हमने पूर्व में इतिहासकार श्री खुर्शीद भाटी के एक लेख के संदर्भ में अपना लेख प्रकाशित किया था आज फिर उसी लेख पर आगे विचार करते हैं । श्री ख़ुर्शीद भाटी ने अपने लेख में लिखा है कि “आर्य का मूल आधार गुर्जर से ही है। द्रविड में शिव और आर्य में ब्रह्मा हैं। शिव का त्रिशूल और ब्रह्मा का स्वस्तिक चिन्ह भी सूर्य से सम्बन्धित हैं।” वास्तव में स्वस्तिक का अर्थ वेद के ‘स्वस्तिवाचनम’ से है । लेखक ने वैदिक धर्म और संस्कृति के विषय में बिना जाने ही अपने आधार पर अपनी धारणा और मान्यता को स्थापित करने का प्रयास किया है जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता । वास्तव में शिव ,स्वस्तिवाचन , स्वस्तिक , त्रिशूल आदि को गहराई से समझने की आवश्यकता है। इन्हें आर्य वैदिक संस्कृति के माध्यम से ही समझा जा सकता है।
जहाँ तक क्षत्रियों के सूर्यवंश की बात है तो इस पर श्री भाटी का कहना है कि ‘उससे आगे वंश चलते हैं जैसे कि सूर्यवंश, चन्द्रवंश और नागवंश आदि। इस वंश परम्परा में आगे चलकर सूर्यवंश में श्री राम, चन्द्रवंश में श्री कृष्ण और नागवंश में चकवाबेन हुए। इससे भी आगे गोत्र, उससे आगे वर्ण, फिर जाति और अब हम वर्ग परम्परा में चल रहे हैं।’
यहां भी लेखक ने अपनी मान्यता को जबरन हम पर थोपने का प्रयास किया है । वास्तव में सूर्यवंश की स्थापना वैवस्वत मनु के द्वारा की गई । उन्होंने सूर्य वंश की स्थापना ही क्यों की ? यदि इस पर विचार किया जाए तो इसका कारण केवल एक ही है कि भारत के आर्य लोग प्राचीन काल से ही अग्नि अर्थात उस अग्रणी देव के जो इस समस्त चराचर जगत का नियामक , नियंता और सिरजनहार है , के उपासक हैं और उसके प्रकाश स्वरूप को अपने हृदय में स्थापित कर तेज की उपासना करने वाले रहे हैं। तेज की उपासना का अर्थ है कि सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश फैल जाए। कहीं पर भी अज्ञान का अंधकार ना रहे । जहां हमारे देश में ज्ञानी , महात्माजनों और पंडितों के जीवन का उद्देश्य ज्ञान का प्रकाश करना था , वहीं क्षत्रिय वर्ग भी अपने कार्यों से ज्ञान के प्रकाश की रक्षा करने को अपना उद्देश्य मानता था । इसी रीति को स्वीकार कर महर्षि मनु के द्वारा सूर्य वंश की स्थापना की गई।
अथर्ववेद में एक मन्त्र आया है:-
भद्रमिच्छन्त: ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे।
ततो राष्टं बलमोजश्च जातं तदस्मैं देवा उपसंनमन्तु।।
(अथर्व0 19-41-1) (अथर्व0 19-41-1)
‘‘सुख शान्ति को जानने और प्राप्त करने वाले ऋ षियों ने सर्वप्रथम सुख दु:ख आदि द्वन्द्व सहन करने की क्षमता तथा किसी लक्ष्य विशेष के लिए आत्मसमर्पण ग्रहण किया। उस तप और दीक्षा के आचरण से राष्ट्रीय भावना बल और ओज से राष्ट्रीय प्रभाव उत्पन्न हुआ। इसलिए इस राष्ट्र के सम्मुख देव भी अर्थात शक्ति सम्पन्न लोग भी झुकें, अर्थात उचित रीति से इसका सत्कार करें।’’
मन्त्र हमें बता रहा है कि राष्ट्र की भावना को बलवती करने के लिए हमारे ऋ षियों ने अपने जीवन को तप और दीक्षा में ढ़ाला और तब राष्ट्र में बल और ओज की उत्पति हुई। यहाँ तप का अर्थ एकनिष्ठ होकर कर्त्तव्य का पालन करने से है, तथा दीक्षा का अर्थ आत्मनिग्रहपूर्वक धर्म सिखाने से है। दोनों बातें ही बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक के जीवन में तप और दीक्षा ही होती है। उन्ही से वह अपने विद्यार्थियों का निर्माण करता है, और उस शिक्षक के इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर विद्यार्थी राष्ट्रभक्त बनते हैं। उनमें बल और ओज का संचार होता है।
बल और ओज दोनों ही ऊर्जा की उपासना से प्राप्त होते हैं अर्थात तेज को हृदय में धारण करने से होते हैं। इसी तेज का अभिप्राय सूर्य से हैं । सूर्य हमारा धर्म नहीं है – जैसा कि श्री खुर्शीद भाटी जी ने कहा है , बल्कि सूर्य हमारे जीवन में प्रकाश भरने वाला एक लौकिक पदार्थ है। जिसे हम अपनी आध्यात्मिक चेतना में परिवर्तित कर धारण कर लेते हैं । तब हम तपस्वी ,तेजस्वी बनकर राष्ट्र की रक्षा के लिए उठ खड़े होते हैं । इसी दृष्टिकोण से महर्षि मनु ने सूर्य वंश की स्थापना की । जिसे श्री भाटी ने अपनी धारणा से अनुचित ढंग से प्रस्तुत किया है।
श्री भाटी का कहना है कि : “इन सब परम्पराओं को हम हिन्दुस्तान के इतिहास में देख रहें हैं तो सर्वप्रथम यह सब हिन्दू हैं। हिन्दू इसलिए कि यह सब हिन्दुस्तान के मूलवासी हैं। हिन्दुस्तान एक सम्यता का नाम है। इसके मूल संस्कार में एक शब्द हिन्दू है। यह शब्द हिन्दू सिंधु से उत्पन्न हुआ है। सिंधु संस्कृत शब्द है । जिसका हिन्दी में मतलब होता है नदी।”
श्री भाटी ने यहां पर बहुत उचित , तार्किक और बड़े पते की बात कही है । सचमुच ‘हिंदू’ शब्द हमारी राष्ट्रीयता से जुड़ा हुआ शब्द है । भारत का प्रत्येक व्यक्ति ‘हिंदू’ है , क्योंकि वह हिंदुस्तान का रहने वाला है । यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे अमेरिका का रहने वाला अमेरिकन , रूस का रहने वाला रूसी , चीन का रहने वाला व्यक्ति चीनी होता है । वैसे ही भारत का प्रत्येक मुसलमान भी ‘हिंदू’ है । क्योंकि हिंदू किसी वर्ग विशेष संप्रदाय को परिभाषित करने वाला शब्द नहीं है , बल्कि यह हिंदुस्तान में रहने वाले लोगों की राष्ट्रीयता का बोध कराने वाला शब्द है । इसी बात को मोहम्मद करीम छागला जैसे मुस्लिम विद्वान जजों ने भी अपने न्यायिक निर्णयों में परिभाषित किया है। निश्चित रूप से श्री खुर्शीद भाटी यदि इस मान्यता के हैं तो उन्हें भारत के मुसलमानों को भी स्वयं को हिंदू लिखने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
श्री भाटी का कथन है कि – “यूं देखा जाए तो दुनिया की सारी सभ्यताऐं नदियों की ही हैं, जैसे मिस्र नील नदी की सभ्यता, अरब दजला व फ़रात की सभ्यता, तुर्की सकारिया नदी की सभ्यता। वह एक-एक नदी पर आधारित हैं। हिन्दुस्तान में अनेक नदियाँ हैं इसीलिए इसका नाम हिन्दुस्तान है यानी नदियों का देश।”
हमें भारत के संदर्भ में यह समझना चाहिए कि भारत पहले है , हिंदुस्तान बाद में और भारत से भी पहले आर्यवर्त है । आर्यवर्त की रचना अकेली सिंधु ने नहीं की है । इसी प्रकार जम्बूद्वीप की रचना में भी अकेली सिन्धु का योगदान नहीं है , बल्कि जम्बूद्वीप में श्री भाटी के द्वारा वर्णित उपरोक्त अधिकांश नदियों के भौगोलिक क्षेत्र सम्मिलित हो जाते हैं । उस समय हमारे अनेकों वीर योद्धा यत्र – तत्र रहकर भी भारत के प्रति अपना असीम अनुराग बनाए हुए थे । जब जम्बूद्वीप सिमटने लगा तो उस समय भी विश्व के अनेक क्षेत्रों में हमारे ऐसे अनेकों भारत प्रेमी लोग वास कर रहे थे जो भारत को ही अपना मूल देश मानते थे । ऐसे भारत प्रेमी लोगों में ही हूण और कुषाण भी थे । महाभारत काल में भारत के जितने जनपद गिनाए गए हैं ,उनमें एक जनपद का नाम हूण भी है। इसी जनपद के रहने वाले लोग हूण कहलाए , तब इन्हें विदेशी कैसे माना जा सकता है ?
नदियों के नाम पर बनी जिन सभ्यताओं का वर्णन श्री भाटी ने किया है , ध्यान रहे कि आर्यावर्त व जंबूद्वीप के निर्माण से बहुत बाद में इनका इतिहास आरंभ होता है। यह भारत के गौरव पूर्ण इतिहास के टूटे-फूटे टुकड़े हैं । जिन्हें अलग-अलग स्थापित करके नहीं देखा जा सकता। बात साफ है कि भारत को समझने के लिए इसे टुकड़ों में बांट बांटकर देखने की प्रवृत्ति से हमें अपने आपको रोकना होगा। बिखरे हुए टुकड़ों को जोड़कर ‘एक’ बनाकर देखने से ही भारत को समझा जा सकेगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
सम्पादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत