ललित गर्ग
जीवन की विडम्बना यह है कि हम अपनी हर अनगढ़ता, हर अपूर्णता के लिए दुनिया को जिम्मेवार ठहराते हैं। जबकि हमें इसके कारणों को स्वयं में खोजना चाहिए। जेफ ओल्सन की किताब ‘द स्लाइट एज’ में खुशी की तलाश का एक पूरा दर्शन छिपा है।
कोरोना महासंकट में जिंदगी हमसे यही चाहती है कि हम नकारात्मकता, अवसाद और तनाव के अंधेरों को हटाकर जीवन को खुशियों के संकल्पों से भरें। ऐसा करना कोई बहुत कठिन काम नहीं, बशर्ते कि हम जिंदगी की ओर एक विश्वास भरा कदम उठाने के लिए तैयार हों। डेन हेरिस एक सवाल पूछते हैं कि जब ‘खुशी हम सबकी जरूरत है और जिम्मेदारी भी तो क्यों हमारी यह जरूरत पूरी नहीं हो पा रही और क्या वजह है कि हम दुनिया को खुशियों से भर देने की जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभा पा रहे हैं?’ इस सवाल के बहुत से उत्तर हो सकते हैं, लेकिन हेरिस के मुताबिक ‘इसका मूल कारण है हमारे भीतर छिपा डर। यह डर ही हमारे आस-पास अवसाद व अविश्वास रचता है और हमें दुख की सीलन से गंधाते अंधेरों में खींच ले जाता है।’ डरा हुआ इंसान हर वक्त अपने आपको असुरक्षित-सा महसूस करता है। डर उनको अंधेरे में जीना सिखा देता है। शेक्सपीयर कहते थे, हमारा शरीर एक बगीचे की तरह है और दृढ़ इच्छाशक्ति इसके लिए माली का काम करती है, जो इस बगिया को बहुत सुंदर और महकती हुई बना सकती है।
जीवन की विडम्बना यह है कि हम अपनी हर अनगढ़ता, हर अपूर्णता के लिए दुनिया को जिम्मेवार ठहराते हैं। जबकि हमें इसके कारणों को स्वयं में खोजना चाहिए। जेफ ओल्सन की किताब ‘द स्लाइट एज’ में खुशी की तलाश का एक पूरा दर्शन छिपा है। ओल्सन का कहना है कि हर दिन तुम जो भी करते हो, उसमें बहुत कुछ निरर्थक लगता है, लेकिन जीवन में हर छोटी से छोटी बात का अर्थ होता है। हर बीतता हुआ क्षण तुम्हें, बेहतर बनने का अवसर दे रहा है, बशर्ते तुम होना चाहो। रूमीं ने कहा कि ‘जान लेने का मतलब किसी किताब को लफ्ज-दर-लफ्ज रट लेना नहीं, जान लेने का मतलब ये समझ जाना कि तुम क्या नहीं जानते।’ लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश लोग जिंदगी को ऐसे जीते हैं, जैसे कोई किराने की दुकान का हिसाब पूरा करता हो। क्योंकि उनको नहीं मालूम कि उन्हें जिंदगी से शांति चाहिए या विश्राम। ईमानदारी चाहिए या पैसा। परोपकार चाहिए या स्वार्थपूर्ति? स्वास्थ्य एवं सौहार्द चाहिए या स्वार्थ? विचारक रूपलीन ने कहा है कि किसी भी तरह की मानसिक बाधा की स्थिति खतरनाक होती है। खुद को स्वतंत्र करिए। बाधाओं के पत्थरों को अपनी सफलता के किले की दीवारों में लगाने का काम करिए। कुछ लोग इन्हीं स्थितियों में मजबूत होते हैं और खराब समय को ही अपने जीवन को स्वर्णिम ढंग से रूपांतरित करने वाला समय बना देते हैं। कोरोना महाव्याधि ने इंसान को अनेक कडुवे अनुभवों से साक्षात्कार कराया है और जीवन के अनेक सत्यों से परिचित कराया है।
सफलता और संघर्ष, आशा और निराशा, हर्ष और विषाद साथ-साथ चलते हैं। चुनौतियां केवल बुलंदियों को छूने की नहीं होतीं, खुद को वहां बनाए रखने की भी होती हैं। ठीक है कि एक काम करते-करते हम उसमें कुशल हो जाते हैं। उसे करना आसान हो जाता है। पर वही करते रह जाना, हमें अपने ही बनाए सुविधा के घेरे में कैद कर लेता है। रोम के महान दार्शनिक सेनेका कहते हैं, ‘कठिन रास्ते ही हमें ऊंचाइयों तक ले जाते हैं।’ प्रश्न है कि इन कठिन रास्तों पर डग भरने एवं कुछ अनूठा करने का साहसिक प्रयत्न कोई तो शुरु करे। मगर प्रश्न तो यह भी है कि अंधेरों से संघर्ष करने के लिए आगे आए कौन? कौन उस साहसिक प्रयत्नों की संस्कृति को सुरक्षा दे? कौन आदर्शों के अभ्युदय की अगवानी करे? कौन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना में अपना पहला नाम लिखवाये? सच्चाई है कि जिन्होंने साहस एवं संयम का परिचय दिया है, वे कोरोना को परास्त भी कर पाये हैं, केवल कोरोना ही नहीं, जीवन के ऐसे अनेक दुर्गम मार्गों को उन्होंने पार किया है।
बहुत कठिन है यह रोशनी का सफर तय करना। बहुत कठिन है तेजस्विता और तपस्विता की यह साधना। सबके अंधेरों को समेटने के लिए कहां कौन आगे आते हैं जबकि यहां तो हर कोई खुद को उजालने की स्वार्थी आकांक्षा में न जाने कितनों के जीवन की रोशनी छीन लेते हैं। अपनी गलतियों के बारे में बात करते हुए हमारे कई किन्तु-परंतु होते हैं। हम समय और स्थितियों की बात भी करते हैं और अपने लिए छूट और माफी भी चाहते हैं। लेकिन क्या तब भी ऐसा करते हैं, जब गलतियां दूसरों की होती है? ‘लाइफ, द ट्रुथ, एंड बीइंग फ्री’ के लेखक स्टीव मेराबली कहते हैं, ‘जब हम दूसरों को उनके दृष्टिकोण और परिस्थितियों में पहुंचकर देखते हैं, तब उनकी गलतियां उतनी बड़ी नहीं दिखायी देतीं।’ ऐसे में ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे बढ़े आगे? जब शुरुआत में ही लगने लगे कि जो काम मैं अब तक नहीं कर सका, भला दूसरा कैसे कर सकें? कितना बौना चिंतन है आदमी के मन का कि मैं तो बुरा हूं ही पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने।
अपने हालात के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं होता। हर कोई अपने सुख-दुख का जिम्मेदार होता है, हर कोई अपना जीवन अपने ढंग से जी रहा होता है। ओशो के अनुसार, ‘यहां कोई भी आपका सपना पूरा करने के लिए नहीं है। हर कोई अपनी तकदीर बनाने में लगा है।’ जीवन की प्रयोगशाला में भले हम बड़े कामों के लिए ऊंचे मनसूबे न बनायें और न ही आकांक्षी सपने देखें पर जरूरत है अंधेरी गलियां बुहारने की ताकि बाद में आने वाली पीढ़ी कभी अपने लक्ष्य से भटक न पाये।
जब हम कुछ करने की ठानते हैं तो सफलता ही मिले यह जरूरी नहीं। कई बार सब करने पर भी निराशा मिलती है। तब हम अपनी ही सोच और क्षमताओं पर संदेह करने लगते हैं। लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता। लेखिका एलेक्जेंड्रा फ्रेन्जन कहती हैं, ‘अगर दिल धड़क रहा है, फेफड़े सांस ले रहे हैं और आप जिंदा हैं..तो कोई भी भला, रचनात्मक और खुशी देने वाला काम करने में देरी नहीं हुई है।’ भगवान महावीर का संदेश था कि हमारे स्वीकृत उद्देश्यों के प्रति आस्था, समर्पण और दृढ़ निश्चय जुड़ा रहे। पुरुषार्थ के हाथों भाग्य बदलने का गहरा आत्मविश्वास सुरक्षा पाये। एक के लिए सब, सबके लिए एक की चेतना जागे। साहस, संयम एवं आत्म विश्वास की एक किरण कभी पूरा सूरज नहीं बनती। जिसे एक किरण मिल जाती है वह संपूर्ण सूरज बनने की दिशा में प्रस्थान कर देता है। रिचर्ड सील ने कहा भी है आत्मशक्ति इतनी दृढ़ और गतिशील है कि इससे दुनिया को टुकड़ों में तोड़कर सिंहासन गढ़े जा सकते हैं।
कुछ लोग विशिष्ट अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं। वे लोग भाग्यवादी एवं सुविधावादी होते हैं, ऐसे लोग कुंठित तो होते ही है, जड़ भी होते हैं। कल्पना और प्रतीक्षा में वे अपना समय व्यर्थ गंवा देते हैं। किसी शायर ने कहा भी है तू इंकलाब की आमद का इंतजार न कर, जो हो सके तो अभी इंकलाब पैदा कर।