कोरोना – कहानियां आंकड़ों से नहीं बल्कि उनकी व्याख्या से निकलती हैं
हरजिंदर
सबसे पहले बात रिकवरी रेट की। मृत्यु दर अगर दो प्रतिशत के आसपास है और हम यह मान लें कि अंत तक यह इससे ज्यादा नहीं बढ़ेगी तो इसका अर्थ यह हुआ कि अंतिम रिकवरी रेट 98 प्रतिशत के आस-पास रहनी चाहिए।
आंकड़े खुद कभी कुछ नहीं कहते। तमाम कहानियां आंकड़ों से नहीं बल्कि उनकी व्याख्या से निकलती हैं। कोरोना वायरस से फैल रही कोविड-19 की महामारी का सच भी यही है। इसके आंकड़े आजकल अखबारों में कुछ उसी अंदाज में छप रहे हैं जैसे क्रिकेट विश्व कप के दौरान स्कोर छपता है। लेकिन इन आंकड़ों के पीछे क्या है यह अक्सर सामने नहीं आ पाता। हमें भारत में कोरोना वायरस के जो ताजा आंकड़े मिले हैं वे बताते हैं कि भारत में कोविड-19 के कारण मृत्युदर 1.93 प्रतिशत है जो दुनिया में सबसे कम है। इसी के साथ ही यह भी बताया गया है कि इस महामारी के प्रकोप से ठीक हो जाने वालों की दर यानी रिकवरी रेट 73 प्रतिशत पर पहुँच गई है। हालांकि दुनिया के बहुत सारे देशों से मृत्युदर की सच्चाई को छुपाने की खबरें आती रही हैं, भारत में भी कुछ लोगों ने इस तरह की बातों को उठाने की कोशिश की है, लेकिन यहां यह आरोप कोई बहुत बड़ा नहीं है। भारत के बारे में यह जरूर कहा जा रहा है कि यहां टेस्ट यानी जांच का काम बहुत कम हो रहा है इसलिए महामारी का शिकार बनने वालों की सही संख्या सामने नहीं आ पा रही है। लेकिन बाकी आंकड़ों के बारे में ज्यादा विवाद नहीं है इसलिए इन पर शक करने का कोई अर्थ नहीं। लेकिन इसके आगे ये सारे आंकड़े व्याख्या की मांग तो करते ही हैं।
सबसे पहले बात रिकवरी रेट की। मृत्यु दर अगर दो प्रतिशत के आसपास है और हम यह मान लें कि अंत तक यह इससे ज्यादा नहीं बढ़ेगी तो इसका अर्थ यह हुआ कि अंतिम रिकवरी रेट 98 प्रतिशत के आस-पास रहनी चाहिए। लेकिन अगर रिकवरी रेट फिलहाल 73 प्रतिशत है तो इसका अर्थ हुआ कि 25 फीसदी लोग अभी भी अस्पतालों में या होम आइसोलेशन में इस महामारी के प्रकोप से मुक्त होने का इंतजार कर रहे हैं।
दुर्भाग्य से हमारे पास इसके आगे के आंकड़े नहीं हैं। यानी इन 25 प्रतिशत में कितने लोग होम आइसोलेशन में हैं, कितने लोग निजी अस्पतालों में हैं और कितने लोग सार्वजनिक अस्पतालों में हमें यह सब नहीं पता। लेकिन यह अंदाज जरूर लगाया जा सकता है कि इनमें से एक बड़ा हिस्सा उस चिकित्सा प्रणाली के हवाले है जिसके बारे में यह कहा जाता रहा है कि वह भारत में हर तरह से अपर्याप्त है। आबादी के अनुपात में डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों की संख्या के लिहाज से भी, अस्पतालों और बेड्स की संख्या के लिहाज से भी और चिकित्सा उपकरणों के लिहाज से भी। पिछले कुछ समय में इस पर काफी कुछ लिखा भी गया है और इसकी खासी चर्चा भी हुई है।
इसे देखने का एक दूसरा तरीका है सक्रिय मामलों यानी एक्टिव केसेज़ की गणना करना। यानी उन मरीजों की संख्या को देखना जिन्हें कोरोना वायरस का संक्रमण हो गया और वे अभी तक उससे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों से मिलने वाले सक्रिय मामलों के आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं। इसमें सबसे अच्छी तुलना हो सकती है दिल्ली और उत्तर प्रदेश की। दोनों ही जगह कोविड-19 के कुल मामलों की संख्या लगभग बराबर है। एक समय तक दिल्ली उत्तर प्रदेश से काफी आगे थी लेकिन पिछले दो दिन में उत्तर प्रदेश दिल्ली से मामूली-सा आगे हो गया है। लेकिन उत्तर प्रदेश में दिल्ली के मुकाबले सक्रिय मामलों की संख्या पांच गुना ज्यादा है। इसे समझना ज्यादा कठिन भी नहीं है। चिकित्सा सुविधाओं के मामले में दिल्ली पहले ही काफी आगे रही है और पिछले कुछ समय में केंद्र व राज्य ने यहां जिस तरह से सहयोग किया उसके भी अच्छे नतीजे देखने को मिले हैं। दिल्ली में रेल डिब्बों को अस्पताल में तब्दील करने तक के प्रयोग किए गए, और इन सबके नतीजे भी मिले हैं।
दिल्ली और उत्तर प्रदेश की तुलना कई तरह से जायज नहीं भी है। राजधानी होने के कारण तो दिल्ली का इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर है ही साथ ही वह एक महानगर भी है। जबकि इसके मुकाबले उत्तर प्रदेश ढेर सारे गांवों, कस्बों और कुछ एक अपेक्षाकृत छोटे शहरों वाला प्रदेश है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश की तुलना हमें तमिलनाडु से करनी चाहिए। दोनों प्रदेशों में सक्रिय मामलों की संख्या लगभग समान है, तमिलनाडु में मामूली-सी ज्यादा है। लेकिन तमिलनाडु में कोरोना वायरस संक्रमण के कुल मामलों की संख्या उत्तर प्रदेश के मुकाबले दुगने से भी ज्यादा है। जाहिर है कि तमिलनाडु ज्यादा अच्छी चिकित्सा सुविधाओं के कारण सक्रिय मामलों का प्रतिशत कम करने में कामयाब रहा है। जाहिर है कि कोरोना संक्रमण के सक्रिय मामले सिर्फ कोविड-19 से संघर्ष करते मरीजों की संख्या भर ही नहीं है, बल्कि वे हर राज्य में उपलब्ध चिकित्सा सुविधाओं पर एक टिप्पणी भी हैं। इन आंकड़ों में हमें सबक देने के लिए बहुत कुछ है।