अहंकारी और कुटिल व्यवहार देता है

बीमारियाँ और समस्याएँ

– डॉ. दीपक आचार्य

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जीवन का सतत प्रवाह यदि मर्यादाओं, संयम तथा अनुशासन की सीमाओं में रहकर चलता रहे तो आदमी की जिन्दगी निर्बाध रूप से संतोष और आनंद के साथ चलती रहती है और कहीं किसी मोड़ पर कोई खतरा नहीं होता। दैववशात दुर्योगों और भाग्यहीनता के अपवादों को छोड़ दिया जाए तो सृष्टि और व्यष्टि का प्रवाह उस अवस्था तक सामान्य और पारस्परिक मैत्री व सहकार का बना रहता है जब तक दोनों के बीच शुचितापूर्ण संबंध हों तथा दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में रहें।

किसी एक के भी सीमा तोड़ देने की स्थिति में जीवन और परिवेश का परंपरागत प्रवाह सातत्य विखण्डित हो जाता है तथा उसका स्थान ले लेता है असंतुलन। यह असंतुलन तत्वों से लेकर व्यक्ति के प्रत्येक तत्व व कर्म को प्रभावित करता है और इसका दुष्प्रभाव दोनों पक्षों को भुगतना पड़ता है।

ईश्वर ने जो सृष्टि बनायी है, शरीर दिया है उसका पूरा-पूरा उपयोग और उपभोग ईश्वरीय विधान तथा प्रकृति के नियमों के अनुरूप करने पर न कोई समस्या आती है, न आपदाएँ।  यह स्थिति आदर्श होती है जब मन-मस्तिष्क और शरीर अपने निर्धारित दायित्वों का निर्वहन करते हुए शरीर को सबल, सुदृढ़ और नियमित बनाए रखते हैं और यह संतुलन कर्मयोग को आनंददायी बनाते हुए हमें तनाव मुक्त रखने में मदद करता है।

हमारे तनावों और दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों के लिए अपना व्यवहार सबसे ज्यादा भूमिका अदा करता है। जिन लोगों का व्यवहार सीधा, स्पष्ट और सरल होता है उन्हें बीमारियां कम घेरती हैं, उन लोगों को तनाव भी परेशान नहीं करता है तथा इनकी जिन्दगी आसानी से कटती है।  संतोष और धैर्य से परिपूर्ण ऎसे लोग जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में ज्यादा सफल रहा करते हैं।

इसके विपरीत जो लोग अपने पद, कद और मद में डूबे हुए, अहंकारी प्रवृत्ति के, कुटिल और मनोमालिन्य से भरे हुए होते हैं, जिनका व्यवहार मानवीय संवेदनाओं से हीन होता है, अपने सहकर्मियों, कुटुम्बियों और पास-पड़ोस में रहने वाले लोगों के प्रति अनुचित होता है, जो लोग अन्याय, शोषण और अपने स्वार्थ के साथ काले कारनामों में लिप्त रहते हैं, हराम की कमाई को ही श्रेष्ठ मानते हैं, हराम का खाना-पीना करते हैं, पूरी जिन्दगी मुफत का माल उड़ाने में ही लगे रहते हैं ऎसे लोग हमेशा तनावों में रहते हैं, इनका मानसिक संतुलन अक्सर बिगड़ जाता है तथा रोजमर्रा की जिन्दगी में कई बार ऎसे मौके आते हैं जब इन्हें उन्माद या पागलपन का दौरा पड़ा हुआ देखा जा सकता है।

ऎसे लोगों को इनकी अपनी बुरी आदतों की वजह से या तो किसी न किसी नशे की लत लग जाती है अथवा मानसिक और शारीरिक बीमारियां घेर लेती हैं। ये लोग भले ही सार्वजनिक तौर पर बाहर से कितने ही भद्र, मस्त और सम्मानित नज़र आएं, इनके भीतर का पाप, तनाव और बीमारियों की वजह से ये अपने आप से खफा रहने लगते हैं और केवल दिखावे के तौर पर प्रसन्न होने या रहने का स्वाँग करते हैं।

हमारे अपने तनावों और बीमारियों का मूल कारण यह है कि हम जिन लोगों को बेवजह परेशान करते रहते हैं, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए जिन लोगों पर अत्याचार ढाते हैं, शोषण करते हैं उन सभी की, उनके परिजनों तथा परिचितों की बद दुआएं हमें लगती हैं।

इन बद दुआओं की वजह से हमारे स्थूल शरीर के चारों ओर रहने वाला सूक्ष्म शरीरी आवरण मलीन हो उठता है, वह विकृत और मैला हो जाता है और ऎसे में हमारे पाप कर्म भी हमें ठिकाने लगाने मेंं मददगार हो जाते हैं। इन सारी स्थितियों में हम पर न दवाओं का असर होता है, न किसी की दुआओं का, क्योंकि इनकी अपेक्षा बददुआओं और पापों का प्रतिशत कहीं ज्यादा होता है।

यह वह स्थिति है जिसमें हमें आत्मचिंतन करना चाहिए और अपने व्यवहार का स्वस्थ मूल्यांकन करते हुए अपने आपको सुधारने के साथ ही पुराने पापों का प्रायश्चित करना चाहिए। ऎसा करने पर ही हम मानसिक और शारीरिक व्याधियों से मुक्त हो सकते हैं वरना हमारे कुलक्षणों को देखते हुए तो लोग हमेशा हमारे लिए तब तक बददुआओं की वृष्टि करते ही रहेंगे, जब तक हम निष्प्राण न हो जाएं। अपनी गलतियों को सुधारना और पापों तथा कुकर्मो का प्रायश्चित करना कोई बुरी बात नहीं है। यह भी न कर सकें तो फिर इस दुनिया में हमारा कोई नहीं, सिवाय यमराज महाराज के अंतिम दर्शन के।

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