हम क्यों हो गए हैं

इतने अधीर और आतुर

– डॉ.दीपक आचार्य

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हम सारे के सारे इन दिनों जबर्दस्त अशांत, उद्विग्न और अधीर हैं। जो लोग समरांगण में हैं उनके लिए ऎसा होना वाजिब है लेकिन जो तमाशबीन हैं या जिन्हें इस रण से कोई सीधा सरोकार नहीं  है अथवा परिणामों से रूबरू होने में समय शेष है उन लोगों के लिए अधीर और इतनी तीव्रता से आतुर  होना कहाँ का न्याय है।

हम अपने सारे काम-धाम छोड़कर जुटे हुए हैं कयास लगाने में, दिन-रात उन विषयों की चर्चा करने में पूरा दम-खम लगा रहे हैं जो अभी भविष्य के गर्भ में हैं। कभी हम भविष्यवाणियों की ओर कान लगाते हैं और कभी चैनल बदल-बदल कर एग्ज़िट पोल में सर खपाते हैं। हमें यह भी अच्छी तरह पता है कि इस संक्रमण काल का यह अलाप न कोई निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है, न इसका कोई औचित्य है।  किसी रोचक उपन्यास या अन्तर्कथाओं से भरी कहानियों की तरह एक छोर से दूसरे छोर तक गुजर जाने के बाद भी कहीं कोई सूत्र न याद रह पाता है न याद रखने लायक है।

बोलने वाले और सुनने वाले, कयास लगाने वाले, दूसरों के मुँह से कुछ न कुछ उगलवा देने वाले अति-जुबान लोगों का किया कराया यह सब मायावी लोक हम सभी को श्रव्य-दृश्य के दायरों में कैद कर रहा है। हम भी सारे काम-धाम छोड़कर इन चर्चाओं में रमे रहने लगे हैं और रस लेने लगे हैं।  बीजारोपण के बाद समय आने पर ही फूल-फल लगते हैं। लेकिन हम हैं कि गर्भ में झाँक लेने की महारत हासिल करने को उतावले हो चले हैं।

हमारे भीतर अब इतना धैर्य और गांभीर्य रहा ही नहीं कि निर्धारित समय की प्रतीक्षा तसल्ली से कर पाएं। हम सब कुछ चाहते हैं आज ही, अपनी आँखों में सामने। कोई अपने बारे में अच्छा ही अच्छा सुनना चाहते हैं उनके लिए ये चर्चाएं कभी अच्छी और कभी बुरी लग सकती हैं। कुछ चाहते हैं कि जो हो रहा है वही सुनें और देखें। दिखाने और सुनाने वालों के अपने दूसरे मिथक हैं, दूसरी तरह के इफेक्ट हैं। कोई तैयार नहीं है निर्णायक घड़ी की प्रतीक्षा करने को। सभी को लगता है जैसे जो भविष्य में होने वाला है वह आज ही उनकी साक्षी में हो जाए ताकि वे अपने आँखों के सामने होने का श्रेय प्राप्त कर अर्से तक दंभ जताते रहें।

सारे के सारे चैनलों पर बस एक ही चर्चा है चुनावी गणित की। राजनैतिक पंड़ितों, ज्योतिषियों और विश्लेषकों से लेकर उन सभी लोगों को मंच मिल गए हैं जो मंच तलाशते रहे हैं और जिन्हें बोलने-बुलवाने, सुनने-सुनवाने और चाहा-अनचाहा उगलवाने में आनंद आता है। सब तरफ चर्चाओं और कयासों के एग्ज़िट पोल चल रहे हैं।  ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ की तर्ज पर  सब लोग अपनी-अपनी बातें कह रहे हैं। जिसे जो बोलना है वह बोल रहा है, जो नहीं बोलना चाहिए वह भी बोला जा रहा है।

आशाओं का दामन कोई छोड़ना नहीं चाहता। हम सभी को पता है कि इस संक्रमण काल की भाषा क्या होती है। वही सब बोल रहे हैं फिर भी हम उनके मुँह से एक ही बात बार-बार सुनाना या सुनना चाहते हैं। निरर्थक और थोथी चर्चाओं के दौर-दर-दौर आजकल सब तरफ हावी हैं।  हम दो-चार दिन भी ठहर नहीं सकते। बात अब बची ही कितने दिन की है, सब अपने आप साफ हो जाएगा। धरती से लेकर आसमाँ तक क्या होने वाला है यह समय अपने आप बता देने वाला है। लेकिन हममें सब्र नहीं है कि इस दिन का इंतजार करें।

हमारी यह अधीरता ही है जो हमें कयासों और चर्चाओं के बहाने ही सही, हमें हमारे अभीष्ट की ओर जोड़े रखती है। प्रामाणिक तौर पर जो होने वाला है वह चंद घण्टों बाद हो ही जाएगा, पर उन लोगों का क्या, जिन्हें चर्चाओं में रमे रहने में ही आनंद आता है। देश में अब उन लोगों का प्रतिशत बढ़ता रहा है जिन्हें बोलने, सुनने और देखने में ही आनंद का अनुभव होता है, फिर चाहे यह सब कुछ फालतू ही क्यों न हो। हम इन दिनों नॉन स्टॉप अधीरता और निरर्थक चर्चाओं में ही दिन-रात गुजारने के आदी हो गए हैं। ऎसा न भी करें तो आखिर हम करें क्या, यही तो वे फण्डे हैं जो टाईमपास करवाते हैं।

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