1912 ई. में भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लायी गयी। अंग्रेजों ने अभी तक ‘ब्रिटिश भारत’ पर कोलिकाता (कलकत्ता) से ही शासन किया था। पर वह देश के एक कोने में स्थित था, इसलिए अंग्रेजों को प्रशासनिक असुविधा तो थी ही साथ ही पूरे भारत को लूटने का काम भी दिल्ली से ही सरल होना संभव था, इसलिए दिल्ली को राजधानी बनाना आवश्यक था। तब 1911 ई. से नई दिल्ली के निर्माण का कार्य आरंभ हुआ। 1912 ई. के दिसंबर माह में ‘दिल्ली दरबार’ का आयोजन किया गया। जिसमें देश के सभी राजे रजवाड़ों को निमंत्रण पत्र दिये गये। तब ब्रिटेन का राजा जॉर्ज पंचम् यहां राजधानी का उद्घाटन करने हेतु आया। उसके सम्मान में कांग्रेस ने ‘जन-गण-मन’ का गीत रविन्द्र नाथ टैगोर से तैयार कराया। जिसे कांग्रेसियों ने बड़ी भक्ति भावना से राजा के लिए गया। इस गीत का कांग्रेसी मंचों पर शीघ्र ही विरोध होने लगा।
फलस्वरूप ‘जन-गण-मन’ के स्थान पर बंकिम जी का ‘वंदेमातरम्’ कांग्रेसी मंचों पर आ गया। ‘वंदेमातरम्’ को कांग्रेसी बड़ी तन्मयता से गाते थे।
28 दिसंबर 1923 को कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में संगीतज्ञ विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने ‘वंदेमातरम्’ पूर्व परंपरा के अनुसार आरंभ ही किया था कि कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना मियां मौहम्मद अली ये कहते हुए बैठक से बहिर्गमन कर गये कि मुसलमान ‘वंदेमातरम्’ के गायन को सहन नही करेंगे।
मौलाना के इस कृत्य को पंडित मदनमोहन मालवीय व लाला लाजपतराय सहित कई बड़े नेताओं ने राष्ट्रविरोधी और निंदनीय माना। इन नेताओं के विरोध और चेतावनी के उपरांत भी कांग्रेस ने 1931 में अपने कराची अधिवेशन में स्पष्ट कर दिया कि अल्पसंख्यकों को यदि कांग्रेस के किसी कार्यक्रम से आपत्ति है तो उसे स्थगित किया जा सकता है। यहां से ‘वंदेमातरम्’ को लेकर कांग्रेस ने मुस्लिमों का तुष्टिकरण प्रारंभ किया।
कांग्रेस की इस तुष्टिकरण की नीति ने साम्प्रदायिक अलगाव को बढ़ावा दिया। फलस्वरूप 1937 में जब प्रांतीय विधानसभाओं में ‘वंदेमातरम्’ गाया गया तो कांग्रेस के मुस्लिम सदस्यों ने उसे इस्लाम विरोधी कहकर गाने से इनकार कर दिया। 15 अक्टूबर 1937 को लीग ने अपने अधिवेशन में ‘वंदेमातरम्’ को इस्लाम विरोधी घोषित कर दिया। मियां जिन्ना ने इसमें से बुतपरस्ती की बू आने के कारण इसे मुस्लिमों के लिए अस्वीकार्य करार दिया।
कांग्रेस ने 15 अक्टूबर से 11वें दिन 26 अक्टूबर को ही घोषणा कर दी कि जहां कहीं भी राष्ट्रीय जलसों में ‘वंदेमातरम्’ गीत गाया जाए वहां इसके केवल प्रथम पद ही गाये जाएं, इसके अतिरिक्त जलसा करने वालों को यह खुली छूट होगी कि यदि वे इसे बिल्कुल न गाना चाहें तो न गायें। स्वयं गांधीजी ने जिन्ना से कहा-‘वंदेमातरम्’ की जिन पंक्तियों पर आपको आपत्ति हो, उन पर निशान लगा दें, हम उन्हें इससे निकाल देंगे।
कांग्रेस और गांधी के इस तुष्टिकरण वादी कदम की कई राष्ट्रवादी कांग्रेसियों ने भी आलोचना की। तब कांग्रेस ने सुभाषचंद्र बोस पंडित जे.एल. नेहरू, मौलाना आजाद तथा आचार्य नरेन्द्र देव जैसे लोगों को मिलाकर एक समिति बनायी, जिसे ‘वंदेमातरम्’ से उठे विवाद का निराकरण खोजना था। इनमें से सुभाषचंद्र बोस ने ‘वंदेमातरम्’ के पक्ष में अपना निर्णय दिया। जबकि शेष ने लीपापोती करने का ही रास्ता अपना लिया। उनका मानना था कि इस गीत से कुछ आपत्तिजनक पदों को हटा दिया जाए। नेहरू जी और उनके साथियों (सुभाष को छोड़कर) का मानना था कि यदि मुसलमान खुदा के सिवाय अन्य किसी को सजदा करना नही चाहते तो दुर्गा रूपी भारत माता की प्रशंसा में गीत गाने के लिए उन्हें कैसे विवश किया जा सकता है?
‘वंदेमातरम्’ अंग-भंग की शल्य चिकित्सा पर पंडित मदनमोहन मालवीय ने कहा था कि तुष्टिकरण की यह नीति ‘वंदेमातरम्’ की तरह देश के भी टुकड़े करके रहेगी। रत्नागिरि में वीर सावरकर ने कहा था-‘वंदेमातरम्’ का विरोध करने वाले इस देश के नाम, इसकी संस्कृति और इसके सम्मान को भी सहन नही कर पाएंगे। उनकी पृथकतावादी मनोवृत्ति के समक्ष झुकना भयंकर सिद्घ होगा।
परिस्थितियों ने सिद्घ किया कि मदनमोहन मालवीय वीर सावरकर की भविष्यवाणियां सच हुईं। स्वाधीन भारत में 24 जनवरी 1950 से डा. राजेन्द्र प्रसाद ने ‘वंदेमातरम्’ को राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित राष्ट्रभक्तों का प्रेरणास्रोत कहकर जन-गण-मन के समान सम्मान देने का निर्णय दिया। जिसे उस समय पूरे सदन के द्वारा करतल ध्वनि से स्वीकार किया गया। इस सबके उपरांत भी ‘वंदेमातरम्’ का विरोध करने वाले मुस्लिमों को बरगलाकर और उनकी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए राष्ट्रीय सदभाव को बिगाड़ते रहे हैं। तब ऐसी परिस्थितियों में यह पूछा जाना समयोचित ही होगा कि अब हम किधर जा रहे हैं-विखण्डन की ओर या एकता की कोई नही मिसाल कायम करने?