खिलजी को भी मिली चुनौती
बलबन के पश्चात जब जलालुद्दीन ख़िलजी सुल्तान बना तो उसके लिए भी एक से एक बढ़कर हिन्दू योद्धा एक चुनौती के रूप में खड़ा रहा । हम्मीर देव चौहान एक ऐसा ही शूरवीर हिन्दू योद्धा था , जिसने इस शासक के लिए बड़ी प्रबल चुनौती खड़ी की थी । जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई0 में रणथम्भौर के किले पर आक्रमण किया था । इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ । अनेक हिन्दू वीरों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए अपना बलिदान दिया पर रण नहीं छोड़ा । अन्त में शत्रु सेना को ही रण से भागना पड़ा । जलालुद्दीन खिलजी परास्त और लज्जित होकर दिल्ली लौट आया और फिर कभी रणथम्भौर की ओर पैर करके भी नहीं सोया । जलालुद्दीन खिलजी पर रणथम्भौर में ऐसी मार पड़ी थी कि वह सपनों में भी यही बड़बड़ाता था कि अब उधर नहीं जाऊंगा ! – – – नहीं जाऊंगा !! – – नहीं जाऊंगा !!
इसी हमीर देव चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी के सामने समर्पण कर देने के उसके प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया था और युद्ध क्षेत्र में सामना करने की हठ पर बैठ गया था । इसीलिए कवि को ‘हमीर हठ’ लिखने का अवसर मिल गया । बाद में जब अलाउद्दीन खिलजी 1296 ई0 में सुल्तान बना तो उसने भी हमीर देव चौहान से पराजय का मजा चखा था। ‘हमीर महाकाव्य’ से पता चलता है कि इस युद्ध से पूर्व उलुघ खान ने राजा के पास बहुत सा धन और अपनी पुत्री का डोला देकर सन्धि करने का प्रस्ताव रखा था , परन्तु हमीर ने इस प्रस्ताव को भी अपने लिए अपमानजनक मानकर अस्वीकार कर दिया । ‘हम्मीर महाकाव्य’ के अनुसार हम्मीर देव चौहान ने अपने पूर्वजों के सम्मान की रक्षा करते हुए सुल्तानी सेना को बड़ी वीरता से परास्त किया।
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में ही वह ऐतिहासिक घटना घटित हुई जिसमें रानी पद्मिनी ने माँ भारती के सम्मान के लिए अपनी हजारों सहेलियों के साथ जौहर रचा था और गोरा – बादल जैसे महान योद्धाओं ने अपना बलिदान देकर भारत की स्वतन्त्रता की ज्योति को और भी अधिक ज्योतित करने का सराहनीय कार्य किया था । जब वीर योद्धा गोरा की वीरांगना पत्नी को अपने पति के स्वर्गारोहण का समाचार मिला तो उसने भी जलती हुई चिता में कूदकर अपने प्राणों का अन्य कर दिया था। यह घटना 1303 ई0 की है । चित्तौड़गढ़ आज भी अपने वीर योद्धाओं और वीरांगनाओं की वीरता और उनके बलिदान की साक्षी दे रहा है । इसीलिए यह दुर्ग हर हिन्दू के लिए आज भी श्रद्धा का केन्द्र है। एक ऐसा राष्ट्र मन्दिर है , जहाँ शीश झुकाकर हर देशभक्त कृत कृत्य हो जाता है। सचमुच ऐसी रोमांचकारी घटनाओं पर किस देशभक्त का ह्रदय रोमांचित नहीं होगा ?
अलाउद्दीन 18 वर्ष तक नाकों चने चबाये थे कान्हड़ देव ने
इसी समय हमारा एक हिन्दू योद्धा कान्हड़ देव भी इतिहास के पृष्ठों पर दिखाई देता है । यद्यपि उसे समुचित स्थान इतिहास में नहीं दिया गया है , परन्तु उसका कार्य ऐसा है जिसका हर हिन्दू को अभिनन्दन करना ही चाहिए। इस वीर योद्धा ने 18 वर्ष तक अलाउद्दीन को नाकों चने चबाये थे और उसे बता दिया था कि हिन्दू अपनी स्वतन्त्रता के अपहरणकर्त्ता का कैसे सामना करते हैं ? अन्त में बहुत ही घृणास्पद षड्यंत्र के अन्तर्गत हमारे इस वीर योद्धा का अन्त अलाउद्दीन खिलजी ने कराया था , जिसमें हमारे एक ‘जयचन्द’ की भूमिका भी रही थी।
अलाउद्दीन खिलजी 1303 में चित्तौड़ को जीतने में सफल तो हो गया था , परन्तु उसके पश्चात शीघ्र ही हमारे वीर योद्धाओं का पराक्रम फिर सफलता को प्राप्त कर गया । राणा हमीर ने चित्तौड़ को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की । अलाउद्दीन खिलजी के समय में ही देवगिरि के राजा हिन्दू वीर रामदेव राय ने स्वतन्त्रता आन्दोलन जारी रखा और अलाउद्दीन खिलजी को कभी चैन से नहीं सोने दिया।
इस क्रूर और अत्याचारी खिलजी वंश का अन्त भी हिन्दू योद्धाओं ने ही किया । अलाउद्दीन खिलजी 1316 ईस्वी में मर गया । उसके बाद 1320 ई0 में उसके उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ख़िलजी का अन्त कराने में ऐसे हिन्दुओं का विशेष योगदान रहा जो हिन्दू से मुसलमान बनकर अलाउद्दीन खिलजी के शासन में उच्च पदों पर आसीन थे । परन्तु उनका मन अपने हिन्दू भाइयों के साथ रहता था । खुसरु खान नाम के एक ऐसे उच्च पदाधिकारी का योगदान विशेष रुप से सराहनीय है । उसी की सहायता से हमारे हिन्दू योद्धाओं ने महल में घुसकर खिलजी वंश के अन्तिम सुल्तान और उसके अन्य चाटुकार दरबारियों का रात में अन्त किया था ।
इस घटना को इतिहास में बताया नहीं जाता है ।पी.एन.ओक ने इस घटना पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि हमारे हिन्दू योद्धाओं ने दिल्ली को उस समय स्वतन्त्र करा लिया था । यह 1320 ई0 की घटना है।
कहना न होगा कि 1857 के जैसी क्रान्तियां इस देश में उससे पहले भी कई बार हुई हैं ।
खुसरु खान का ऐतिहासिक कार्य
खुसरु ने अपना राज्यारोहण कराया तो उसने नाम के लिए उपाधि नसीरुद्दीन की ग्रहण की , परन्तु वास्तव में उसने दिल्ली में हिन्दुज़ राज्य स्थापित किया । बर्नी ने इस सुल्तान के बारे में लिखा है कि :-“अपने सिंहासनारोहण के 5 दिन के भीतर उस तुच्छ और पतित ने महल में मूर्ति पूजा आरम्भ करा दी । हिन्दुओं ने अपने अधिकार के नशे में कुरान का कुर्सी के स्थान पर प्रयोग करना आरम्भ कर दिया । मस्जिद की ताकों में मूर्तियां रख दी गईं और मूर्ति पूजा होने लगी। हिन्दू समस्त इस्लामी राज्य में उत्पात मचा रहे थे । दिल्ली में फिर से हिन्दुओं का राज स्थापित हो गया। इस्लामी राज्य का अन्त हो गया।”
इस ‘हिन्दू क्रांति’ को इतिहास से बड़ी सावधानी से निकाल दिया गया है । हमें खुसरु और उसके सभी साथियों का इस बात के लिए हृदय से अभिनन्दन करना चाहिए कि उन्होंने अपने देश की रक्षा और स्वतन्त्रता के लिए इस ‘हिन्दू क्रान्ति’ को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया था। ध्यान रहे कि यह खुसरु खान एक हिन्दू अपह्रत लड़का था।जिसका जबरन धर्मांतरण कर उसे मुस्लिम बनाया गया था और कितनी ही बार उसे बैंतों से निर्ममतापूर्वक पीटा गया था । उन सारे घावों का प्रतिशोध लेने के लिए उसने भी यह सौगन्ध खाई होगी कि हिन्दुओं का राज्य फिर से स्थापित कर मुसलमानों को यहाँ से भगाऊँगा । वह अपने उद्देश्य में सफल तो हो गया पर फिर इकट्ठे होकर मुसलमानों ने उसका पूर्णतया सफाया कर दिया । देश के हिन्दुओं ने उसे क्या दिया ? सिवाय इसके कि उसका नाम गुमनामी में कहीं भुला दिया गया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति