देश धर्म की रक्षा के लिए बनाई गईं राष्ट्रीय सेनाएं
ऐसी राष्ट्रीय सेनाओं का गठन हमारे राजाओं ने एक बार नहीं अनेकों बार किया । विनोद कुमार मिश्र (प्रयाग) ने अपनी पुस्तक ‘विदेशी आक्रमणकारी का सर्वनाश : भारतीय इतिहास का एक गुप्त अध्याय’ – में किया है । वह हमें बताते हैं : – “1030 ईस्वी में महमूद गजनवी की मृत्यु से उसका राज्य बिखरने लगा । उसके उत्तराधिकारी मसूद , मुहम्मद , मकदूर तथा बहराम शाह के काल में 1051 में उसका राज्य बिल्कुल नष्ट हो गया । महमूद गजनवी की अपार लूट व धन-संपत्ति ने गजनवी के मुस्लिम शासकों को आश्चर्यचकित कर दिया । महमूद गजनवी के भांजे ( महमूद की मौला का पुत्र ) सालार मसूद ने 11 लाख की सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया । यह आक्रमण 1031 – 33 ईसवी में हुआ । उसकी मदद के लिए उसका पिता सालार साहू (ईरान का बादशाह ) सेना के साथ आया । इतनी बड़ी सेना का यह भारत के भू भाग पर पहला आक्रमण था ।” ( संदर्भ : मुस्लिम शासक तथा भारतीय जन समाज , लेखक : सतीश चंद्र मित्तल)
जब यह राक्षस भारत में खुला घूम रहा था और अत्याचार करते – करते थक नहीं रहा था तब 14 जून 1033 ई0 को इसका सामना बहराइच के राजा सुहेलदेव से हुआ । उस समय राजा सुहेलदेव के साथ भारत के 17 राजाओं ने अपनी राष्ट्रीय सेना बनाकर इस विदेशी राक्षस को मार भगाने का कीर्तिमान स्थापित किया था । कहते हैं कि इस राक्षस की 11 लाख की विशाल सेना में से एक भी सैनिक ऐसा नहीं बचा था जो जाकर अपने देश में यह बता देता कि हमारी सेना की क्या दुर्दशा हुई है ?
इस प्रकार के गौरवमयी इतिहास पर प्रकाश डालते हुए वीर सावरकर लिखते हैं :- “जिस समय उत्तर में मोहम्मद गौरी और महमूद गजनवी हिन्दुओं की एक के बाद दूसरी राजधानी , क्षेत्र के बाद क्षेत्र , मन्दिर के बाद मन्दिर उजाड़ रहे थे । वे हिन्दू राज्य सत्ता को प्राप्त कर रहे थे और राजेन्द्र चोल के समान हिन्दू सम्राट ब्रह्मदेश पंगु , अंडमान ,निकोबार आदि पूर्वी समुद्र के द्वीपसमूह को अपनी विशाल जलवाहिनियों की वीरता से जीतते चले जा रहे थे तथा उसके बहुत पूर्व से स्थापित जावा से लगाकर हिन्दचीन ( इंडोनेशिया) तक हिन्दू राज्यों से सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे । इधर पश्चिमी समुद्र में स्थित लक्ष्यद्वीप , मालद्वीप और अन्य – अन्य द्वीप समूह को जीतकर उसने सिंहलद्वीप पर भी अपना राज्य स्थापित किया था और उसी समय दक्षिण महासागर में हिन्दुओं का विजय ध्वज लहराया गया।”
812 से लेकर 836 ई0 तक मेवाड़ पर शासन करने वाले राणा खुमाण के बारे में कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि खुमाण ने 24 बार विदेशी आक्रमणकारियों को खदेड़ा था । इन युद्धों में राणा ने अपने जिस शौर्य का परिचय दिया था वह रोम के सम्राट सीजर की भांति भारतीय क्षत्रिय समाज के लिए अत्यन्त गौरवपूर्ण है उसके शौर्य ,प्रताप ने भारत के इतिहास में क्षत्रिय योद्धाओं का नाम अमर कर दिया।
इस राजा के साथ भी हमारे देश के उस समय के अनेकों राजाओं ने मिलकर अपनी एक राष्ट्रीय सेना का गठन किया था। कर्नल टॉड ने उन राजाओं की सूची दी है जो उस राष्ट्रीय सेना में सम्मिलित हुए थे। वह बताता है कि गजनी के गोहिल , असीर के टाक , नादौल के चौहान , रहिरगढ़ के चालुक्य , शेतबंदर के जीरकेडा , मंदोर के खैरावी , मगरौल के मकवाना, जेतगढ़ के जोडिघ , तारागढ़ के रिवर , नीरवड़ के कछवाहे , संजोर के कालुम , जूनागढ़ के यादव, अजमेर के गॉड , लोहादुर्गढ़ के चंदाना , कसीन्दी के डोर , दिल्ली के तोमर , पाटन के चावड़ा , जालौर के सोनगरे , सिरोही के देवड़ा , गागरोन के खींची , पाटरी के झाला , जोयानगढ़ के दुसाना , लाहौर के बूसा, कन्नौज के राठौड़ , छोटियाला के बल्ला , हिरणगढ़ के गोहिल , जैसलमेर के भाटी , रोनिजा के संकल , खैरलीगढ़ के सीहोर , मनल गढ़ के निकुम्प , राजौड़ के बडगूजर , फरन गढ़ के चंदेल , सीकर के सिकरवार , ओमरगढ़ के जेनवा , पल्ली के पीरगोटा , खुनतररगढ़ के जारीजा , जरिगांह के खेर , कश्मीर के परिहार राजाओं ने एक राष्ट्रीय सेना का गठन कर विदेशी आक्रमणकारियों को देश की सीमाओं से खदेड़ने का सराहनीय कार्य किया था।
गौरी का उसकी मृत्यु पर्यंत भारी प्रतिरोध हुआ
महमूद गजनवी को राजा जयपाल , आनन्दपाल , भीमपाल आदि के द्वारा जिस प्रकार चुनौती दी गई और उसके अत्याचारों का प्रतिशोध लिया गया , वह भी अपने आप में कम गौरवपूर्ण इतिहास नहीं है। इसके साथ ही इसी काल में हम पृथ्वीराज चौहान जैसे पराक्रमी सम्राट को भी देखते हैं , जिसने एक बार नहीं कई बार विदेशी आक्रमणकारियों को भगाने में सफलता प्राप्त की । कई कमजोरियों के उपरान्त भी पृथ्वीराज चौहान भारतीय इतिहास के वह देदीप्यमान नक्षत्र हैं जिस पर आने वाली पीढ़ियां गर्व करेंगी । उन्होंने मोहम्मद गौरी के सामने सिर नहीं झुकाया। जिस समय पृथ्वीराज चौहान गौरी को अंतिम पराजय देने के लिए निकले उस दिन उस राक्षस गौरी ने गायों के झुंड को हमारे पृथ्वीराज चौहान के सामने कर दिया था । जिससे हमारा यह वीर योद्धा ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार हुआ और गायों पर आक्रमण या हथियार न चलाकर उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली । यदि उस दिन सौ पचास गाय मर जातीं तो बाद की लाखों-करोड़ों गायों की रक्षा हो सकती थी , परंतु आगे का विचार न कर हमारे महान शासक ने दुर्भाग्य को गले लगा लिया।
जहाँ यह सब कुछ एक इतिहास है , वहीं यह भी एक इतिहास है कि हमारे इस महान योद्धा पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु का प्रतिशोध पंजाब के हिन्दुओं ने लिया था । उन्होंने गौरी का वध कर अपनी वीरता का परचम लहराया था।
‘मदर इंडिया’ नवंबर 1966 के अनुसार 1206 के मार्च माह में लाहौर और उसके आसपास शमशान जैसी सहस शान्ति पसराकर गोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक ने लाहौर से गजनी चलने की तैयारी की। मार्ग में उसने दमयक में पड़ाव डाला । तब 15 मार्च 1206 को वीर हिन्दुओं का एक छोटा सा दल तलवार से वज्रपात करता हुआ मोहम्मद गौरी के शिविर तक पहुँचा और एक ही झटके में गौरी का सिर कटकर भूमि पर लुढ़कता हुआ दूर तक चला गया । इस प्रकार एक शत्रु का अन्त कर हिंदू योद्धाओं ने अपनी वीरता और ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के प्रति अपनी गहन निष्ठा व्यक्त की।
मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर 1206 ई0 में गुलाम वंश की स्थापना तक के काल का यहाँ हमने संक्षेप और संकेत में ही कुछ उल्लेख किया है। इसका विस्तृत विवरण आप हमारी पुस्तक ‘भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास , भाग – 1 ‘वे थमें नहीं – हम थके नहीं’ में पढ़ सकते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत