24 बार विदेशियों को भारत-भू से खदेडऩे वाला राणा खुमान
चित्तौड़ का नाम आते ही हर भारतीय का मस्तक गर्व से उन्नत हो जाता है। चित्तौड़ सचमुच भारत की अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा स्मारक है जहां भारत के पौरूष और शौर्य ने मिलकर इसकी मिट्टी को चंदन बना दिया है। जी हां, जिसे अपने माथे से लगाकर हर भारतीय गौरवान्वित हो जाता है, हर देशभक्त रोमांचित हो उठता है।
पूर्व के अध्यायों में हमने बप्पा रावल के शौर्य और वीरता पर प्रकाश डाला था। आज पुन: हम चित्तौड़ के दुर्ग के ‘कोष’ को खोलते हैं। यह कोष धन संपदा से निर्मित नाशवान भौतिक मुद्रा से निर्मित कोष नही है, अपितु यह कोष है इस पवित्र राजवंश की उस वीर श्रंखला का कोष जिसने इस देश को एक से बढ़कर एक कई मूल्यवान हीरे प्रदान किये। सचमुच भौतिक मुद्रा से निर्मित कोष का मूल्यांकन तो हर काल में किया जा सकता है, परंतु अपने उत्कृष्ट बलिदानों से और देशभक्ति पूर्ण कार्यों से जो लोग देश और समाज की सेवा कर जाया करते हैं, उनके उन अनुकरणीय कृत्यों का कोई मूल्यांकन नही कर पाता। हमने बप्पा रावल का उचित मूल्यांकन आज तक नही किया। इसी प्रकार का एक दूसरा मूल्यवान हीरा इस राणा वंश में राणा खुमान नामक शासक है, जो आज तक उपेक्षित और तिरस्कार पूर्ण स्थिति में रहने के लिए अभिशप्त है।
राणा खुमान के विषय में प्रस्तुत यह लेख हमने पाठकों की सेवा में कर्नल टॉड की साक्षी के आधार पर तैयार किया है। कर्नल टॉड से हमें ज्ञात होता है कि राणा खुमान का चित्तौड़ पर शासन 812 ई. से 836 ई. तक रहा। वह एक प्रतापी शासक था। ‘खुमान रासो’ नामक ग्रंथ से हमें ज्ञात होता है कि राणा खुमान के समय में मेवाड़ पर एक मुस्लिम आक्रांता ने आक्रमण किया था, जिसे असफल कर दिया गया था।
कर्नल टॉड की साक्षी
कर्नल टॉड लिखता है-‘मेवाड़ के इतिहास में राणा खुमान का नाम बहुत प्रसिद्घ है। उसी के शासनकाल में मुसलमानों ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और आक्रमणकारियों ने चित्तौड़ को घेर लिया। चित्तौड़ की रक्षा करने के लिए अनेक राजपूत राजा (राणा खुमान के नेतृत्व में राजपूत राजाओं ने अपना संघ बनाया और विदेशी आक्रामक को खदेडऩे के लिए युद्घ के मैदान में आ डटे) युद्घ के मैदान में युद्घ करने हेतु आ उपस्थित हुए। राजा खुमान ने आक्रमणकारी सेना का सामना बड़ी बुद्घिमानी के साथ किया। मुस्लिम सेना की पराजय हुई। उसके बहुत से सिपाही मारे गये, और जो शेष रहे, वे युद्घ से भाग गये। राजा खुमान ने अपनी सेना के साथ उनका पीछा किया और शत्रु सेना के सेनापति महमूद को गिरफ्तार कर लिया। उसके पश्चात उसे राजपूत सैनिक चित्तौड़ ले गये।’
इस प्रकार चित्तौड़ के इस महान शासक ने विदेशी आक्रांता को चित्तौड़ के दुर्ग में हिंदुस्तान की ओर आंखें उठाने का क्या परिणाम होता है?- ये बताया।
यह महमूद कौन था? इसका निराकरण कर्नल टॉड ने यह कहकर किया है कि हारूं अलरशीद ने खलीफा बनने पर अपने विशाल राज्य को अपने बेटों में बांटा और उसने अपने दूसरे पुत्र अलमामून को खुरासान, जबूलिस्तान, सिंध और हिंदुस्तानी राज्य दिये। हारूं की मृत्यु के पश्चात अलमामून अपने भाई को पदच्युत करके हिजरी 78 सन 813 ई. में खलीफा बन गया। यह वही समय था, जब राणा खुमान चित्तौड़ का राजा था। उसी के शासनकाल में अलमामून ने जबूलिस्तान से आकर चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। ऊपर चित्तौड़ के आक्रमण में जिस महमूद का नाम लिखा गया है और जिसे चित्तौड़ के राजा खुमान ने पराजित करके कैद कर लिया था, वह यही मामून था जिसका नाम लिखने वालों की भूल से महमूद लिखा गया है।’
कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि इस आक्रमण के पश्चात बीस वर्ष तक मुसलमानों ने भारत में कहीं पर भी आक्रमण नही किया। उनका प्रभाव भारत के छुटपुट विजित क्षेत्रों पर भी निरंतर ढ़ीला पड़ता जा रहा था, क्योंकि भारत उन्हें निरंतर चुनौती दे रहा था और यहां उनके लिए स्थायी रूप से शांतिपूर्वक शासन करना निरंतर कठिन हो रहा था। इसलिए जिन क्षेत्रों पर मुस्लिम आक्रांताओं ने अधिकार भी कर लिया था, उनसे भी उन्हें भागने के लिए विवश होना पड़ा। कर्नल टाड हमें बताता है-‘सिंध को छोड़कर शेष सभी देश मुस्लिम आक्रांताओं के अधिकार से निकल गये थे। इन्हीं दिनों में हारूं अलरशीद का पोता मोताविकेल बगदाद के शासन का स्वामी बना। यह समय सन 850 ई. का था। मोताविकेल के पश्चात उसका पैतृक राज्य निर्बल पडऩे लगा। उस समय के पश्चात बगदाद सौदागरों के एक बाजार के अतिरिक्त और कुछ न रह गया।’
राष्ट्रीय युद्घ में सम्मिलित राजा
महमूद या मामून का सामना करने के लिए तथा उसे भारत की पवित्र भूमि से खदेड़कर बाहर करने के लिए राणा खुमान ने अपने रणनीतिक और बौद्घिक कौशल का परिचय दिया। राणा ने लगभग एक दर्जन नरेशों को अपने साथ लेकर विदेशी आक्रांता को चुनौती देने की योजना बनाई। अपनी इस योजना में राणा को सफलता भी मिली, जो राजा राणा के साथ लड़े उनमें से कुछ के नाम कर्नल टॉड ने इस प्रकार उल्लेखित किये हैं।-‘गजनी के गुहिलौत, असीर के टॉक, नादोल के चौहान, रहिरगढ़ के चालुक्य, सेतबंदर के जीरकेड़ा, मंदोर के खैरावी, मगरौल के मकवाना जेतगढ़ के जोडिय़ा, तारागढ़ के रीवर, नीरवड़ के कछवाहे, संजोर के कालुम, जूनागढ़ के यादव, अजमेर के गौड़, लोहादुरगढ़ के चंदाना, कसींदी के डोर, दिल्ली के तोमर, पाटन के चावड़ा, जालौर के सोनगरे, सिरोही के देवड़ा, गागरोन के खींची, पाटरी के झाला, जोयनगढ़ के दुसाना, लाहौर के बूसा, कन्नौज के राठोड़ छोटियाला के बल्ला, पीरनगढ़ के गोहिल, जैसलमेर के भाटी, रोनिजा के संकल, खेरलीगढ़ के सीहुर, मनलगढ़ के निकुम्प, राजौड़ के बड़ गूजर, फुरनगढ़ के चंदेल, सिकर के सिकरवार, ओमरगढ़ के जेनवा, पल्ली के पीरगोटा, खुनतरगढ़ के जारीजा, जरिगांह के खेर और कश्मीर के परिहार।’
राष्ट्रीयता की सूचक है ये सूची
भारत की पावन भूमि को पराधीनता की बेडिय़ों में जकडऩे का कुचक्र चलाने वाले विदेशी आक्रांताओं के विरूद्घ पंक्तिबद्घ हुए इन भारतीय नरेशों की कर्नल टॉड द्वारा प्रस्तुत की गयी उपरोक्त सूची उनकी राष्ट्रीयता के प्रति निष्ठा को दर्शित करती है। पूर्व के पृष्ठों पर हम ऐसे कई सैनिक गठजोड़ों की बात लिख आये हैं, जिन्होंने समय आने पर अपने निहित स्वार्थों को त्यागकर मातृभूमि की रक्षा करने को अपना सर्वोपरि कत्र्तव्य समझा। इससे यह भी सिद्घ होता है कि भारत के नरेशों ने अभी तक अपने मतभेदों को अपने तक सीमित रखने की आदर्श नीति को त्यागा नही था, और इसी लिए वे एक दूसरे पर आपत्ति आने पर तुरंत एकता का प्रदर्शन करते थे। यद्यपि शत्रु इतिहास लेखकों ने उनके इस राष्ट्रीय गुण की सर्वथा उपेक्षा की है।
24 बार पछाड़ा था विदेशियों को
कितनी गौरवमयी साक्षी है ये इतिहास की, और विश्व के किसी अन्य देश में रहने वाला अन्य कोई भी ऐसा व्यक्ति भला कौन होगा-जो अपने इतिहास में विदेशियों के प्रति ऐसे अदम्य साहस और सूझबूझ वाले नेतृत्व को देखकर बल्लियों न उछल पड़े, जब राणा खुमान जैसे शासक के विषय में यह जानकारी मिले कि उसने अपनी मातृभूमि की सुरक्षार्थ विदेशी आक्रामकों को एक दो बार नही अपितु पूरे चौबीस बार परास्त किया था।
जी, हां, कर्नल टॉड हमें यही बताते हैं कि चित्तौड़ के राणा खुमान को 24 बार विदेशियों से युद्घ करना पड़ा था। उन युद्घों में राणा खुमान ने अपने जिस शौर्य का परिचय दिया था, वह रोम के सम्राट सीजर की भांति राजपूतों के लिए अत्यंत गौरवपूर्ण है। उसके शौर्य और प्रताप ने भारत के इतिहास में राजपूतों का नाम अमर कर दिया।
राणा खुमान ने अपने शौर्य से स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता केवल बलिदानों को ही नही चाहती है, अपितु स्वतंत्रता को सूझबूझ भरी नेतृत्व क्षमता और पारस्परिक एकता की भी आवश्यकता होती है। इसलिए राणा ने केवल बलिदानों के लिए बलिदान देने की भूल नही की, अपितु बलिदानों को अमर बनाने के लिए अपने सुयोग्य नेतृत्व का भी परिचय दिया। जब बलिदानों के उपरांत भी स्वतंत्रता की रक्षा संभव ना हो सके, तो उस समय ऐसे बलिदान मात्र बलिदानों के लिए बलिदान ही माने जाते हैं। क्योंकि ऐसे बलिदानों के पीछे अदम्य साहस तो होता है परंतु उस अदम्य साहस के साथ-साथ सूझबूझ नही होती। जिससे अदम्य साहस भी केवल अहंकार को तो पूजनीय बना जाता है, परंतु उन्हें व्यर्थ भी बना देता है। बलिदानों की ऐसी दुर्गति का काल भी भारत में आया जब केवल मरने के लिए रण रचे गये। उनका उल्लेख हम आगे करेंगे।
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम्
भर्तृहरि ने यह उचित ही कहा है कि ‘स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम्’-अर्थात संसार में जन्म लेना उसी का सार्थक है जिसके जन्म लेने से उसका वंश, देश अथवा राष्ट्र उन्नति करते हैं। राणा खुमान अपने वंश के दैदीप्यमान दिव्य दिवाकरों में से एक थे। यही कारण है कि राणा वंश में बप्पा रावल के पश्चात राणा खुमान पहले शासक हैं जिनका सबसे अधिक सम्मान मेवाड़ में आज तक होता है। क्योंकि राणा ने स्वयं को दिव्य दिवाकर के रूप में स्थापित किया और भारत के स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु अपनी प्रशंसनीय सेवाएं देकर मां भारती का सम्मान बढ़ाया।
भारत की भूमि को वीर प्रस्विनी कहा जाता है। महाभारत के युद्घ के समय माता कुंती ने भी अपने पांचों पुत्रों को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि अब वो समय आ गया है, जिसके लिए क्षत्रणियां पुत्रों को जन्म देती हैं। इसलिए युधिष्ठिर अपने भाईयों सहित युद्घ के लिए प्रस्थान करो और विजयी होकर लौटो।
कुंती ने श्रीकृष्ण के माध्यम से अपने पुत्रों तक संदेश भिजवाया था कि-‘केशव! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठर के पास जाकर इस प्रकार कहना-पुत्र! तुम्हारे-प्रजा पालन रूप धर्म की मही हानि हो रही है। तुम उस धर्मपालन के अवसर को व्यर्थ न गंवाओ।’
महाभारत की इस साक्षी से स्पष्ट है कि राजा का महत्वपूर्ण दायित्व (राजधर्म) प्रजापालन है, और यदि कोई प्रजा उत्पीड़क (दुर्योधन या मामून जैसा विदेशी आक्रामक) प्रजा की स्वतंत्रता का हनन करना चाहे, तो उसका सर्वनाश करना भी राजा का पुनीत कत्र्तव्य है। जिस देश ने प्रजा उत्पीड़क भाई के अहंकार को मिटाकर प्रजा की स्वतंत्रतार्थ ‘महाभारत’ का साज सजाया हो, उस देश के विषय में और चाहे कोई बात हो या न हो पर एक बात अवश्य है कि वह स्वतंत्रता का मूल्य भली प्रकार जानता था।
स्वतंत्रता की रक्षा-क्षत्रियों का कार्य
स्वतंत्रता की रक्षा करना क्षत्रियों का विशेष कार्य होता था। यदि कोई क्षत्रिय अपने इस कार्य में प्रमाद करता था तो उसके जन्म को उसकी माता तक भी धिक्कारती थी। महाभारत में ही आता है कि एक वीरांगनी विदुला नामक महिला का पुत्र संजय जब सिंधुराज से परास्त होकर घर आकर सो गया तो उसकी माता ने उसे धिक्कारते हुए कहा था-‘अरे तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होकर भी मुझे सुख देने वाला धर्म को न जानने वाला और शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला है, अत: मैं समझती हूं कि तू मेरी कोख से पैदा ही नही हुआ। तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नही किया, फिर तुझ जैसा कायर कहां से आ गया?’
भारत के इसी मौलिक संस्कार के कारण राजस्थान में एक वीरांगना अपनी सहेली से कहती है-
भल्ला हुआ जु मारिया बाहिणी महारा कंतु।
लज्जेजां तु वयसिआहु जई भग्गा घरूे एंतु।।
अर्थात भला हुआ जो मेरा पति (कंतु) रणभूमि में मारा गया। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्क सहेलियों में लज्जित होती।
ऐसे प्रसंगों को देखकर सचमुच कुछ समझ में आता है कि वह बात कौन सी है, जिसके कारण हमारी हस्ती मिटती नही है?
राणा खुमान ने भारत माता के ऐसे शूरमाओं में ही अपना नाम लिखाया जो भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित रहे और भारत मां के आंचल की ओर 24 बार बढ़े ‘दु:शासनों’ के हाथों को बड़ी वीरता से तोड़ दिया।
यद्यपि प्रस्तुत प्रसंग राजा जयपाल के लिए महमूद गजनवी के दरबारी कवि अंसूरी की कविता का है, परंतु यह संबोधिगीत जितना राजा जयपाल के लिए उचित है, उतना ही राणा खुमान के लिए भी है। कवि अंसूरी लिखता है-
‘तुमने सुना अवश्य ही होगा हिंदू नरेश जैपाल का चरित्र जो विश्व के शूरमाओं में सदा अग्रणी रहा। जन्नत के सितारों से कहीं अनगिनत थी जिसकी सेना, धरती के पत्थर जिनकी कर सकें नही बराबरी, वर्षा की बंदूें तो क्यों करें। उसके सैनिकों के हाथ सदा रक्त रंजित रहे तलवारें जिनकी रही दमकती भोर की लालिमा जैसी। यदि तुमने देखे होते उनके बल्लम जलती लपट जीभों जैसे, तुम यहीं बैठते कहते कि उसके निकट गया कोई भी, ज्यों नर्क की बावली या भूल भुलैंया में हो ज्यों भटका। दिमाग से उजड़ जाती थी चेतना उसके भय से और आंखें हो जाती थीं ज्योति विहीन।’
(संदर्भ इलियट एण्ड डाउसन खण्ड 4, पृष्ठ 515-516)
यह प्रशंसा नही भय था
महमूद गजनवी का कवि भारत के योद्घा का गुणगान इतने सुंदर शब्दों में करे तो यह इस्लाम की उदारता का प्रतीक नही है और ना ही भारतीय क्षात्र धर्म की प्रशंसा का है अपितु सीधे सीधे भारत के क्षत्रियों का रणनीतिक कौशल और प्रदर्शन उनके लिए भय को दर्शाने वाला है। इकबाल जैसे कवि ने भी मुसलमानों का मनोबल ये कहकर बढ़ाया कि हम तो जन्म से ही तेगों के साये में पले बढ़े हैं और खून बहाने से उन्हें कोई परहेज नही होता। पर भारत के क्षत्रिय तो मां के गर्भ में ही ‘चक्रव्यूह तोडऩे’ की शिक्षा लेकर जन्मते रहे हैं। हां, इतनी बात अवश्य है कि भारतीयों ने खून बहाने वालों का खून बहाना अपना धर्म समझा विपरीत मतावलंबी का रक्त बहाना भारतीय धर्म के विपरीत है। बड़ा निस्संदेह वही होता है जो आततायी को दंडित करे वह बड़ा नही होता जो स्वयं आततायी बन जाए।
खून बहाने वालों के भीतर राणा खुमान का आतंक था। उसे कर्नल टॉड ने भारत का सीजर ऐसे ही नही कह दिया था। उसके भीतर कुछ गुण थे, कुछ विशेषता थी जिसके कारण उसे विदेशी इतिहासकार ने ऐसी पदवी प्रदान की। राणा के प्रताप की चर्चा करते हुए कर्नल टाड ने लिखा है-‘राजा खुमान का प्रताप उसके जीवन काल में ही बहुत बढ़ गया था, और उसका प्रभाव अब तक ये है कि उदयपुर में जब कभी कोई किसी विपत्ति में आ जाता है अथवा ठोकर खाकर गिर पड़ता है, तो लोगों के मुंह से निकलता है-‘खुमान तुम्हारी रक्षा करें।’ लोगों की इन भावनाओं का अर्थ यह है कि सर्वसाधारण का राजा खुमान पर बहुत विश्वास बढ़ गया था।
सदियों के लिए किसी के नाम की चर्चा तभी होती है और तभी उसके साथ कुछ क्विदन्तियां जुड़ा करती हैं, जब उस नाम के साथ कुछ विशेष काम भी जुड़े हो, अन्यथा संसार में नित्य प्रति कितने ही लोग आ रहे हैं और जा रहे हैं, संसार सबको भूलता जाता है, किसी को ना तो स्थान देता है और ना ही सम्मान देता है।
खुमान स्थान और सम्मान का पात्र है
भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में खुमान और उसके वीर सेनानायक बहुत से सहयोगी राजा स्थान और सम्मान के पात्र हैं। उनके बलिदान और शौर्य को भारतीय स्वातंत्रय समर का कीर्ति स्तंभ बनाया जाना आवश्यक है। तभी हम अपनी युवा पीढ़ी को भारत वर्ष के वास्तविक इतिहास से परिचित करा सकते हैं।
कर्नल टॉड भारत की स्वतंत्रता प्रेमी क्षत्रिय जाति राजपूत (वस्तुत: राजपूत पूरा क्षत्रिय समाज ही है प्रचलित अर्थों में इसका अर्थ संकीर्ण कर दिया गया है, जो कि अनुचित है ) के विषय में लिखता है-‘एक वीर जाति द्वारा कई युगों (सदियों) तक समस्त प्रलोभनों के बावजूद अपने अधिकारों और राष्ट्रीय स्वतंत्रता की मरते दम तक दृढ़ता से रक्षा करना, अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का बलिदान कर देना ये बातें एक ऐसा चित्र प्रस्तुत करती हैं जिन पर विचार करने से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं…..कुछ काल तक मैं उनके बीच रहा हूं और जिन स्थलों पर परस्पर के युद्घ हुए हैं, अथवा विदेशी आक्रमणों के विरूद्घ लड़ाईयां हुई हैं, वहां मैं घूमा हूं जिससे कि उनमें मारे गये लोगों के शवदाह स्थलों पर बनाये गये कलाविहीन स्मारकों पर उनका नाम और इतिहास पढ़ सकूं।’
एक विदेशी इतिहास लेखक के मन में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति कितनी श्रद्घा है और वह उन्हें स्पष्टत: राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए मरने वाला मानता है। अत: उनके कलाविहीन स्मारकों को भी बड़ी श्रद्घा से शीश झुकाता है। उधर ये विदेशी लेखक है तो इधर हम हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के दशकों के पश्चात भी आज तक अपने स्वतंत्रता सेनानियों की सुधि नही ली है, हममें से कोई आज तक उनके स्मारकों पर धूल साफ करने तक का साहस नही कर पाया है।
किसी ने भी राजस्थान और चित्तौड़ के विभिन्न आंचलों में स्थापित इन स्मारकों पर नये स्मारक बनाने का प्रयास नही किया है। स्मरण रहे कि यह इतिहास नही मर रहा है, अपितु हम ही मर रहे हैं। अत: जिनका नाम हम भूलना चाहते हैं अच्छा हो कि उन क्रांतिकारियों के प्रति हम अपना कत्र्तव्य स्मरण करें। राणा खुमान निश्चय ही उन क्रांतिवीरों के शिरोमणि हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत