अंग्रेजी के जैंटलमैन को हिंदी के ‘भद्रपुरूष’ (भले आदमी) का समानार्थक मानने की भूल उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार रिलीजन को धर्म का पर्यायवाची मानकर की जाती है। ‘भले आदमी’ को किसी के विषय में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है जैसे वह दिमागी रूप से कमजोर हो या किसी प्रकार से भी असहाय हो। उससे कुछ अच्छे अर्थों में जैंटलमैन शब्द का प्रयोग किया जाता है। जैंटलमैन को कुछ असहाय सा या दुर्बल
पर ये दोनों शब्द ही हिंदी के ‘भद्रपुरूष’ की समानता नही रखते हैं। संस्कृत के मूल शब्द भद्र और पुरूष दोनों मिलकर ‘भद्रपुरूष’ शब्द बनाते हैं। महर्षि दयानंद ने ‘भद्र’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि चक्रवर्ती सम्राट बनकर मोक्ष की अभिलाषा करना भद्रता है। इसका अभिप्राय है कि भद्रता मनुष्य की महानता की पराकाष्ठा है। चक्रवर्ती सम्राट होकर कोई व्यक्ति मोक्ष की अभिलाषा (मुमुक्षु) करने वाला नही हो सकता। क्योंकि राजनीति के मकडज़ाल में फंसकर उससे बहुत से अनैतिक कार्यों के होने की संभावना प्रबल हो जाती है। एक ओर लौकिक जीवन का ये सत्य है तो दूसरी ओर पारलौकिक जीवन का परम लक्ष्य-मोक्ष की प्राप्ति है। दोनों में संतुलन बनाकर चलना सचमुच बड़ा कठिन है। परंतु सौभाग्य रहा है इस देश का कि यहां एक नही, दो नही, सौ नही, हजारों राजा या सम्राट ऐसे हुए हैं कि जिन्होंने राजनीति के पचड़ों से भी स्वयं को दूर रखा और ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ की तर्ज पर जब समय आया तो चुपचाप अपना राजपाट छोड़कर वनों में तपस्या के लिए चले गये। ऐसे महान राजा महाराजाओं के से जीवन वाले त्यागी तपस्वी व्यक्ति को ही ‘भद्रपुरूष’ कहा जाता है।
बात स्पष्ट है कि जब ‘भद्रपुरूष’ का संबोधन किसी के लिए किया जाता है तो समझो उसे बहुत बड़ी उपाधि दे दी गयी है। हम शब्दों से खेलते रहते हैं, हमें पता नही होता कि किसे भद्रपुरूष कहना है और किसे नही, हमें यह भी पता नही होता कि हम स्वयं भी ‘भद्रपुरूष’ कहे जाने के अधिकारी हैं या नहीं? हम भले आदमी इसलिए नहीं हो सकते हैं कि हमें दीनता का प्रदर्शन नही करना है और जैंटलमैन इसलिए नही हो सकते कि हम अपनी संस्कृति के प्रति द्रोही नही हो सकते। इसलिए हमें ‘भद्रपुरूष’ की उच्चता को अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। भद्रता का हमारा व्यवहार हो, भद्रता हमारा श्रंगार हो, भद्रता से हमें प्यार हो और भद्रता का ही सब ओर व्यापार हो तो संसार निश्चय ही स्वर्ग बन जाएगा। भद्रता एक साधना है। भद्रता हमारे जीवन की आराधना है। भद्रता लौकिक भी है और पारलौकिक भी है। भद्रता इहलोक और परलोक दोनों को सुधारने और संवारने की कसौटी है। यह एक तुला है, जो हमारे जीवन को उच्चता और तुच्छता के दो पलड़ों में तोलकर हमारा सही भार हमें बता देती है। इसलिए हमारे वेद ने दुरितों, दुखों और संपूर्ण दुव्र्यसनों से दूर रहने की कामना, प्रार्थना और याचना करना मनुष्य का धर्म स्वीकार किया। मनुष्य को बताया कि अपने भीतर के दोषों को चुन-चुनकर देखने का प्रयत्न करो और देखते रहो कि अंतर्मन के किसी भी कोने में अंधेरा ना रह जाए। इस साधना की कसौटी पर तथा तप की तुला में स्वयं को कसते रहे, तोलते रहो, भोर होगी, और हम ज्ञान के प्रकाश को खोजने में सफल हो जाएंगे। जब हम ज्ञान के प्रकाश को खोजने में सफल हो जाएंगे तभी समझना कि भद्र होने की पहली सीढ़ी को भला आदमी या जैंटलमैन बनकर प्राप्त नही किया जा सकता। अपने उच्चादर्श को या अपने हीरे को हमने स्वयं ही पत्थरों की गेंदों के बीच रखकर उन्हीं के समकक्ष मान लिया है-यह संस्कृति का अपमान नही तो और क्या है? इसलिए हमें सावधान होना चाहिए और भद्रता के सही अर्थों को समझकर उसी के अनुसार जीवन यापन करने के लिए संकल्पबद्घ होना चाहिए।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।