इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए लेखक ने अपनी पुस्तक “भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास”- भाग 1 , के पृष्ठ संख्या 26 पर लिखा है कि – “दक्षिण भारत और उत्तर भारत सहित पूरब और पश्चिम के सभी शासकों को संस्कृतिनाशक इतिहासकारों ने नितान्त उपेक्षित करने का प्रयास किया है – हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। हम यह भी विचार करें कि एक विदेशी आक्रान्ता मोहम्मद बिन कासिम हमारे समकालीन इतिहास के लिए इतना कौतूहल और जिज्ञासा का विषय क्यों बन गया ? जिसने भारत पर केवल आक्रमण किया , यहाँ पर कोई लम्बा शासन नहीं किया , ना ही यहाँ की जनता के लिए कोई विशेष सुधारात्मक कार्य किए । जबकि पूरे देश के तत्कालीन राजाओं ने और (बाद में) गुर्जर सम्राट सम्राट मिहिर भोज ने देश के लिए और देश की जनता के लिए जो कुछ किया , वह अंततः किस षड़यन्त्र के छल प्रपंच की भेंट चढ गया ? चिन्तन करना पड़ेगा । छल प्रपंच को समझना पड़ेगा और उनकी एक – एक परत को उधेड़कर देखना पड़ेगा कि अन्ततः हमें हमारे ही अतीत से और गौरवमयी इतिहास से क्यों और किस लिए इतनी निर्ममता से काट दिया गया ?”
जब मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया तो उसके आक्रमण के 12 वर्ष पश्चात अर्थात 724 ई0 में ही नागभट्ट प्रथम जैसे पराक्रमी गुर्जर शासक ने उस पराज्य का प्रतिशोध लेने के लिए अपनी चतुरंगिणि सेना सजायी और ईरान तक सेना ले जाकर विदेशी धर्मावलम्बियों का वहां से सफाया किया। इस काम में महाराणा प्रताप के पूर्वज बप्पा रावल जैसे महान देशभक्त योद्धा ने भी अपना भरपूर सहयोग दिया।
इन महान देशभक्तों के द्वारा किया गया यह कार्य कुछ वैसा ही था जैसा चन्द्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी ने अपने समय में सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात किया था । उन्होंने भी देश की सुरक्षा पर ध्यान देते हुए उत्पाती , उपद्रवी और विप्लवी लोगों का सफाया देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में करने का महाभियान चलाया था।
नागभट्ट प्रथम और बप्पा रावल जैसे महायोद्धाओं के ऐसे अभियानों का ही परिणाम था कि 712 ई0 के पश्चात भारत की सीमाएं तब तक पूर्णतया सुरक्षित रहीं जब तक महमूद गजनवी के आक्रमण आरम्भ नहीं हो गए । यह काल लगभग तीन सौ वर्ष से अधिक का है । जबकि हमें इतिहास कुछ ऐसे पढ़ाया समझाया जाता है कि जैसे मोहम्मद बिन कासिम के एकदम पश्चात ही गजनवी के आक्रमण आरम्भ हो गए थे । मोहम्मद बिन कासिम से लेकर गजनवी के आक्रमणों के काल में यदि देश बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा तो उसका यही कारण था कि हमारे लोगों ने अपने पराक्रम और पौरुष को जीवन्त बनाए रखा।
मन्दिर संस्कृति ने हमें पढ़ाया एकता का पाठ
संस्कृति नाशकों के विरुद्ध हिन्दू राजवंशों का यह राष्ट्रीय संकल्प सदा बना रहा कि इन्हें जैसे भी हो भारत से बाहर निकालना ही है । हिन्दुत्व के व्यापक विरोध के कारण महमूद गजनवी भारत के 10% भाग को भी जीत नहीं पाया था । ऐसा समय भी आया जब देश में स्वतन्त्रता के लिए विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध राजा के बिना ही जातियां लड़ती रहीं और देश के काम आती रहीं।
इस काल में बहुत सारी कमियों और राष्ट्रीय चरित्र में आए दोषों के उपरान्त भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आदि शंकराचार्य और मन्दिर संस्कृति ने हमें एकता का पाठ पढ़ाया । वास्तव में हमारे देश की मन्दिर संस्कृति हमारा आपात धर्म थी । कृष्ण बल्लभ द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘भारत निर्माता’ में आचार्य शंकर के द्वारा स्थापित की गई चार धामों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं :- “उनके इस विराट आयोजन का मुख्य उद्देश्य हमारे नवीन राष्ट्रीय कलेवर को एक ही सांस्कृतिक सूत्र में गठित करके पुनः इस महादेश को अलौकिक स्तर पर भी ऊंचा उठाने का गूढ़ संकल्प मात्र था । इसका स्थूल प्रमाण तो इस ऐतिहासिक तथ्य द्वारा हमें मिल रहा है कि अपने बाद भी देश की जागृति के अनुष्ठान को जारी बनाए रखने हेतु जो चार प्रधान धर्म केन्द्र अथवा संन्यासी मठ इस महापुरुष ने स्थापित किए थे उनके लिए उत्तर , दक्षिण , पूर्व और पश्चिमी अंचलों के सुदूर सीमावर्ती चार महत्वपूर्ण धामों को ही उसने चुना था , कैसा दूरदर्शी था वह ?”
मन्दिरों के माध्यम से जहाँ सांस्कृतिक एकता स्थापित हुई , वहीं वैदिक ज्ञान – विज्ञान को आगे बढ़ाने में भी सहायता मिली । यद्यपि जब इनका साम्प्रदायिक स्वरूप उभरकर सामने आया तो मन्दिर भी साम्प्रदायिकता के प्रतीक हो गए । कृष्ण वल्लभ द्विवेदी ही आगे लिखते हैं कि :- “सर्जन की देशव्यापी लहर के उफान में एक ओर खजुराहो , भुवनेश्वर, उदयपुर (मध्य प्रदेश) ओसिया , मोडेरा , सिद्ध पुर, सोमनाथ और दिलवाड़ा (आबू ) आदि के नागरशैली के महान उत्तर क्षेत्रीय देवालयों की और दूसरी ओर कांचीपुरम, एहोल, पद्दकल , तंजावूर, सोमनाथपुर , हालेविद , बेलूर आदि स्थलों की ‘द्रविड़’ एवं ‘वेसूर शैली’ के दक्षिण भारतीय मन्दिरों की भव्य कला सृष्टि हुई थी।”
हम बना रहे थे गौरवशाली इतिहास
जिस काल को हमारे लिए पूर्णतया पराभव का काल कहकर हिन्दुओं को हीन भावना से ग्रस्त किया जाता है उसके विषय में हिन्दुओं की वीरता के गौरवपूर्ण तथ्य को स्थापित करते हुए वीर सावरकर जी लिखते हैं :- “साधारणतया सन 550 के बाद हिन्दू राजाओं ने सिन्धु नदी को विभिन्न मार्गों से लांघकर आज जिन्हें बलूचिस्तान ,अफगानिस्तान , हिरात, हिन्दूकुश , गिलगित कश्मीर आदि कहा जाता है और जो प्रदेश सम्राट अशोक के पश्चात वैदिक हिन्दुओं के हाथ से यवन , शक , हूण आदि म्लेच्छ छीनकर लगभग 500 वर्ष तक अपने अधिकार में ले रखे थे , वे सिन्धु नदी के पार के समस्त भारतीय साम्राज्य के प्रदेश उन सभी म्लेच्छों को ध्वस्त करते हुए वैदिक हिंदुओं ने फिर से जीत लिए । – – – – एक समय ऐसा भी था जब कश्मीर के उस पार मध्य एशिया के खेतान में भी हिन्दू राज्य स्थापित थे , इतिहासकारों के अनुसार गजनी में ही राजा शिलादित्य शासन करते थे।”
मोहम्मद बिन कासिम के हमले के पश्चात जब नागभट्ट प्रथम जैसे प्रतिहार गुर्जर शासकों का समय आया तो अपने देश के लिए मर मिटने की भावना रखने वाले हिन्दुओं के भीतर राष्ट्रभक्ति का कितना बड़ा जज्बा था ? इस गुर्जर प्रतिहार शासक ने सिन्ध से लेकर ईरान तक का सारा क्षेत्र जो मुस्लिम धर्मावलम्बियों का गढ़ बन चुका था , न केवल सफलतापूर्वक भारत के साथ मिलाया बल्कि अपने उन हिन्दू भाइयों की फिर से ‘घर वापसी’ भी कराई जो बलात मुसलमान बना लिए गए थे । हिन्दू इतिहास का यह बहुत ही गौरवमयी पृष्ठ है , जिसे जानबूझकर हमारी दृष्टि से ओझल कर दिया गया है । इसके विषय में वीर सावरकर ने ही मुस्लिम लेखकों को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया है :- “प्रबल हिन्दू काफिरों के भय से हम अरबों के बाल-बच्चे , स्त्री-पुरुष , जंगल – जंगल मारे फिरते हैं , हमारे द्वारा जीते गए सिन्ध प्रान्त के अधिकांश भागों को फिर से जीतकर वहाँ हिन्दुओं ने अपना राज्य स्थापित कर लिया है । हम निराश्रित अरबों के लिए ‘अल्लाह फ़जाई’ नामक किला ही एकमात्र शरण का स्थल बचा है ।अरबी झण्डे के नीचे हमारे हाथ में केवल यही एक स्थान है । केवल राजकीय मोर्चे पर ही हम अरबों को धूल नहीं चाटनी पड़ी है अपितु राजा दाहिर का कत्ल करने के पश्चात जिन हजारों हिन्दुओं को 100 वर्ष के परिश्रम से हमने भ्रष्ट करके मुसलमान बनाया था और हिन्दू स्त्रियों को दासी बनाकर मुसलमानों के घर – घर बसा रखा था , उस धार्मिक मोर्चे पर भी हमारी वैसी ही दुर्गति हुई है । हिन्दुओं में उत्पन्न क्रान्तिकारी एवं प्रभावी आन्दोलन के कारण इस्लाम द्वारा भ्रष्ट किए गए समस्त स्त्री पुरुषों ने फिर से अपना काफिर धर्म अपना लिया है।”
गुर्जर शासकों के प्रशंसनीय घर वापसी के अभियान
नागभट्ट प्रथम की इसी ‘घर वापसी’ या ‘शुद्धि अभियान’ की परम्परा को नागभट्ट द्वितीय ने अपने शासनकाल में (800 से 833 ई0 ) भी यथावत जारी रखा। 836 ई0 में जब गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने सत्ता संभाली तो उन्होंने भी शत्रुओं और विदेशी आक्रमणकारियों के दांत खट्टे करने के लिए अपने पास 36 लाख सैनिकों की विशाल सेना खड़ी की। इन सारे कार्यों का उद्देश्य केवल एक ही था कि जैसे भी हो भारत की वैदिक संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। उन्होंने ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के आदर्श को दृष्टिगत रखते हुए शत्रुओं का संहार करने में तनिक भी संकोच नहीं किया । इस सारे काल में राष्ट्रवादिता का यही उदात्त भाव हमारा मार्गदर्शन करता रहा और देश सब ओर से सुरक्षित बना रहा।
इतना ही नहीं सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ने के लिए जब महमूद गजनबी जैसा विदेशी राक्षस वहाँ पहुँचा तो राजा भीमदेव सोलंकी के नेतृत्व में हमारे अनेकों हिन्दू राजाओं ने उस विदेशी राक्षस को मार भगाने में सफलता प्राप्त की । इस तथ्य को इतिहास में चाहे ना पढ़ाया जाए परन्तु यह सत्य है कि सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ने के पश्चात राजा भीमदेव ने शौर्य और साहस का परिचय देते हुए जिस प्रकार कई राजाओं को अपने झण्डे तले लाकर इस विदेशी राक्षस को मार भगाने में सफलता प्राप्त की थी , वह इतिहास का एक अत्यन्त गौरवपूर्ण पृष्ठ है । इसके पश्चात महमूद गजनवी को भारत पर कभी आक्रमण करने का विचार तक नहीं आया। हमारे जिन देशी राजाओं ने उस समय मिलकर राष्ट्रीय सेना का गठन कर विदेशी राक्षस को भगाने में सफलता प्राप्त की उनका यह कार्य अत्यन्त अभिनन्दनीय है।
( शेष कल )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत