हमारे देश में ऐसे लोग आपको बहुत मिल जाएंगे जो बड़ी सहजता से यह कह देते हैं कि हमारा देश एक हजार वर्ष तक विदेशी जातियों का गुलाम रहा। इतिहास के तथ्यों की पड़ताल किए बिना ऐसा कहना निश्चय ही राष्ट्र के गौरव और शौर्य के प्रति किया जाने वाला एक अक्षम्य अपराध है । इस सन्दर्भ में हमें लाला लाजपत राय जी द्वारा लिखी उनकी पुस्तक “छत्रपति शिवाजी” की प्रस्तावना में कहे गए इन शब्दों का ध्यान रखना चाहिए :- “जो जाति अपने पतन के काल में भी राजा कर्ण , गोरा- बादल, महाराणा सांगा और प्रताप , जयमल और फ़त्ता , दुर्गादास और शिवाजी, गुरु अर्जुन देव , गुरु तेग बहादुर , गुरु गोविंद सिंह और हरी सिंह नलवा जैसे हजारों शूरवीरों को उत्पन्न कर सकती है , उस आर्य हिन्दू जाति को हम कायर कैसे मान सकते हैं ? जिस देश की स्त्रियों ने आरम्भ से आज तक ऐसे उदाहरणों को प्रस्तुत किया है, जहाँ सैकड़ों स्त्रियों ने अपने हाथों से अपने भाइयों ,पतियों और पुत्रों की कमर में शस्त्र बांधे हैं और उनको युद्ध में भेजा है , देश की अनेक स्त्रियों ने स्वयं पुरुषों का वेश धारण कर अपने धर्म व जाति की रक्षा के लिए युद्ध क्षेत्र में लड़कर सफलता प्राप्त की है , अपनी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं गिराया , जिन्होंने अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए दहकती प्रचण्ड अग्नि में प्रवेश किया । वह जाति यदि कायर है तो संसार में कोई भी जाति वीर कहलाने का दावा नहीं कर सकती।”
जब तथाकथित रूप से ‘भारतवर्ष’ को मुसलमानों ने अपने अधिकार में लेकर यहाँ गुलाम वंश की स्थापना कर इतिहास के तथाकथित सल्तनत काल की नींव रखी तो उस कार्य को हिन्दू वीरों ने सहजता से ही स्वीकार नहीं किया । वे 1206 से लेकर 1526 ई0 तक (जब तक कि सल्तनत काल रहा ) निरन्तर प्रत्येक मुस्लिम सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह करते रहे ।एक दिन के लिए भी देश के किसी कोने में विदेशी आक्रमणकारी सुल्तानों को अपना शासक स्वीकार नहीं किया । इसका कारण केवल यही था कि ये विदेशी शासक भारत की संस्कृति और धर्म का विनाश करने के लिए कटिबद्ध रहे । जो शासक देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के रक्त में स्नान कराई हुई तलवार को चूमकर ही भोजन ग्रहण करने के अभ्यासी हों और जिनका शौक हिन्दुओं का रक्त पीना रहा हो , उन्हें यह वीर जाति कैसे सहन कर सकती थी ? यही कारण रहा कि हिन्दुओं ने निरन्तर अपनी वीरता के खेल जारी रखे।
जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में गुलाम वंश के पहले शासक के रूप में शासन करना आरम्भ किया तो उसने सबसे घातक कार्य इस देश के लिए यह किया कि मिहिरावली की वेधशाला का नाम उसने अपने नाम से रख दिया । जिसे हम आजकल कुतुबमीनार के नाम से जानते हैं। वास्तव में यह कुतुबमीनार ना होकर वराह मिहिर नामक हमारे महान वैज्ञानिक की वेधशाला थी । इस ऐतिहासिक स्थल के बारे में स्वयं सर सैयद अहमद खान जैसे कट्टर मुस्लिम विद्वान ने यह स्वीकार किया था कि यह स्तम्भ एक हिन्दू भवन है।
कुतुबुद्दीन ऐबक को मिली हिन्दुओं की चुनौती
कुतुबुद्दीन ऐबक के राज्यारोहण के पश्चात राजा अनंगपाल का दिल्ली का लाल कोट ( ऐसे भी प्रमाण हैं कि यह लालकोट कोई और नहीं बल्कि दिल्ली का आज का लाल किला ही है ) नामक किला हमारे लिए आज तक रहस्यमय बना हुआ है। रायपिथौरा के ऐतिहासिक भवन भी अब लगभग समाप्त हो चुके हैं , जिनसे हमारे हिन्दू हृदय सम्राट पृथ्वीराज चौहान की स्मृतियां जुड़ी हुई हैं । धर्मनिरपेक्ष शासन और उसकी नीतियां इन सभी की स्मृतियों को चाट गई हैं।
कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में जब यह पाप निशदिन किए जा रहे थे, तब हमारे हिन्दू वीरों ने एक दिन भी उसे निष्कण्टक होकर राज्य नहीं करने दिया था । पैर जमाते हुए कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का शौर्य अपनी खुली चुनौती दे रहा था । कुतुबुद्दीन ऐबक भी भारत की खड़ग से सदैव भयग्रस्त रहा। हमारे पूर्वज हिन्दू योद्धा निरन्तर बगावत करते रहे । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन संघर्षों को इतिहास में बगावत के नाम से सम्बोधित किया गया है , वह वास्तव में बगावत न होकर हमारे हिन्दू वीर योद्धाओं के स्वतन्त्रता आन्दोलन के फूंके जाने वाले बिगुल थे।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय ‘ के पृष्ठ 239 पर लिखा है कि – “मुस्लिम राज्य की गैर मुस्लिम प्रजा इस्लाम के कानून की दृष्टि में जितनी हेय समझी जाती थी , उसका अनुमान नीचे लिखे कुछ प्रतिबंधों से लगाया जा सकता है :-
1 – मुस्लिम राज्य में कोई प्रतिमालय नहीं बनाया जा सकता ।
2 – जो प्रतिमालय तोड़ दिए गए हैं उन पर नव निर्माण नहीं किया जा सकता ।
3 – कोई भी मुस्लिम यात्री प्रतिमालय में ठहरना चाहे तो बेरोकटोक ठहर सकता है ।
4 – सभी गैर मुस्लिम लोग मुसलमानों का सम्मान करेंगे ।
5 – गैर मुस्लिम प्रजा मुसलमानी पोशाक नहीं पहनेगी ।
6 – मुसलमानों के सामने गैर मुसलमान जीन और लगाम लगाकर घोड़ों पर नहीं चढ़ेंगे ।
7 – गैर मुस्लिमों के लिए तीर धनुष और तलवार लेकर चलना मना है ।
9 – गैर मुस्लिम जनता मुसलमानों के मोहल्ले में न बसे।
10 – गैर मुसलमान प्रजा अपने मुर्दों को लेकर जोर से विलाप न करे।”
ऐसी राक्षस प्रवृत्ति के राजा या सुल्तान के प्रति हमारे हिन्दू लोग किस प्रकार विद्रोही बने रहे ? – इसके बारे में डॉ. शाहिद अहमद अपनी पुस्तक ‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’ में लिखते हैं :- “कुतुबुद्दीन ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार जिन्हें गोरी ने परास्त किया था , अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को उसकी मृत्यु के बाद पुनः प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो रहे थे । 1206 ईस्वी में चन्देल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रुखाबाद तथा बदायूं में अपनी सत्ता फिर से प्राप्त कर ली थी । ग्वालियर प्रतिहार राजपूतों के हाथ में चला गया था । अंतरवेद में भी कई छोटे राज्यों ने कर देना बंद कर दिया था और तुर्कों को निकाल बाहर किया । केन वंशी शासक पूर्वी बंगाल से पश्चिम की ओर चले गए थे , पर्ण अपने राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए वह भी सचेष्ट रहे , बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारुउद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह (स्वतंत्रता संघर्ष) आरम्भ हो गया।”
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात 1210 ईस्वी में जब अल्तमस गद्दीनशीन हुआ तो उसके लिए भी हिंदू स्वतंत्रता सेनानियों की चुनौती एक गंभीर प्रश्न बनकर सामने आयी । ‘तबकात ए नासिरी’ का लेखक हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि :- “दिल्ली और उसके आसपास के स्थानीय हिंदू सरदारों ने सुल्तान की राज भक्ति स्वीकार नहीं की और विद्रोह करने का निश्चय कर लिया दिल्ली से बाहर आकर और गोलाकार रूप में एकत्रित होकर उन लोगों ने बगावत का झण्डा बुलन्द कर दिया ।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत