ओ३म्
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आज हम जिस हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं उसका उद्भव एवं विकास विगत लगभग दो सौ वर्षों में उत्तरोत्तर हुआ दृष्टिगोचर होता है। ऋषि दयानन्द (1825-1883) के काल में हिन्दी की उन्नति हो रही थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी को हिन्दी की उन्नति करने वाले पुरुषों में प्रमुख स्थान प्राप्त है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ऋषि दयानन्द के समकालीन थे। वह अल्पायु में ही मृत्यु को प्राप्त हो गये। उनके बाद हिन्दी को साहित्यिक रूप देने व उसे समृद्ध करने के लिये अनेक कवियों, लेखकों व नाटक आदि की रचना करने वाले हिन्दी के विद्वानों का जन्म हुआ। ऋषि दयानन्द ने भारतेन्दु जी के बाल्यकाल में ही अपना हिन्दी भाषा का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर प्रचारित किया था जिसका प्रचार देश के अनेक भागों में हुआ और इसी ग्रन्थ के कारण लोगों को हिन्दू समाज के अन्धविश्वासों व कुरीतियों का दिग्दर्शन हुआ था। विलुप्त वैदिक धर्म एवं संस्कृति का अनावरण भी ऋषि दयानन्द के उपदेशों एवं उनके सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों से हुआ था।
ऋषि दयानन्द के समय में धर्माचायों को विद्या व अविद्या का भेद विदित नहीं था। सभी अपनी अविद्या को विद्या व ज्ञान मानकर अभिमान करते थे और अपने मत को उत्तम और दूसरे मतों को हेय मानते थे। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य एवं असत्य सिद्धान्तों की खोज की थी और असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों की समीक्षा कर उनका तर्क एवं युक्तियों से खण्डन कर उनका प्रचार किया। उनका मानना था कि सत्य ही मनुष्य व मनुष्य जाति की उन्नति का कारण व आधार होता है। बिना सत्य के ग्रहण किये और असत्य का त्याग किये मनुष्य जाति की उन्नति नहीं हो सकती। यह सत्य सिद्धान्त इस सृष्टि में अनादि काल से प्रवृत्त है और अनन्त काल तक रहेगा। आश्चर्य है कि इस सिद्धान्त का विज्ञान में तो उपयोग किया जाता है, सैद्धान्तिक रूप में भी किया जाता है, परन्तु मत-मतान्तर अपने अपने व्यवहारों में इसका पूर्णतः पालन नहीं करते। एक मत दूसरे मत को प्रायः हेय मानता तथा स्वमत का ही बिना सत्यासत्य का विचार किये पोषण करता है। इसी कारण से संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं जो देश व समाज की उन्नति में साधक कम तथा बाधक अधिक हंै। देश, समाज तथा व्यक्ति-व्यक्ति की उन्नति के लिए सत्य की प्रतिष्ठा एवं असत्य का त्याग किया जाना आवश्यक है। इसी सिद्धान्त को ऋषि दयानन्द ने देश व समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर प्रचार किया था और इसके लिये उन दिनों सबसे अधिक जानी व समझी जाने वाली भाषा, जिसे वह आर्यभाषा कहते थे, जो वस्तुतः वर्तमान हिन्दी के नाम से जानी जाने वाली भाषा है, प्रयोग में लाकर देश देशान्तर में प्रचार कर इसकी उन्नति में योगदान किया था। आज हिन्दी का जो उन्नत व प्रभावशाली स्वरूप तथा इसका सर्वत्र प्रचार व स्वीकारोक्ति हम देखते हैं, उसमें सर्वाधिक योगदान यदि किसी व्यक्ति व संस्था का है तो वह ऋषि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज का है।
सत्यार्थप्रकाश ऋषि दयानन्द जी की आर्य हिन्दी भाषा में रची गयी अमर रचना है। इससे पूर्व किसी मत, पंथ व सम्प्रदाय ने अपने ग्रन्थों की रचना हिन्दी में नहीं की। ऋषि दयानन्द को अपने कलकत्ता प्रवास में ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन जी से हिन्दी को अपनाने का सुझाव मिला था। इसका कारण था कि ऋषि दयानन्द इससे पूर्व संस्कृत में ही व्याख्यान देते व बोलचाल में भी संस्कृत का ही प्रयोग करते थे। उनकी संस्कृत भाषा को सामान्य जन समझ नहीं पाते थे जिससे धर्म प्रचार में एक अवरोध की स्थिति थी। ऋषि दयानन्द को अपने विचारों के अनुवाद के लिये दूभाषियों की सेवायें लेनी पड़ती थी जो ऋषि दयानन्द का पूरा आशय जनता को बताने में असमर्थ रहते थे और कुछ चालाक व विरोधी विचारों के लोग उनके आशय के विरुद्ध भी लोगों को बताया करते थे। इस दृष्टि से धर्म प्रचार को प्रभावशाली बनाने के लिये देश की जन-जन की भाषा को अपनाना आवश्यक था। ऋषि दयानन्द ने हिन्दी के महत्व को समझ कर श्री केशवचन्द्र सेन जी के प्रस्ताव को तत्काल ही स्वीकार कर लिया था और तभी से उन्होंने हिन्दी भाषा में व्याख्यान देना आरम्भ कर दिया जिसमें समय के साथ सुधार होता गया। इसी कारण उन्होंने सन् 1874 में अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की रचना भी हिन्दी भाषा में की थी। इसके 9 वर्ष बाद जब उनकी हिन्दी काफी परिमार्जित व परिष्कृत हो गई थी, तो उन्होंने इस ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का नवीन संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण भी निकाला था। यह दोनों ही संस्करण अत्यन्त उपयोगी हैं जिसे पढ़कर न केवल पाठक हिन्दी का जानकार वा विद्वान बन जाता है अपितु उसके भाषा विषयक ज्ञान में भी सुधार होता है जिससे वह संस्कृत निष्ठ हिन्दी शब्दों का प्रयोग कर हिन्दी का परिमार्जित एवं शुद्ध रूप में व्यवहार कर इसके प्रचार व प्रसार में सहयोग करता है। सत्यार्थप्रकाश को इस बात का भी गौरव है कि विश्व का बहुचर्चित एवं वैदिक धर्मी अनुयायियों का वेदों के बाद सुप्रतिष्ठित धर्मग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” लोक भाषा हिन्दी में है। सत्यार्थप्रकाश से वेद, उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति के अनेक मन्त्रों, श्लोकों व संस्कृत वचनों के हिन्दी अर्थ पहली बार प्रकाश में आये। इससे लोगों में वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों के अध्ययन की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई थी। वैदिक आर्य विद्वानों ने इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये इन सभी शास्त्रीय व इतिहास के ग्रन्थों के श्लोकों के हिन्दी अर्थों के साथ संस्करण निकाले जिससे हिन्दी का देश भर में प्रचार हुआ। यदि ऋषि दयानन्द न आये होते और उन्होंने सत्यार्थप्रकाश को हिन्दी में न लिखा होता व हिन्दी को अपनाने का आन्दोलन न चलाया होता, तो आज हम हिन्दी की जिस सन्तोषजनक अवस्था को देख रहे हैं, वह कदापि न होती। हिन्दी का प्रचार, प्रसार तथा प्रभाव बढ़ाने में यदि किसी संस्था व मत ने सर्वाधिक योगदान दिया है तो वह देश का आर्यसमाज संगठन ही है।
हिन्दी के प्रचार प्रसार में आर्यसमाज द्वारा अपनी स्थापना वर्ष 1875 से ही देश के अनेक भागों में निकाली गई पत्र-पत्रिकाओं का भी योगदान है। पंजाब में उर्दू का अत्यधिक प्रभाव था। हिन्दी पाठक नगण्य होते थे। ऐसे समय में भी आर्यसमाज के प्रमुख नेता व विद्वान स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने उर्दू पत्र सद्धर्म प्रचारक पत्र को हिन्दी में प्रकाशित कर एक बड़ा निर्णय लिया था जिससे पंजाब में हिन्दी प्रचार में प्रशंसनीय लाभ हुआ। लाहौर से श्री खुशहालचन्द खुर्सन्द जी का उर्दू मिलाप निकलता था। हिन्दी समाचार पत्र की वहां कोई सम्भावना नहीं थी। ऐसी स्थिति में भी श्री खुशहालचन्द खुर्शन्द, जो बाद में महात्मा आनन्द स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध हुए, के सुपुत्र महाशय यश जी ने लाहौर से दैनिक हिन्दी मिलाप पत्र का प्रकाशन कर हिन्दी के प्रचार प्रसार में महनीय योगदान किया। इसी प्रकार आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने देश के अनेक भागों में ऋषि दयानन्द के हिन्दी प्रेम व आग्रह को सामने रखकर हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया जिससे हिन्दी का देश भर में प्रचार हुआ। आर्यसमाज के सभी विद्वान देश भर में प्रचार के लिये जाते थे। दक्षिण भारत के कुछ भागों में भी आर्यसमाज के विद्वानों ने प्रचार किया। सभी विद्वान हिन्दी भाषा में ही प्रचार करते व व्याख्यान देते थे। आर्यसमाज का प्रायः समस्त साहित्य हिन्दी भाषा में ही है। इस कारण भी देश में हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। आर्यसमाज ने देश को अनेक हिन्दी सेवी विद्वान, लेखक, कवि, वेदभाष्यकार, अनुवादक व सम्पादक आदि दिये। इन सबने हिन्दी के प्रचार प्रसार में योगदान किया है।
सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार ने डा. हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना कर उससे राजकार्यों के लिए उपयुक्त भाषा की सिफारिश करने को कहा था। यह आयोग हण्टर कमीशन के नाम से जाना गया। यद्यपि उन दिनों सरकारी कामकाज में उर्दू-फारसी एवं अंग्रेजी भाषाओं का प्रयोग ही होता था, परन्तु स्वामी दयानन्द जी के सन् 1872 से 1882 तक व्याख्यानों, ग्रन्थ-लेखन, शास्त्रार्थों आदि के प्रचार एवं इसके अनुयायियों की हिन्दी सेवा व निष्ठा से हिन्दी भाषा भी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई थी। इस हण्टर कमीशन के माध्यम से हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने के लिये स्वामी दयानन्द जी ने देश की सभी आर्यसमाजों को पत्र लिखकर बड़ी संख्या में हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन हण्टर कमीशन को भेजन की प्रेरणा की और जहां से ज्ञापन नहीं भेजे गये थे, उन्हें स्मरण पत्र भेजकर शीघ्र ज्ञापन भेजने के लिए सावधान किया। आर्यसमाज फर्रुखाबाद के स्तम्भ बाबू दुर्गादास को भेजे पत्र में स्वामी जी ने लिखा था – ‘‘यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूके वह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ (हो गया अर्थात् हिन्दी राजभाषा बना दी गई़) तो आशा है कि मुख्य सुधार की नींव पड़ जायेगी।” स्वामी जी की प्रेरणा के परिणामस्वरूप देश के कोने-कोने से आयोग को आर्यसमाजों ने बड़ी संख्या में लोगों ने हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेजे गए, जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द जी द्वारा किया गया यह कार्य इतिहास की एक अन्यतम घटना है।
स्वामी दयानन्द जी की प्रेरणा से जिन प्रमुख लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी उनमें जहां अनेक रियासतों के राज-परिवार के सदस्य हैं, वहीं कर्नल एच.ओ. अल्काट भी हैं जो अमेरिका में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनके दर्शन करने भारत आये थे और भारत में स्वामी दयानन्द जी ने उनका आतिथ्य किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराज स्वामी दयानन्द जी के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा से ही उन्होंने अपनी-अपनी रियासतों में हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिया था।
स्वामी दयानन्द जी संस्कृत व हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं का भी आदर करते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है–‘‘जब पुत्र-पुत्रियों की आयु पांच वर्ष हो जाये तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करायें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी।” स्वामी जी अन्य प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी व संस्कृत की भांति देवनागरी लिपि में लिखे जाने के समर्थक थे जो राष्ट्रीय एकता की पूरक होती। अपने जीवन काल में हिन्दी पत्रकारिता को भी आपने नई दिशा दी। आर्य दर्पण, आर्य प्रकाश आदि अनेक हिन्दी पत्र आपकी प्रेरणा से प्रकाशित हुए एवं इनकी संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।
स्वामी दयानन्द जी ने अपने समकालीन लोगों से हिन्दी में जो पत्र-व्यवहार किया है, वह भी समकालीन किसी एक व्यक्ति द्वारा किए गए पत्र-व्यवहार में सर्वाधि है। स्वामी दयानन्द जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी आत्मकथा हिन्दी में लिखकर भावी आत्मकथा लेखकों का मार्ग प्रशस्त किया। सृष्टि के आरम्भ में वेदों की उत्पत्ति से स्वामी दयानन्द जी के समय तक वेदों का संस्कृत भाषा में ही भाष्य होता था। स्वामी दयानंद जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों का हिन्दी भाषा में भाष्य कर आम लोगों का धर्मशास्त्रों में प्रवेश कराया। स्वामी दयानन्द जी सहित आर्यसमाज एवं उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित गुरुकुल एवं डी.ए.वी. स्कूल एवं कालेजों द्वारा भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किया गया है। गुरुकुल कांगड़ी में देश में सर्वप्रथम विज्ञान व गणित सहित सभी विषयों की पुस्तकें हिन्दी माध्यम से तैयार कर उनका सफलतापूर्वक अध्यापन किया गया। मुस्लिम मत की धर्मपुस्तक कुरआन का हिन्दी में अनुवाद कराने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को है। इसी के आधार पर उन्होंने इस मत की मान्यताओं की परीक्षा की व उसे अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जो मनुष्य जिस देशभाषा को पढ़ता है उसको उसी भाषा का संस्कार होता है। अंग्रेजी व अन्यदेशीय भाषाओं का पढ़ा हुआ व्यक्ति आचार व विचारों की दृष्टि से प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति से सर्वथा दूर देखा जाता है। अतः स्वामी जी का यह निष्कर्ष उचित ही है। संस्कृत व हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन व व्यवहार से ही सनातन वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा सम्भव है।
थियोसोफिकल सोसायटी की नेत्री मैडम बेलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द जी से उनके ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी थी। तब स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें 31 जुलाई, 1876 को विस्तृत पत्र लिखकर अनुवाद की अनुमति देने से हिन्दी के प्रचार व प्रसार एवं हिन्दी की प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया था। स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें लिखा था कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा।
हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय एक श्रोता द्वारा स्वामी दयानन्द जी से उनकी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने कहा था – ‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं, परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं कि जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा।’ स्वामी जी ने एक स्थान पर यह भी कहा है कि जो व्यक्ति इस देश का अन्न खाता, यहां निवास करता है और जो इस देश की वायु का सेवन व जल का ग्रहण करता है, यदि वह इस देश की संस्कृत व हिन्दी भाषा को नहीं सीखता, तो उससे क्या आशा की जा सकती है? सभी व्यक्तियों को इन भावों पर विचार करना चाहिये।
स्वामी दयानन्द तथा उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने आर्यभाषा हिन्दी की अनन्य प्रशंसनीय सेवा की है। हिन्दी को अध्यात्म सहित राजकार्य, आधुनिक साहित्य एवं संप्रेषण की भाषा बनाने में आर्यसमाज का सर्वोपरि योगदान है। एक षडयन्त्र के अन्तर्गत स्वामी जो विष देकर व उनके उपचार में असावधानी होने से 58-59 वर्ष की अवस्था में उनका देहावसान हो गया था। यदि वह कुछ अधिक समय तक जीवित रहते तो अपने व्याख्यानों, शास्त्राओं तथा ग्रन्थों के द्वारा हिन्दी को न केवल समृद्ध करते अपितु देश देशान्तर में हिन्दी का अधिकाधिक प्रचार भी करते। 14 सितम्बर, 2020 को हिन्दी दिवस को ध्यान में रखकर हमने इस लेख में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के हिन्दी के प्रचार व प्रसार में योगदान की चर्चा की है। आशा है पाठक इससे लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य