हो बिछुड़ना,
बन्धु से अपमान।
बिना आग जलता रहे,
पल-पल हो परेशान ।। 433।।
नदी किनारे का वृक्ष हो,
पर घर नारी-वास।
शीघ्र नष्टï हो जाएंगे,
मत करना विश्वास । 434।।
कोयला का सौंदर्य स्वर,
तपस्वी का क्षमाशील।
विद्वत्ता है कुरूप का,
नारी का लज्जाशील । 435।।
पुरूषार्थ बचावे दरिद्रता,
प्रभु-नाम बचावे पाप।
मौन बचावे क्लेश तै,
नही जाग्रत को संताप । 436।।
जाग्रत से अभिप्राय है-सावधान, सतर्क अर्थात विवेकशील होना।
बेशक सुंदर शरीर हो,
बिद्या से हो हीन।
टेसू का ज्यों फूल हो,
रहता सम्मान विहीन। 437।।
सम्मान विहीन अर्थात सुगंधरहित होने के कारण उपेक्षित रहता है।
सूखे वृक्ष की आग तै,
ज्यों जल जाय अरण्य।
एक कुपुत्र के कारनै,
कुल हो जावै नगण्य । 438।।
एक चांद के कारनै,
रात सुहावनी होय।
एक सुपुत्र के तेज तै,
कुल की ख्याति होय । 439।।
लाड़-प्यार कर पांच तक,
सोलह तक दुत्कार।
पुत्र के संग फिर मित्र सम,
करना उचित व्यवहार । 440।।
दु:खी करें हृदय जलै,
ठीक न पुत्र अनेक।
कुल को जो रोशन करे,
श्रेष्ठ पुत्र बस एक । 441।।
मानव देह का लाभ तब,
जो पावै अपवर्ग।
नही तो आवागमन में,
चलाता रहे निसर्ग । 442।।
शठ की जहां पूजा नहीं,
पति-पत्नी में प्यार।
लक्ष्मी का वासा वहां,
सुखी रहे परिवार । 443।।
क्रमश: