बैंगलुरू जैसी घटनाओं को अंजाम देने का कारण राजनीति का विचलन भी है
ललित गर्ग
महात्मा गांधी के देश में यदि बैंगलुरू जैसी हिंसा होती है तो हमें प्रशासन का एक नया ढांचा विकसित करना होगा, जो लोगों की बात सुनता हो, जिसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और जो धर्म, सम्प्रदाय एवं जातिगत भावना से आजाद हो।
बैंगलुरू में फेसबुक पर एक विवादास्पद पोस्ट के बाद एक धर्म विशेष के उपद्रवी तत्वों ने हिंसक तांडव किया और उसी धर्म के कुछ युवकों ने वीरतापूर्वक एक मन्दिर को क्षतिग्रस्त करने से रोका और उसकी सुरक्षा में चक्रव्यूह रच डाला। अहिंसा एवं सर्वधर्म सद्भाव के इस अनुकरणीय उदाहरण वाले राष्ट्र में जब भी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर राजनीतिक दल हिंसा भड़काने का काम करते हैं, तब भारतीयता बदनाम होती है। जबकि यह बार-बार जाहिर हो चुका है कि स्वतन्त्र भारत में किसी भी समस्या का हल किसी भी तौर पर हिन्दू-मुस्लिम नजरिया नहीं हो सकता। इस देश की हर समस्या का हल केवल और केवल सौहार्द, प्रेम, सहजीवन व करुणा के मार्ग से ही निकलता रहा है और भविष्य में भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ता हुआ हिन्दुस्तान तरक्की की नई सीढ़ियां चढ़ेगा।
गांधी के देश में यदि बैंगलुरू जैसी हिंसा होती है तो हमें प्रशासन का एक नया ढांचा विकसित करना होगा, जो लोगों की बात सुनता हो, जिसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो और जो धर्म, सम्प्रदाय एवं जातिगत भावना से आजाद हो। साम्प्रदायिक संकीर्णता एवं धार्मिक उन्माद अकेली ऐसी बुराई है, जो सारे सिस्टम को तबाह कर देती है। बैंगलुरू जैसी हिंसक घटना की पृष्ठभूमि में पूरे प्रशासन तन्त्र को व्यापक शान्ति अभियान चला कर मुजरिमों को कानून के हवाले करना चाहिए और उन मुस्लिम नौजवानों को शान्ति दूत घोषित करते हुए उनके उन प्रयत्नों को जिसमें उन्होंने धार्मिक उन्माद में होश खोये हुए अपने ही समुदाय के युवकों को हिंसा एवं उपद्रव करने से रोका, की प्रेरणा को जन-जन के बीच पहुंचाते हुए साम्प्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाना चाहिए। इन त्रासद एवं राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाली घटनाओं का मुकाबला करने में कानून के रक्षकों के साथ-साथ नागरिक संगठनों की भूमिका को भी महत्व एवं मान्यता देनी चाहिए। क्योंकि समाज एवं राष्ट्र में ऐसी कट्टर एवं राष्ट्र-विरोधी ताकतें निरन्तर सक्रिय हैं जो ”न्याय हो” का नारा देकर बदले की भावना को साफ नीयत का जामा पहना रहे हैं।
”वेनडेटा एण्ड जस्टिस”- बदले की भावना और न्याय के बीच विचारों के कई किलोमीटर हैं। जबकि लोकतंत्र की एक बुनियादी मान्यता यह है कि शांतिपूर्ण और वैधानिक उपायों से बदलाव लाया जा सकता है। लेकिन फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारे लोकतंत्र में कानून की धज्जियां उड़ाते हुए रह-रह कर हिंसक संघर्ष सिर उठा रहे हैं। जाति, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उठ खड़े होने वाले बखेड़े एवं हिंसक संघर्ष हमारे विकास के सबसे बड़े अवरोधक हैं। इसीलिए हिंसक संघर्षों की वजह को समझा जाना जरूरी है। लोकतांत्रिक विकल्प न मिलने एवं राजनीतिक-धार्मिक आग्रहों के कारण लोग हिंसा का रास्ता अपनाते हैं। लेकिन भारत में लोकतंत्र की इतनी लंबी और मजबूत परंपरा के बावजूद अगर हिंसा एवं उन्मादी षड्यंत्र सफल हो रहे हैं, तो इस ट्रैंड की गहराई से पड़ताल होनी चाहिए।
बैंगलुरू का यह मसला कांग्रेस व भाजपा के बीच वाक्युद्ध का नहीं है बल्कि देश की एकता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं राष्ट्रीयता को बदनाम करने का षड्यंत्र है। कर्नाटक में बीएस येदुयुरप्पा सरकार को यह देखना होगा कि फेसबुक पर इस तरह विवादास्पद पोस्ट के बाद उपद्रवी तत्वों को इकट्ठा करने में किन लोगों और जमातों का हाथ था, किनके उद्देश्य एवं हित जुड़े थे। इस पोस्ट के बहाने कांग्रेस के एक विधायक को निशाना क्यों बनाया गया? यह पोस्ट इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी करने वाली थी। इस पोस्ट को लिखने की क्या वजह थी और इसके बाद उग्र प्रदर्शन करने में शामिल होने के लिए लोगों को इकट्ठा करने के पीछे किसका हाथ था? क्या इन लोगों में कुछ असामाजिक तत्व भी शामिल थे? क्या यह कार्य हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे एवं साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की नीयत से किया गया था? प्रथम दृष्टि में यह साजिश ही उजागर होती है। अब यह देखना होगा कि ऐसे कामों से किस संगठन या पार्टी को अन्तिम रूप से लाभ पहुंचता है? इस तरह के हिंसक संघर्षों एवं धार्मिक उन्माद को बढ़ाने की बड़ी वजह का कारण तथाकथित कट्टर ताकतों में जोर पकड़ती यह धारणा कि किसी धमाकेदार घटना से ही उनकी समस्याओं पर सरकार का ध्यान जाएगा या सरकार के घुटने तभी टिकेंगे। यह जरूरी नहीं कि ये लोग हिंसा को स्थायी तरीका मानते हों, लेकिन उन्हें लग सकता है कि एक दो बार हंगामा फायदेमंद होता है। लेकिन इसके बाद हालात इतने उलझ जाते हैं कि हिंसा का सिलसिला शुरू हो जाता है। लम्बे समय से इस तरह की हिंसक घटनाओं पर नियंत्रण कायम रहा है, इसलिये ऐसी शांति एवं सौहार्द की स्थितियों को नुकसान न पहुंचे, इसके लिये घटना की पड़ताल एवं दोषियों को सजा देना जरूरी है।
बैंगलुरू जैसी घटनाओं को अंजाम देने का कारण राजनीति का विचलन भी है। जाति, क्षेत्र और धर्म के मुद्दों को स्वार्थी राजनीति के तहत इस तरह भड़काया जाता है कि कोई न्यायसंगत फैसला ले पाना मुश्किल हो जाता है। इन मामलों में जान-बूझकर हिंसा भड़काई जाती है। मकसद होता है किसी खास वोट बैंक को अपनी तरफ मोड़ना या किसी खास वोट बैंक की सत्ता को हिलाना। यहां लोकतंत्र ही लोकतंत्र की राह में आ जाती है। सरकार के लिए इन मामलों से निपटना बेहद मुश्किल होता है। अगर एक पक्ष की बात मानी जाए, तो दूसरा उग्र हो उठता है।
बैंगलुरू की घटना का उजला पक्ष यह है कि जिस धर्म के उन्मादी लोगों ने हिंसा भड़कायी उसी धर्म के साहसी, समझदार एवं विवेकी युवकों ने उन्हें ऐसी हिंसा करने से रोका। एक तरह से भारत की संस्कृति का ‘जय घोष’ करने के लिए काफी है। यही गांधीवाद है जिसका प्रदर्शन इन युवकों ने वीरतापूर्वक किया और सिद्ध किया कि अहिंसा में हिंसा को, प्रेम में नफरत को, शांति में संघर्ष को पस्त करने की बुनियादी ताकत अल्ला ताला ने अता फरमाई है। मगर क्या गजब हुआ कि जो पुलिस स्टेशन विधानसभा से केवल दस मिनट की दूरी पर हो और मुख्यमन्त्री निवास से 12 मिनट की दूरी पर हो, उसे ही कुछ दंगाई आकर तहस-नहस कर देते हैं और यह खेल इस तरह करते हैं कि पुलिस स्टेशन में खड़े वाहनों को भी फूंक डालते हैं। बहुमंजिला पुलिस स्टेशन में इस तरह की गई विनाश लीला के समय कानून के रक्षक गहरी नींद सो रहे थे। जब वे पुलिस स्टेशनों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं, तो आम जनता की रक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
हम भूल जाते हैं कि जब भी कहीं मजहबी दंगे या फसाद अथवा दूसरे धर्म से विवाद होता है तो भारत की अन्तरआत्मा रोने लगती है क्योंकि इसका दर्शन सर्वधर्म समभाव एवं साम्प्रदायिक सौहार्द का है जिसमें आस्तिक एवं नास्तिक एक साथ फलते-फूलते रहे हैं। बैंगलुरू में जो पीड़ादायक घटना घटी उसकी जांच तो आवश्यक है जिससे स्वार्थी तत्वों के चेहरे से नकाब हटाया जा सके मगर इस शहर के उन युवकों को आदर्श मानने की भी जरूरत है जिन्होंने मन्दिर की सुरक्षा की और फसाद को फैलने से रोका। ऐसी स्थितियों के लिये ही महापुरुषों ने सदैव ”क्षमा करो और भूल जाओ” को वरीयता दी है क्योंकि प्रतिशोध की भावना परिवार, समाज, व्यापार, राजनीति एवं धर्म के क्षेत्रों में सभी स्तरों के लिये घातक है।
आज संयम को छोड़ दिया गया है, मनुष्य मर्यादा और सिद्धान्तों के कपड़े उतार कर नंगा हो गया है। पूर्वाग्रह एवं तनाव को ओढ़कर विवेकशून्य हो गया है। तबले की डोरियां हर समय कसी रहेंगी तो उसकी आवाज ठीक नहीं होगी। रक्त धमनियों में जीवन है, बाहर ज़हर। भारत का दर्शन सदैव स्वयं को देखने को कहता है। एक अंगुली दूसरे की ओर उठाने पर तीन अगुलियां स्वयं की ओर उठती हैं। परास्त करने का अर्थ नेस्तनाबूद करना नहीं बल्कि काबू में कर सही रास्ते पर लाना है। बैंगलुरू जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिये हिंसक एवं उन्मादी तत्वों पर नकेल तो डालनी ही होगी।