देश की आजादी में ऋषि दयानंद और आर्य समाज का योगदान
ओ३म्
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माना जाता है कि देश 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ों की दासता से मुक्त हुआ था। तथ्य यह है कि सृष्टि के आरम्भ से पूरे विश्व पर आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। आर्यों वा उनके पूर्वजों ने ही समस्त विश्व को बसाया है। सभी देशों के आदि पूर्वज आर्यावर्तीय आर्यों की ही सन्तानें व वंशज थे। सृष्टि का आरम्भ 1.96 अरब वर्ष पूर्व तिब्बत में अमैथुनी सृष्टि से हुआ था। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। सृष्टि में अमैथुनी सृष्टि में जो स्त्री व पुरुष उत्पन्न हुए वह सभी ईश्वर के पुत्र होने, सभी एक ही वर्ण व जाति के होने तथा किसी का कोई गोत्र आदि न होने से वेदों के अनुसार गुण, कर्म व स्वभाव से सब आर्य कहलाये। इतिहास की लम्बी यात्रा में अनेक उत्थान पतन हुए और सामाजिक ढांचा मुख्यतः विगत पांच छः हजार वर्षों में काफी तेजी से विकृतियों को प्राप्त हुआ। संसार में आज दो सौ से अधिक जितने भी देश हैं उनका इतिहास महाभारत युद्ध के बाद व विगत पांच हजार वर्षों की अवधि तक सीमित है। इस अवधि में अविद्या के कारण देश देशान्तर में वेदेतर मतों का आविर्भाव होता रहा। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों की समीक्षा की तो पाया कि मत मतान्तरों में वेदों से पहुंची हुई कुछ सत्य मान्यतायें हैं और कुछ मान्यतायें उन मतों के आविर्भाव काल में समाज में प्रचलित अविद्या पर आधारित उनके आचार्यों के विचार हैं। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक 1.96 अरब वर्षों तक भारत के कभी गुलाम व दास बनने का कोई संकेत रामायण एवं महाभारत आदि इतिहास ग्रन्थों में नहीं मिलता। वस्तुतः महाभारत काल तक वेदानुयायी आर्यों का ही पूरे विश्व पर सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य था। इस विषय में ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में लिखा है ‘सृष्टि से ले के पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे क्योंकि कौरव पाण्डव पर्यन्त यहां के राज्य और राजशासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चले थे क्योंकि यह मनुस्मृति, जो सृष्टि की आदि में हुई है, उसका का प्रमाण (मनुस्मृति का श्लोक यथा एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद् अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।) है। (इस श्लोक का अर्थ है कि) इसी आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, मलेच्छ आदि सब अपने-अपने योग्य विद्या व चरित्रों की शिक्षा लें और विद्याभ्यास करें। और महाराजा युधिष्ठिर जी के राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्धपर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे।’
देश का पतन महाभारत युद्ध के बाद वेदाध्ययन में शिथिलता के कारण हुआ। वेदाध्ययन में प्रमाद के कारण ही देश में ऋषि परम्परा बन्द हो गई और सर्वत्र अविद्या व अविद्यायुक्त मतों का प्रचार प्रसार हुआ। वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध एक वाममार्ग पन्थ भी स्थापित हुआ था जिसका व इससे मिलते जुलते सभी अविद्यायुक्त मतों का वर्णन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में किया है। देश छोटे छोटे राज्यों व रियासतों में बंटता गया। पहले देश में मुसलमान आये। उन्होंने देश में प्रचलित अन्धविश्वासों मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, जातिवाद, छुआछूत, भेदभाव आदि का सहारा लिया और देश को लूटा। यह प्रवृत्ति जारी रही और बाद में विदेशी मुस्लिम शासकों ने देश के कुछ भागों को पराधीन भी किया। देश में जघन्य अन्याय व अत्याचार किये गये। छल, बल व लोभ से आर्य हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया गया। आर्य व हिन्दुओं का सगठन छिन्न-भिन्न हो गया तथापि देश के अनेक भागों में आर्य हिन्दू राजा शक्तिशाली थे। महाराष्ट्र, राजस्थान व दक्षिण के अनेक राजा पराक्रमी रहे जिन पर विधर्मी विजय प्राप्त नहीं कर सके अपितु उनकी जो भी कोशिशें होती थी, वह विफल की जाती रही। वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा वीर गोविन्द सिंह जी आदि देश व धर्म रक्षक महापुरुषाओं का इतिहास सभी भारतीयों को पढ़ना चाहिये। इससे उन्हें अपने इन पूर्वजों की गौरव गाथाओं को जानने का अवसर मिलेगा और उन्हें जो दूषित इतिहास पढ़ाया गया उसके प्रभाव से वह बच सकेंगे।
भारत पर आठवीं शताब्दी में मुस्लिमों के आक्रमण आरम्भ हुए थे। हमारे हिन्दू राजा धर्म पारायण थे और उसी के अनुसार व्यवहार करते थे जबकि विधमी विदेशी आक्रमणकारी किसी नीति व नियम को नहीं मानते थे। अन्याय, अत्याचार तथा जघन्य हिंसा व लूटपाट करना उनका स्वभाव था। हमारी आपस की फूट एवं यथायोग्य व्यवहार की नीति न होने के कारण हमारे कुछ राजाओं को पराधीनता का दंश झेलना पड़ा। कालान्तर में यह प्रक्रिया जारी रही और अनेक छोटे छोटे राज्यों पर विदेशी लूटेरे आक्रान्ताओं का कब्जा हो गया।
मुस्लिमों के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में व्यापार आरम्भ किया। उन्होंने देश की कमजोरियांे का अध्ययन किया और अपनी राजनीतिक शक्ति के प्रसार व विस्तार की योजना को बीज रूप में लेकर काम करने लगे। उसका विस्तार ही देश पर अंग्रेज राज्य की स्थापना के रूप में सामने आया। शनैः शनैः देश के अधिकांश भागों पर अंग्रेजों का राज्य हो गया। इनके काल में भी सुनियोजित ढंग से ईसाई मत का प्रचार प्रसार किया गया और छल, बल व लोभ का सहारा लेकर लोगों को ईसाई मत में परिवर्तित किया गया। देश की जनता पर अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ रहे थे। देश के संसाधनों का शोषण व दोहन किया जा रहा रहा था। संस्कृत को भी समाप्त किया गया और लोगों को स्थाई रूप से गुलाम बनाने व उनसे प्रशासनिक कार्य कराने के लिये अंग्रेजी का प्रचलन किया गया। अंग्रेजी पढ़कर नौकरी व कुछ रुतबा प्राप्त होता था, अतः माता-पिता अपनी सन्तानों को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने लगे। यह शिक्षा हमारे देश के लोगों का अपने प्राचीन धर्म एवं संस्कृति के प्रति हीनता का भाव उत्पन्न करने के साथ विदेशी ईसाई परम्पराओं को अच्छा मानने लगी जिससे सनातन वैदिक धर्म का प्रभाव न्यून होता गया। आर्य हिन्दुओं की संख्या भी निरन्तर घटती रही। ऐसे समय में देश के विज्ञ जन असंगठित रूप से इसका विरोध करते थे जिनको दबा दिया जाता था। इन अन्याय व अत्याचारों का परिणाम ही सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था जो किन्हीं कारणों से असफल हो गया।
इस आजादी की प्रथम लड़ाई में हमें महाराणी लक्ष्मी बाई व अन्य देशभक्त आर्य हिन्दू योद्धाओं का पराक्रम व शौर्य देखने को मिलता है। अंग्रेजों की शक्ति अधिक थी। उनकी सेना भारतीय लोग भी उनके साथ थे जो अपने ही देशवासियों पर अत्याचार करते थे। यह ऐसा समय था कि अंग्रेजों ने पुलिस व सेना के भारतीय लोगों द्वारा ही भारतीयों पर अमानुषिक अत्याचार किये व कराये। हजारों की सख्यां में लोगों को अमानवीय तरीके से मार डाला गया और समाज में भय व आतंक का वातावरण उत्पन्न किया गया। सन् 1857 में ऋषि दयानन्द 32 वर्ष के युवक थे। वह इस अवधि तक देश के अनेक भागों का भ्रमण कर चुके थे और देशवासियों के बदहाल जीवन तथा अंग्रेजों के अत्याचारों से सुपरिचित थे। देश की दुर्दशा के कारणों पर भी वह चिन्तन करते थे। वह जड़ पूजा के विरोधी तो बचपन से ही थे इसलिये वह तर्क, युक्ति एवं ज्ञान के अनुरूप मान्यताओं व सिद्धान्तों को ही मानते थे। इस कारण उन्होंने देश का सुधार कैसे हो सकता है, इस पर भी तत्कालीन विद्वानों व देशभक्तों के साथ विचार किया होगा। उनके भावी विचारों को देखकर तो वह सन् 1857 की क्रान्ति में एक क्रान्तिकारी विचारों के युवक ही दृष्टिगोचर होते हैं। सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी वास्तविक क्या भूमिका थी इसके प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अनुमान से ही कहा जा सकता है कि इस आजादी की लड़ाई में उनकी सक्रिय भूमिका हो सकती है। न केवल ऋषि दयानन्द अपितु अनेक क्रान्तिकारी जिन्होंने आजादी की प्रथम लड़ाई में अपना योगदान दिया, इतिहास के पृष्ठों पर नहीं आ सके।
ऋषि दयानन्द ने प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन के बाद सन् 1860 से सन् 1863 के लगभग 3 वर्षों तक मथुरा के दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से वेदांग ग्रन्थों के अन्तर्गत शिक्षा, अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्तादि का अध्ययन किया था। विद्या पूरी होने पर उन्होंने वेदमन्त्रों के सत्यार्थ जानने व उनका जन जन मे प्रचार करने की योग्यता प्राप्त कर ली थी। विद्या पूरी होने पर गुरु विरजानन्द से उन्हें देश की परतन्त्रता व अन्धविश्वास आदि सभी समस्याओं का कारण अविद्या का प्रचलन व प्रभाव ज्ञात हुआ था। गुरुजी ने स्वामी दयानन्द को देश से अविद्या दूर करने की प्रेरणा भी की थी। इसी कार्य को उन्होंने अपने भावी जीवन में किया। वह देश देशान्तर में घूम कर सृष्टि में निहित सत्य ज्ञान व अज्ञान से लोगों को परिचित कराते थे। उन्होंने वेदों के आधार पर जन सामान्य में ईश्वर व आत्मा सहित प्रकृति का सत्य स्वरूप भी प्रचारित किया। मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष तथा वेद विरुद्ध सभी मान्यताओं को उन्होंने आर्यजाति के पतन का मुख्य कारण बताया। उन्होंने मूर्तिपूजा सहित अनेक विषयों पर स्वधर्मी पौराणिक सनातनी हिन्दुओं सहित अन्य विषयों पर विधर्मी ईसाई व मुसलमानों से भी शास्त्रार्थ व चर्चायें की थी। सभी विद्वान उनकी विद्वता का लोहा मानते थे।
वैदिक धर्म की सत्य एवं सर्वहितकारी मान्यताओं के प्रचार के लिये ही उन्होंने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में अविद्या निवारणार्थ वेदप्रचार आन्दोलन ‘‘आर्यसमाज” की स्थापना की थी। वैदिक मान्यताओं से परिचित कराने के लिये उन्होंने ‘‘सत्यार्थप्रकाश” नामक ग्रन्थ लिखा। इस ग्रन्थ में सभी वैदिक मान्यताओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। सत्यार्थप्रकाश से वेदों सहित अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों का सत्यस्वरूप जानने को मिलता है। इसकी एक अन्य प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह ग्रन्थ लोक भाषा ‘‘आर्यभाषा हिन्दी” में लिखा गया है जिसे अक्षरज्ञानी अल्प पठित मनुष्य भी पढ़ व समझ सकता है। यह विशेषता इतर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में नहीं है। वेदाध्ययन करने वाला कोई भी व्यक्ति गुलामी व दासता को पसन्द नहीं करता अपितु उससे मुक्त होने के लिये निरन्तर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रयत्नशील रहता है। सत्यार्थप्रकाश से हम ऋषि दयानन्द के स्वदेशीय राज्य की सर्वोपरि उत्तमता तथा विदेशी राज्य किसी भी स्थिति में पूर्ण सुखदायक नहीं होता विषयक देशभक्ति से पूर्ण विचारों के दर्शन करते हैं। इस विषय में सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने लिखा है ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्म होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों (अंगरेजों) का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।” इन पंक्तियों में देश को अंग्रेजी राज्य से मुक्त कराने की स्पष्ट प्रेरणा व घोषणा दृष्टिगोचर होती है।
सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वामी जी ने कहा है ‘‘जब संवत् 1914 (अर्थात् सन् 1857 में) के वर्ष में तोपों के मारे (तोपों से गोले दाग कर) मन्दिर मूर्तियां (मन्दिर व उसकी मूर्तियां) अंगरेजों ने उड़ा (नष्ट कर) दी थीं तब मूर्ति (की शक्ति) कहां गई थी? प्रत्युत (द्वारका के) बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और (अंग्रेजों की सेना से) लड़े, शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश कोई (वीर, देशभक्त और वैदिक धर्म प्रेमी) होता तो इनके (अंगरेजों के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते (देश छोड़ कर चले जाते)। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक (मूर्ति) मार खाये उस के शरणागत (अनुयायी) क्यों न पीटे जायें?’’ इन पंक्तियों में भी प्रथम आजादी की लड़ाई की पृष्ठ भूमि में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े द्वारका के बाघेर लोगों की वीरता की प्रशंसा कर देश को आजाद कराने की प्रेरणा संकेत रूप में विद्यमान है। ऐसे अनेक वचन ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों व वेदभाष्य में मिलते हैं। इनकी प्रेरणा से ही सभी ऋषि भक्त और आर्यसमाज के अनुयायियों ने देशभक्ति रूपी धर्म का धारण कर देश की आजादी में योगदान दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भंगत सिंह आदि अनेक प्रमुख देशभक्तों ने देश की आजादी की प्रेरणा ऋषि दयानन्द के जीवन एवं ग्रन्थों से ही ली थी। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जो उद्बोधन दिया है वही आजादी के आन्दोलन की प्रेरणा बना और जिसकी परिणति देश की स्वतन्त्रता के रूप में प्राप्त हुई। हमारी अपनी आन्तरिक कमजोरियों के कारण हम वैदिक धर्म व संस्कृति को भली प्रकार से प्रचारित एवं प्रसारित नहीं कर पाये जिसका कारण देश का विभाजन हुआ और हमारे लाखों भाईयों को अपना जीवन इस आजादी के बाद भी बलिदान करना पड़ा। वर्तमान में भी हमें देश की आजादी की रक्षा के लिये सत्यार्थप्रकाश पढ़कर उससे प्रेरणा लेकर धर्मरक्षा के कार्यों को करने की महती आवश्यकता है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो इतिहास सनातन वैदिक धर्मियों को कभी क्षमा नहीं करेगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य