न भुलाएं आंचलिकता
– डॉ. दीपक आचार्य
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हम जिस किसी क्षेत्र में रहते हैं वहाँ की संस्कृति, सामाजिक व्यवस्थाओं, परंपराओं और परिवेशीय विलक्षणताओं की जानकारी होने के साथ ही उस क्षेत्र विशेष से संबंधित संत-महात्माओं, युगपुरुषों, महान व्यक्तित्वों, प्रेरणास्पद हस्तियों और घटनाओं आदि सभी की जानकारी का होना नितान्त जरूरी होना चाहिए।
अतीत के वैभवशाली और मेधावी युगपुरुषों के कर्मयोग, शौर्य-पराक्रम और ऎतिहासिक एवं लोकप्रचलित गाथाओं से हमें कुछ न कुछ सीखने को जरूर मिलता है। हर क्षेत्र के नामकरण से लेकर उसके भौगोलिक, आँचलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास का सीधा प्रभाव वहाँ के जनमानस पर रहता है और वह जितना अधिक प्रगाढ़ होता है उतना उस स्थान विशेष के संगठन, सामाजिक विकास और बहुआयामी तरक्की के लिए सशक्त उत्प्रेरक का काम करता है।
इसके साथ ही हर क्षेत्र की अपनी कुछ न कुछ पहचान किसी न किसी वजह से होती है और उस पहचान के सूत्र को केन्द्रीय बिन्दु मानकर यदि विकास और तरक्की के मानदण्डों को अपनाया जाए तो वह क्षेत्र जिस प्रतिष्ठा के मुकाम पर ठहरा हुआ होता है वहाँ से अपने आप आगे प्रगति करने लगता है।
इस दृष्टि से यह जरूरी होता है कि हम अपने क्षेत्र की जो पहचान है उसे बनाए रखने के लिए आत्मीय अभिरुचि और सामाजिक एवं देशज फर्ज के साथ आगे आएं और हमेशा इस प्रयास में लगे रहें कि इस पहचान के घनत्व को और अधिक शुभ्र, व्यापक एवं प्रभावी बनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, क्या कुछ होना चाहिए। यह स्थान विशेष के प्रति हमारा सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार है जिसे पूरा करने पर हमें बेहद बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं।
आज हमारी स्थिति यह हो चुकी है कि हम अपने वैभवशाली, गर्वीले और गौरवशाली अतीत को भुलाते जा रहे हैं, अपने क्षेत्र की पहचान को मिटाते जा रहे हैं, अपने इलाकों की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऎतिहासिक परंपराओं को हीन समझ कर पाश्चात्य अपशिष्टों को पवित्र मानकर अपनाते जा रहे हैं।
अपने क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण घटनाओं, विलक्षण मेधावी महापुरुषों, संत-महात्माओं, ऋषियों और तपस्वियों, समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलौकिक कर्मयोग दिखाने वाले महापुरुषों आदि सभी को भुलाकर अपनी जड़ों और तटों से दूर होते जा रहे हैं। हम आधे-अधूरे और खाली हैं, इसके बावजूद हमें पूर्णता का भ्रम सदैव बना रहने लगा है और इसका असर ये हो रहा है कि हम अपने अतीत से कट रहे हैं, अपने परिवेश से कुछ सीखना नहीं चाहते, और जो कुछ कर रहे हैं उसका न कोई स्थायी प्रभाव सामने आ रहा है, न समाज पर कोई असर हो रहा है।
जो कुछ हो रहा है वह क्षणिक चकाचौंध के सिवा कुछ नहीं है।इसका सबसे बड़ा कुप्रभाव यह हो रहा है कि हम नई पीढ़ी और अतीत के बीच सेतु की भूमिका निभा पाने में पूरी तरह विफल रहे हैं। यह वह संक्रमण काल है जिसमें हमारी भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है लेकिन हम अपने भोग-विलास और ऎश्वर्य में ऎसे डूबे हुए हैं कि हमें पता ही नहीं है कि आगे क्या होने वाला है।
हमारी इस उदासीनता और भोगवादी संस्कृति का नुकसान उस पीढ़ी को हो रहा है जिसके भरोसे हम अपना सुनहरा भविष्य देख रहे हैं। हमारी प्राचीन मान्यताओं, पौराणिक ऎतिहासिक गाथाओं और आदर्श परंपराओं में इतना दम है कि वह किसी भी पुरुष का व्यक्तित्व निखारकर उसे पुरुषोत्तम बनाने का पूरा दम-खम रखती हैलेकिन इनसे दूर रखकर हम ऎसी पीढ़ी को निर्माण कर रहे हैं जो हर दृष्टि से बेदम और गुलामी की मानसिकता से ग्रस्त है जिसे दासत्व के सिवा कुछ आता ही नहीं।
आत्मनिर्भरता और स्वयंमेव मृगेन्द्रता के सारे मूल्य हमारी नालायकी से स्वाहा होतेे जा रहे हैं। वक्त अभी पूरा गुजरा नहीं है, अपनी जड़ों को देखें, पुरखों का स्मरण करें और परंपराओं का अनुगमन करें आत्महीनता त्यागें। फिर देखें भविष्य निर्माण का वास्तविक दृश्य कैसा होता है।