मांसाहार को अपने दैनिक जीवन में स्थान देने का यह अर्थ कदापि नही होता है कि शाकाहार का उनके जीवन में स्थान नही है। वास्तविकता तो यह है कि हर मांसाहारी को खेती बाड़ी में पैदा होने वाली वस्तुओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है। असलियत तो यह है कि जिस पशु पक्षी का यह भक्षण कर रहा है वह जीव शाकाहार की ही देन है। अपने आहार का अधिकतम भाग उसे कृषि से ही प्राप्त करना पड़ता है। क्या मांसाहारी गेहूं, चावल, बाजरा, ज्वार, मक्की और दालों से अपने भोजन को दूर रख सकता है? मांस को कच्चा तो न ही खाएगा, उसके लिए भी हल्दी, मिर्ची और अन्य मसालने ारती पर पैदा की जाने वाली चीजों से ही मिल सकेंगे। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि एक शाकाहारी मांसाहारी पर निर्भर नही रहता है बल्कि मांसाहारी शाकाहार में उपयोग होने वाली वस्तुओं पर निर्भर रहता है। जीवनयापन के लिए शाकाहार पहली आवश्यकता है। इसलिए कोई व्यक्ति कैसी ही जलवायु में अपना जीवनयापन करता हो, उसे धरती पर पैदा की जाने वाली वस्तुओं की ही शरण में आना पड़ता है। किसी व्यक्ति का खान पान उसके स्वभाव को तैयार करता है, जिसका प्रतिबिंब उसके साहित्य में देखने को मिलता है। विश्व में मांसाहार का चलन मध्य पूर्व एवं शीत कटिबंध के लोगों में अधिक देखने को मिलता है। जिसके परिणामस्वरूप यहूदी, ईसाई और मुसलिम शत प्रतिशत मांसाहारी हैं। नील, टिगरिस और युफ्रेटस के आसपास जितनी सभ्यताएं जनमीं, उनमें मांसाहार एक स्वाभाविक गुण था। यही कारण है कि जबूर, तोरेत बाइबिल, और कुरान में मांसाहार का वर्णन मिलता है। अन्य आसमानी पुस्तकों में भी इसकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से चर्चा मिलती है। लेकिन जब इन आसमानी पुस्तकों का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि मांसाहार से कहीं अधिक उनमें शाकाहारी का विवरण है। आज की सभ्य दुनिया में जब शाकाहार जीवन पद्घति बनती जा रही है, उस समय उन वस्तुओं की महिमा जान लेना आवश्यक है, जो ईश्वर ने इनसान के लिए बनाई है। साहित्य इन आसमानी पुस्तकों में दी गयी वस्तुओं की खोज करता है और मानव के स्वभाव को अधिक सहिष्णु तथा प्रगतिशील बनाता है। धर्म और प्रचारित करने वाले महापुरूषों ने किस प्रकार इस कुदरत के खजाने को ढूंढ़ा और उनके लाभों से इनसान को परिचित करवाया, यह एक अनोखी और विचित्र बात है। धार्मिक पुस्तकों के अतिरिक्त भी समय समय पर असंख्य बुंद्घिजीवी पैदा हुए, जिन्होंने अपने अनुभ्ज्ञव और अपनी खोज से कुदरत की इन बहुमूल्य वनस्पतियों से और शाक भाजी से दुनिया को परिचित करवाया।
आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्घति जब विकसित होने लगीं तब जंगल और खेजों में पैदा होने वाली इन वस्तुओं की महत्ता को आदमी ने समझा। आज औषधि जगत की बात करें तो पता चलता है कि 97 प्रतिशत दवाएं इन्हीं से बनती हैं। इसलिए एक बात स्पष्टï हो गयी है कि मांस और हाड़ किसी का पेट तो भर सकते हैं, लेकिन उसे बीमारी से छुटकारा नही दिला सकते। मांसाहार किसी के जीवन को समाप्त करता है, लेकिन शाकाहार जीवनदायी शैली है, जो कुदरत की इस सुंंदर और सजीव दुनिया को बनाए रखने में सहायक है। वास्तव में धर्म और विज्ञान में कोई अंतर नही है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक जहां समाप्त होता है वहंी दूसरा शुरू होता है। फिर भी कोई व्यक्ति केवल धार्मिक पुस्तकों को ही आधार बनाकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहता है, तब भी वह देखता है कि धार्मिक पुस्तकें उसे शाकाहारी बनने की ही सीख देती है।
इसलाम और ईसाइयत दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि आदम ने सेब का सर्वप्रथम स्वाद चखा। कुछ शास्त्रों में गेंहूं का भी उल्लेख है। मत भिन्न हो सकते हैं, लेकिन एक बात को स्पष्टï है कि दोनों ही वस्तुएं धरती की पैदावार थी। दुनिया का पहला आदमी शाकाहारी था। जिसका पिता शाकाहारी हो तो बेटे को भी शाकाहारी होना ही चाहिए। लेकिन समय के साथ अनेक बदलाव अए और मानव शाकाहारी से मांसाहारी बन गया। इसलाम से पहले के साहित्य में दुनिया की वनस्पति और जड़ी बूटियों का उल्लेख इतने बड़े पैमाने पर है कि उस पर सैकड़ों ग्रंथ लिखे गये हैं। लेकिन कुरान, जो अत्यंत विश्वसनीय और ईश्वरीय पुस्तक मानी जाती है, उसे जब पढ़ा जाता है तो पाठक आश्चर्य में पड़ जाता है। उसे यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि ईश्वर ने इनसान के लिए कितनी दुर्लभ वस्तुएं भेंट स्वरूप प्रदान की हैं। उसकी इन धरोहरों का मालिक उसे बनाया है, इसलिए उनकी रक्षा करना उसका धर्म है।
वनस्पति जगत की जब बात करते हैं तो पवित्र कुरान में केवल दूध और शहद की मात्र प्रशंसा नही है बल्कि सदियों से इनसान जिन्हें खाता आया है, उन शाक भाजियें और फल फूल एवं पत्तियों का भी वर्णन किया है।
क्रमश: