नालंदा गेट परीक्षा और आईना
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 18]
———————आज ली जाने वाली गेट (GATE) परीक्षा का मुख्य उदेश्य विद्यार्थियों की गुणवत्ता का इस दृष्टि से परिक्षण और मुल्यांकन करना है कि क्या वे भारत के श्रेष्ठतम संस्थानों में उच्चतर अध्ययन के लिए योग्य हैं अथवा नहीं। माना कि आपका बालक मेधावी है, उत्तीर्ण हुआ, वह बहुत अच्छे शिक्षा-संस्थान में प्रवेश पा गया, उसके बाद? अब दोहन का सिलसिला आरम्भ होता है। शिक्षा-लोन उठाया जाता है, घर-बार बेचे जाते हैं, जमीन-गहने गिरवी रखे जाते हैं चूंकि केवल स्कूली ही नहीं उच्च शिक्षा भी ऐसी दूकाने बन गयी हैं जहाँ खरीददारी के लिये निचले तबके की औकात तो छोडिये देश के मध्यमवर्ग को अपनी जेबें कुतर कर भी आसानी से अपनी पीढी के लिये प्राप्त करना सम्भव नहीं। इसी आलोक में अब थोडा पीछे लौटते हैं और उस गेट परीक्षा की बात करते हैं जो कभी नालंदा विश्वविद्यालय में ली जाती थी। रेखांकित करें कि मैं वर्तमान की नहीं अपितु चौथी सदी से मध्य युग तक अस्तित्व में रहे उस विश्वविद्यालय की बात कर रहा हूँ जहाँ प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी को गेट परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती थी। आज यह बात कल्पना से परे लग सकती है।अपने यात्रावृतांत में प्राचीन नालंदा विश्वविधालय का विवरण प्रदान करते हुए चीनी यात्री ह्वेनसांग बताते हैं कि विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर प्रवेश परीक्षा जी जाती थी। नालंदा विश्वविद्यालय की चारों दिशाओं में द्वार अथवा गेट थे जिसपर विद्वान द्वारपाल के रूप मे आसीन किये गये थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश का इच्छुक छात्र कतार बद्ध हो कर द्वार तक पहुँचता। अब उसे द्वरपाल द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देने अनिवार्य थे। द्वारपाल आगंतुक छात्र के मनोविज्ञान को विश्लेषित करता, उसकी सीखने की आकांक्षा की विवेचना करता और यदि योग्य पाता तब भीतर आने की आज्ञा प्रदान करता था। आप इस दृष्टि से भी समझ सकते हैं कि जिस विश्वविद्यालय का द्वारपाल भी इतना अधिक विद्वान रहा करता होगा कि उसके विवेक के आधार पर छात्रों के प्रवेश सुनिश्चित किये जायें तो यह मान सकते हैं कि भीतर शिक्षकों के ज्ञान का स्तर कितना विस्तृत रहा होगा? हमारे आज के एंटरेंस टेस्ट, हजारों लोगों को पुलविद्ध्वंसक अभियंता और धन-चूषक चिकित्सक बनाने में लगे हैं क्योंकि शिक्षा और साधना के बीच के अंतर को समाप्त कर हमने बाजार को द्वारपाल बना दिया है।केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ते हुए हमे एक गीत सिखाया गया था – “तक्षशिला-नालंदा का इतिहास लौट कर आयेगा”। आज हालात यह हैं कि इतिहास तो लौट कर नहीं आया इसके उलट हमारे शिक्षा संस्थान खण्डहर हो गये। ऑक्सफोर्ड और हावर्ड की ओर ताकते ताकते हम अब अपनी ही जडों पर मठा डालने लगे हैं। भारत का एक हांफता हुई राज्य बिहार, जिसकी राजधानी पटना से प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष लगभग सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ अध्ययन-अध्यापन के विवरणों को ध्यान से समझें तो हमारा सारा मॉर्डन एज्युकेशन सिस्टम कालूराम का फटा ढोल दिखाई पडता है। उस दौर में विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्ति के बाद विद्यार्थियों को आचार, विचार और व्यवहार की शुद्धता के साथ अध्ययन करना अपेक्षित था। कितने लोग जानते हैं कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलविद आर्यभट्ट एक समय में नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी अब भी उपलब्ध है वे हैं – दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। उन्होंने आर्यभट्ट सिद्धांत की भी रचना की थी किंतु वर्तमान में उसके केवल चौतीस श्लोक ही उपलब्ध हैं। इक्कीसवी सदी में हमारे विश्वविद्यालय नालंदा की तुलना में किस पायदान पर खड़े हैं यह गहरी विवेचना का विषय है।नालंदा विश्वविद्यालय के अंतर्गत सात बड़े कक्ष और तीन सौ अन्य अध्यापन कक्षों के विषय में जानकारी मिलती है। केवल छात्रावासों को ही देखा जाये तो आज की व्यवस्थायें पानी भरने लगें; छात्रावास कक्ष में सोने के लिए पत्थर की चौकी, अध्ययन के लिये प्रकाश व्यवस्था, पुस्तक आदि रखने का स्थान निर्मित था। अधिक वरिष्ठता पर अकेला कमरा था कनिष्ठता की स्थिति में एक वरिष्ठ और एक कनिष्ठ छात्र को एक कमरा साथ दिया जाता था जिससे कि नये विद्यार्थी को मार्गदर्शन मिल सके। हम सहयोग की अपेक्षा पश्चिम से तलाश कर वहाँ की बीमारी रैगिंग को अपने शिक्षण संस्थानों में ले आये हैं। जब आरंभ ही अविश्वास और तनाव के साथ होता है तो विद्यार्थियों मे भविष्य में किसी तरह के सहयोग और सामंजस्य की कल्पना कैसे की जा सकती है? इसके अलावा शेष व्यवस्थायें सामूहिक थी जैसे प्रार्थना कक्ष, अध्ययन कक्ष, स्नान, बागीचे आदि। निरंतर विद्वानों के व्याख्यान चलते रहते थे तथा विद्यार्थी अपनी शंका के समाधान के लिये तत्पर अपने अध्यापकों के साथ जुटे रहा करते थे। बौद्ध धर्म से इस शिक्षण संस्थान के प्रमुखता से सम्बन्ध होने के पश्चात भी यहाँ हिन्दू तथा जैन मतों से संबंधित अध्ययन कराये जाने के संकेत मिलते हैं। साथ ही साथ वेद, विज्ञान, खगोलशास्त्र, सांख्य, वास्तुकला, शिल्प, मूर्तिकला, व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम में शामिल थे। अब बात शिक्षा के लिये ली जाने वाली फीस की भी कर लेते हैं। द्वार पर परीक्षा लेने के पश्चात भीतर प्रवेश करने वाले विद्यार्थी का दायित्व विश्वविद्यालय और राज्य का हुआ करता था। नि:शुल्क शिक्षा आज का सपना हो सकती है लेकिन एक समय यह चरितार्थ की गयी वास्तविकता है। शिक्षक और विद्यार्थी का भरण-पोषण तथा अन्य व्यवस्थायें आसपास के गाँव तथा शासन व्यवस्था द्वारा सुनिश्चित किये जाते थे। लगभग दो सौ गाँव आपस में मिल कर नालंदा विश्वविद्यालय की अर्थ-व्यवस्था संचालित करते थे इस लिये शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क प्रदान की जाती थी। शिक्षा भी कोई आम नहीं अपितु विश्व में श्रेष्ठतम।यह माना कि बख्तियार खिलजी ने नालंदा को ध्वस्त किया। आज हम क्या कर रहे हैं? क्या हम स्वयं आज के दौर के बख्तियार खिलजी नहीं हैं? केवल दोष दे कर दायित्वों से बच नहीं सकते। हम अपने सामने उपस्थित उदाहरणों से क्यों नहीं सीखते और क्यों उसे नीतियों में प्रतिपादित करने की पहल नहीं करते? क्या हमारे पास प्रतिभावान छात्रों की कमी हैं? उत्तर है – नहीं। हाँ हमारे पास साधन सम्पन्न प्रतिभाओं की अवश्य कमी है। हमारे अधिकांश बच्चे अच्छी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश कर ही नहीं सकते। जितनी एक बार की फीस है उतनी तो कई पिताओं की जीवन भर की तनख्वाह है। पैट्रोल, डीजल और पूंजीपतियो की बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों को चलाने के लिये छूट देने वाली सरकारें शिक्षा को अनिवार्य और मुफ्त करने की पहल क्यों नहीं करती? टैक्स लेना है तो लीजिये हर नागरिक से अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिये टैक्स। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आधापेट की आमदनी वाला आदमी भी कुछ न कुछ अनुदान अवश्य देगा अगर उसके बच्चे के लिये एक बेहतर शिक्षा की आहट भी बनती हो। समाज से लीजिये अपने बच्चों की शिक्षा का पैसा न कि व्यक्तियों से तथा एक बेहतर प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अलग अलग संस्थानों में आने वाले विद्यार्थियों का भविष्य उनका रंग, लिंग, जाति या धर्म देखे बिना तय कीजिये। समाज के सामूहिक योगदान से शिक्षित हुए युवकों को समाज के प्रति अपने दायित्व का बोध भी इसी प्रकार होगा। अगर शिक्षा को बाजार ही बना दिया तो हममें और खिलजी में क्या अंतर रह जाता है? अगर हम किसी भी तरह नालंदा जैसी शिक्षण व्यवस्थाओं को आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के साथ जोड़ पाये तो एक नहीं लाखों आर्यभट्टों की भारत भूमि बन सकती है; वरना हम भी अक्षम्य अपराधी कहलायेंगे। कोई हमारे सामने आईना रखेगा?
[अगली कड़ी में जारी……..]
– ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका