[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 17]
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बुद्ध के कथनों का बुद्ध के पश्चात क्या हुआ? उन पथों की ओर दृष्टि डालना आवश्यक हो जाता है जिसपर भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात बुद्धानुयाई चलते रहे। उन चार बौद्ध सभाओं के निष्कर्षों पर हमें दृष्टिपात करना चाहिये जिसने बौद्ध धर्म की परिपाटी बनायी। पहली बौद्ध सभा राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में सम्पन्न हुई जिसमें पाँच सौ प्रमुख भिक्षुओं ने भाग लिया। यहाँ भगवान बुद्ध के भाषणों, वार्तालापों तथा प्रवचनों को संकलित किया गया था। दूसरी बौद्ध सभा वैशाली में इसके लगभग सौ वर्ष पश्चात हुई जहाँ विचारकों के मध्य मतभेद खुल कर उजागर हुए। वैशाली के बौद्ध भिक्षुओं ने कुछ एसी प्रथाओं को मान लिया जो विनयपिटिक से विपरीत थी। अत्यधिक विवाद उत्पन्न हुआ जिसके पश्चात भिक्षु पहली बार दो भागों में विभाजित हुए पहले थे परिवर्तन पक्षीय अर्थात महासंघिक एवं दूसरे परिवर्तन विरोधी अर्थात स्थविर। तीसरी बौद्ध सभा अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में सम्पन्न हुई तथा सहमतियों की कोशिश करते हुए प्रथम दो पिटकों की धार्मिक तथा दार्शनिक व्याख्या करते हुए नये पिटक का निर्माण किया गया जिसे ‘अभिधम्मपिटक’ कहा गया। सम्राट कनिष्क के शासनकाल में चौथी बौद्ध सभा कश्मीर के कुण्डलवन मंत आयोजित की गयी; यहाँ प्रतीत होता है कि वैचारिक भिन्नताओं का महामंथन हुआ होगा किस कारण तीनो पिटकों के तीन महाभाष्यों की रचना हुई। इसी समय बौद्ध धर्म महायान तथा हीनयान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। हीनयान बुद्ध को मानव मानते हुए इस धर्म के शुद्ध एवं प्रारंभिक रूप को ही मानयता देता है जबकि महायान के संस्थापक नागार्जुन बताये जाते हैं जो बुद्ध को दिव्य आत्मा, ईश्वर अथवा ईश्वर का अवतार मानते हैं। महायान सम्प्रदाय ने मूर्तिपूजा को मान्यता प्रदान की। चतुर्थ संगति में महायान सम्प्रदाय की सर्वश्रेष्ठता की घोषणा सम्राट कनिष्क ने की थी। महायान सम्प्रदाय ने संस्कृत भाषा को अपनाया। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों में नागार्जुन, पार्श्व, अश्वघोष, वसुमित्र आदि गिने जाते हैं। महायान मत का इस तीव्रता से प्रचार हुआ कि देखते ही देखते अनुयाईयों की संख्या करोडों में पहुँच गयी। तिब्बत, चीन, जापान तथा मध्य एशिया में महायान सम्प्रदाय की व्यापक पैठ बन गयी।
यह कटु सत्य है कि राजाश्रय एवं प्रसार के अभाव तथा भव्यता-विहीनता के कारण हीनयान धीरे-धीरे व स्वत: पतनोन्मुख होने लगा था। मतभिन्नता का सिलसिला बौद्ध मतानुयाईयों में यहीं नहीं रुका अपितु मंत्रयान, तंत्रयान, वज्रयान जैसी धारायें बनती गयीं और अपनी जडों से बुद्ध के उपदेशो की मूल भावना का क्षरण होता चला गया। वज्रयान सम्प्रदाय के उद्भव के साथ ही बौद्ध धर्म में हठयोग, तंत्र-मंत्र, सुरा, सुन्दरी और भोग-विलास का प्रवेश हो गया था। जिन व्याधियों के उपचार स्वरूप बौद्ध-धर्म का पावन पदार्पण हुआ था उस में वही व्याधियाँ महामारियाँ बन कर लिपट गयीं। कई विद्वान मानते हैं कि राजाश्रय प्राप्त होने के कारण बौद्धविहारों को मिलने वाली मूल्यवान भेंटों और सम्पदा के अम्बार ने भी बुद्ध के अनुशासन के दसो नियमों से भिक्षुओं को विमुख कर दिया था तथा अनेक अवसरवादियों ने भ्रष्टाचार को इन संघों के भीतर जन्म दिया। संघों में एक केन्द्रीय सत्ता का बुद्ध के बाद अभाव हो गया था। चूँकि स्वेच्छाचारिता में संगठन की मूल भावना नहीं होती, अत: सूत्र के अभाव में बहुत से बहुमूल्य मोती माला बनने में सफल नहीं हो सके अपितु बिखरते चले गये।
यही स्थिति महावीर के पश्चात भी दृष्टिगोचर होती है। जैन आड़म्बरों से रहित एक असाधारण धर्म है जिसके सिद्धांत सरल, सुबोध तथा व्यवहारिक थे। बोलचाल की भाषा में धर्मोपदेशों ने इसे आम जन का धर्म बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी तथा समानता के सिद्धांत ने इसे मानवता की श्रेष्ठतम विरासत बना दिया। महावीर के महापरिनिर्वाण पश्चात जैन धर्म भी सम्प्रदायों में बटने लगा। बौद्धों की तरह जैनियों की भी दो महासंगतियों का उल्लेख मिलता है जिसमें मतभेदों के समंवयन का समुचित प्रयास किया गया। प्रथम जैन सभा सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई थी। इस समय जैन सिद्धांतों का बारह अंगों में संकलन किया गया। दूसरी जैन संगति 512 ई. में वल्लभी के जैन संत देवर्धिगण की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस सभा में अंगों की रचनाओं के संचयन के साथ साथ चौरासी आगमों एवं बारह उपांगों को भी संकलित किया गया। तथापि जैन मतावलम्बियों में मतभेद की पहली कड़ी आरंभ होती है जब महावीर के निर्वाण के दो सौ वर्षों के पश्चात मगध में भयानक सूखा पड़ा। इस अवस्था में अनेक साधु भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण की ओर चले गये जबकि अनेक स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गये थे। अकाल समाप्ति के पश्चात जब दक्षिण की ओर गये प्रवासी जैन लौटे तो धर्म सिद्धांतों के अनुपालन को ले कर इन दोनो वर्गों में गहरे मतभेद उभर आये। इसका निबटारा करने के लिये पाटलीपुत्र में जैन मुनियों की एक परिषद बुलाई गयी। दक्षिण से लौटे जैन साधुओं ने इसमे हिस्सा लेने से इंकार कर दिया इसके साथ ही श्वेताम्बर (मगध के जैन) और दिगम्बर (दक्षिण के जैन) दो धाराये चल पड़ी। श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र तथा दिगम्बर निर्वस्त्र रहते थे। धीरे धीरे श्वेताम्बरों में भी तीन प्रमुख उप-सम्प्रदाय बन गये – पुर्जराया, पुजेरा या डेरावासी (मूर्तिपूजक), ढुंढिया/बिस्तोला या स्थानक वासी (साधु मार्गी/गैर मूर्तिपूजक) तथा तेरा पंथी (यह पंथ 1760 ई. में भिक्खन महाराज ने चलाया था)। दिगंबर भी तीन मुख्य संप्रदाय में बँट गये – बीस पंथी (तीर्थंकरों, क्षेत्रपाल तथा भैरव आदि मूर्तियों के पूजक), तेरापंथी (केवल तीर्थंकरों की मूर्तियों के पूजक) तथा तारणपंथी या समैयापंथी (गैर मूर्तिपूजक; तारणपंथी सम्प्रदाय को पंद्रहवी शताब्दी में तारणतारण स्वामि ने चलाया था)। दिगंबरों के कम चर्चित अन्य सम्प्रदाय भी हैं जैसे गुमान पंथी, तोता पंथी आदि।
जिन युगों ने हमे अनीश्वरवाद, कर्मवाद, ज्ञानवाद, स्यादवाद, अनेकांतवाद, कारणवाद, क्षणिकवाद, यथार्थवाद, आत्मवाद, अनात्मवाद जैसे दर्शन दिये संभवत: हमने उनके मर्म को समझने का यत्न नहीं किया। बुद्ध या महावीर ने जो रास्ते बतायें उनका हमारे विवेचनावादी तर्कशास्त्रियों ने आम से इमली कर दिया। कार्ल मार्क्स ने अनीश्वरवाद से ले कर सर्वजन समानता तक एसा क्या कहा है जो बुद्ध का मार्ग नहीं है अथवा जिसे महावीर ने नहीं बताया? हम भारतीयों को अपनी ही किताबें और दर्शन को पलटने में बौनेपन का अनुभव होता है और वाद-प्रतिवाद के फैशन की ओर वे अधिक आकृष्ट होते रहे है। जो दर्शन आपकी अपनी भूमि पर, आपकी अपनी खाईयों को दृष्टिगत रखते हुए तथा आपके अपने मनोविज्ञान पर आधारित हैं वे ही आपके प्रत्येक संदेह का निवारण कर सकते हैं। हम शास्त्रार्थों को निरर्थक समझने लगे हैं; ऐसी संगतियों व सम्मेलनों का युग ही समाप्त हो गया जहाँ उपलब्ध विचारों का विमर्श व मंथन के बाद समन्वयन हो। क्यों चार संगतियों के बाद बौद्ध विचारक उसी सोच के साथ पुन: एकत्रित नहीं हुए? क्या बुद्ध के विमर्श की आज की आवश्यकता के अनुरूप विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है? तो कहाँ खोये हुए हैं दुनिया भर के बौद्ध विद्वान? क्यों उन्हें आज पाँचवी बौद्ध संगति की आवश्यकता नहीं लगती? यही प्रश्न जैन विद्वानों से कि तीसरी जैन संगति अब तक क्यों नहीं हुई, जबकि, वर्तमान अपने अनुसार दर्शन की व्याख्या चाहता हुआ महावीर की ओर उम्मीद से देखता है?
इस आलोक में शिक्षा और हमारी ग्राह्यता पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है। हमें क्या सिखाने का यत्न किया गया और हमने सीखा क्या? काश कि हमारे भीतर ही सार-सार को ग्रहण करने की क्षमता रही होती तो हर धारा के विद्वान एक दूसरे को उसकी सोच और अवधारणा के लिये सराहते, तर्क करते तथा एक दूसरे के निष्कर्षों का आदर करते पाये जाते। हमारी जडों में तू छोटा मै श्रेष्ठ इस तरह घर कर गया है कि हमने हर युग के श्रेष्ठतम को बस यूं ही नकार दिया। रटने वाला युग विमर्श नहीं कर सकता। प्रोग्रामिग की गयी पीढी फिक्स्ड आउटपुट ही प्रदान कर सकती है। इतिहास का विकृतिकरण केवल जहर ही फैला सकता है। एक प्रचलित धारणा के माधय्म से इस बात को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इतिहास की कतिपय पुस्तकों से उद्धरित किया जा सकता है कि शंकराचार्य के उत्थान के साथ ही बौद्ध और जैन मान्यतायें भारत में हाशिये पर जाने लगीं। इसके ठीक उलट महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक बौद्ध संस्कृति के पृष्ठ 67 में यह विवरण प्राप्त हुआ– “भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन दे कर बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया, इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उनके लुप्त होने के पीछे कई भ्रांतिमूलक धारणायें फैली हैं। कहा जाता है शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किंतु शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में बौद्ध धर्म लुप्त नहीं प्रबल होता देखा गया है। यह नालंदा के उत्कर्ष तथा विक्रमशिला की स्थापना का काल था। आठवी सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राजवंश स्थापित हुआ था। यही समय है जब कि नालंदा ने शांतरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किये। तंत्र मत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलतायें भले ही बढ़ रही हों किंतु जहाँ तक विहारों और अनुयाईयों की संख्या का प्रश्न है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अंत तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था। उत्तरी भारत का गहड़वार वंश केवल ब्राम्हण धर्म का ही परिपोषक नहीं था बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था…..स्वयं शंकराचार्य की जन्म भूमि केरल भी बौद्ध शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पायी थी, उसने तो बल्कि बौद्धों के ‘मंजूश्री मूलकल्प’ को रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुँचाया। वस्तुत: बौद्ध धर्म को भारत से निकालने का श्रेय अथवा अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है”। भारत के इतिहास को किस तरह इतिहास्य बनाया गया है, यह केवल एक उदाहरण भर है। आप मुझसे असहमत हो सकते हैं लेकिन अनुरोध है कि पहले दसवीं से ले कर बारहवीं तक की इतिहास पढाने वाली पाठ्यपुस्तकों को पलटिये और मिला लीजिये कितना सच है और कितना क्षेपक, कितनी निर्पेक्षता है और कितनी विचारधारा। [अगली कड़ी में जारी……..]
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