आज का चिंतन-14/12/2013
एक जगह के तनाव
दूसरी जगह न ले जाएं
– डॉ. दीपक आचार्य
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यों देखा जाए तो तनाव मन का वहम ही होता है और यह वह वहम है जो आदमी को भीतर से भी खोखला कर देता है और बाहर से भी कमजोर कर देने वाला होता है।
तनाव हमेशा घटना सापेक्ष जरूर होते हैं लेकिन इनकी भी निश्चित अवधि हुआ करती है और कुछ समय बाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं। हम तनावों से दुःखी हो या न हों, ये तथाकथित तनाव एक निश्चित अवधि के पश्चात अपने आप समाप्त हो जाते हैं। हमें इनके खात्मे के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती।
आमतौर पर देखा यह जाता है कि आदमी अपने साथ उन तनावों को लेकर भी चलता रहता है जिनका उसकी पूरी जिन्दगी से कोई मतलब नहीं होता लेकिन एक आदत सी पड़ जाती है और वह खुद के साथ ही दूसरों के तनावों को भी साथ लेकर चलने लगता है।
तनावों के बारे में यदि यह स्पष्ट धारणा बना ली जाए कि ये सिर्फ हमें मानसिक तौर पर दुःख देने के लिए आते हैं और ऎसे में हम इनके प्रति पूरी तरह बेपरवाह हो जाएं तो फिर एक समय ऎसा आता है जब तनाव हमें दुःख देने का स्वभाव पूरी तरह से भूल जाते हैं और इनका हमारे जीवन पर कोई असर नहीं होता।
तनावों पर विजय प्राप्त करने में जो लोग कामयाब हो जाते हैं उन्हें संसार की कोई सी समस्या पीड़ित नहीं कर सकती। कई बार हम तनावों को बिना कुछ सोचे-समझे अपने आप पाल लेते हैं और उन्हें जीवन भर हमेशा साथ रखने के आदी हो जाते हैं।
कई लोग तनावों के संवाहक ही हो जाते हैं। ये लोग दुकान-दफ्तर या संस्थान के तनावों को घर ले जाते हैं और घर के तनावों का लबादा ओढ़कर कार्यस्थलों की ओर रूख कर लिया करते हैं। ऎसे में तनावों का यह परिभ्रमण आम आदमी की जिन्दगी को तबाह करने के लिए काफी होता है।
तनावों को प्रारंभिक अवस्था में ही बाय-बाय कहने की आदत डाल लेने पर इनसे मुक्ति के रास्ते अपने आप खुल जाते हैं। हर व्यक्ति को चाहिए कि तनावोंं से मुक्त रहना है तो तनावों का परिवहन न करें बल्कि जहाँ तनाव पैदा होने का कोई कारण उपस्थित होता है वहींपर तनावों को दफन करने की आदत डाल लें।
तनाव कोई वास्तविक दुःख न होकर पूरी तरह आभासी दुःख होता है जिसका अस्तित्व नहीं होता, जो अदृश्य होता है लेकिन पीड़ा उतनी ही पहुंचाता है जैसी की प्रत्यक्ष दुःख में होती है। दुःखों और पीड़ाओं को तो भुगत कर इनसे मुक्ति पायी जा सकती है किन्तु तनावों का प्रभाव काफी लंबे समय तक मन-मस्तिष्क और शरीर के लिए परेशानी का सबब बना रहता है जहाँ जीवन का आनंद गौण हो जाता है और नकारात्मक चिंतन हावी।
इन परिस्थितियों में गीता के कर्मयोग को सर्वोपरि जीवन मंत्र मानकर सब कुछ ईश्वरार्पण करते हुए जीवनयापन का संकल्प ले लिया जाए तो न तनाव रहेंगे और न ही किसी प्रकार के दुःखों का ताण्डव।
जो है, जैसा है उसे उसी रूप में प्रभु का प्रसाद मानकरआदर सहित स्वीकार करना ही आज का सबसे बड़ा युगधर्म है जो जीवन को सारे संत्रासों से मुक्ति दिलाकर आनंद का अहसास करा सकता है।