भारतीय क्षात्र धर्म और अहिंसा ( है बलिदानी इतिहास हमारा ) अध्याय — 7 , निरंतर बना रहा भारत का पराक्रम

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डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

गुप्त वंश के पतन के पश्चात सम्राट हर्षवर्धन भारत के एक महान शासक हुए । इस सम्राट ने भी अपना एक सम्मानजनक और विशाल साम्राज्य स्थापित किया। 606 ईस्वी में हर्षवर्धन का राज्याभिषेक हुआ । उसके राज्यारोहण के 4 वर्ष पश्चात ही अरब के शुष्क रेत में एक नए मजहब इस्लाम को मोहम्मद साहब ने जन्म दिया । यह दोनों घटनाएं भारत के इतिहास के सन्दर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हैं । मोहम्मद साहब के द्वारा इस्लाम की स्थापना के 28 वर्ष पश्चात ही भारत पर अरब की ओर से आक्रमण होने आरंभ हो गए । ये आक्रमण सीमावर्ती क्षेत्रों में होने वाली छुटपुट घटनाएं थीं । जिनका प्रभाव अभी राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई नहीं दे रहा था ।

गुप्त वंश के बारे में मान्यता है कि इस राजवंश ने 275 ई0 में अपनी स्थापना के पश्चात 320 ई0 से 495 ई0 तक भारत में एक सशक्त नेतृत्व प्रदान किया । इसके पश्चात भी 550 ई0 तक उत्तरकालीन गुप्त सम्राट शासन करते रहे। तदुपरान्त भारत में पुष्यभूति वंश की स्थापना छठी शताब्दी में हुई । जिसमें हर्षवर्धन का शासन काल 606 ई0 से आरम्भ होकर 648 ई0 में समाप्त हो गया । छठी शताब्दी में ही भारत में प्रतिहार वंश के शासन की नींव पड़ गई ।
बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख अभिलेखिक रूप से सर्वप्रथम रूप से हुआ है। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों ने छठी सदी से बारहवीं सदी तक अरब आक्रमणकारियों के लिए बाधक का काम किया और भारत के द्वारपाल(प्रतिहार) की भूमिका निभाई। शीघ्र ही भारत की राजनीतिक बागडोर प्रतिहार वंश के शासकों के सशक्त नेतृत्व के हाथों में आ गई ।
हर्ष अपने समय का एक बहुत ही प्रतिभाशाली , पराक्रमी , देशभक्त शासक था । हर्ष ने भारत पर कुदृष्टि रखने वाले शत्रुओं के साथ किसी प्रकार की शिथिलता का प्रदर्शन नहीं किया । यद्यपि इसके उपरान्त भी यह भी एक सत्य है कि अरब वालों का पहला आक्रमण 638 ई0 में हर्ष के शासन काल में ही हुआ था । पर यह आक्रमण कोई विशेष महत्व नहीं रखता और ना ही इससे भारत की सीमाओं को कोई क्षति हुई।

इस्लाम के उदय के समय भारत की स्थिति

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय भारत पर सम्राट हर्षवर्धन का शासन था , उसी समय अरब में इस्लाम धर्म की स्थापना हो चुकी थी। अरब वालों की ओर से भारत पर महत्वपूर्ण आक्रमण 712 ई0 में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में किया गया। इसके उपरान्त भी हमें यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि अरब में इस्लाम की उत्पत्ति के मात्र 28 वर्ष पश्चात ही भारत की सीमाओं पर की गई छेड़छाड़ आने वाले समय की ओर संकेत कर रही थी , जो आंधी और तूफानों से भरा होने वाला था । उस आंधी और तूफान का सामना करने के लिए नियति ने भी भारत में गुर्जर प्रतिहार वंश को समय से पहले ही तैयार कर दिया था । दोनों घटनाओं की गहराई को समझने की आवश्यकता है कि उधर से यदि इस्लाम भारत पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था तो इधर भारत में भी उसका सामना करने के लिए नियति ने अपनी लीला प्रतिहार शासकों के रूप में रच दी थी।
इस्लाम सभ्यताओं और संस्कृतियों को मिटाने वाले एक तूफान का नाम था , जो भारत की वैदिक संस्कृति को मिटाकर यहाँ पर इस्लाम को फैला देना चाहता था । इसी उद्देश्य से इस्लाम के मानने वाले खलीफा और उनके सेनापतियों ने भारत की ओर प्रस्थान करना आरम्भ किया था । इस्लाम ने ऐसे प्रयास करने आरम्भ कर दिए थे जिनके चलते उसने कितने ही देशों की संस्कृतियों को नष्ट कर दिया था। बहुत सारी कमियों और दोषों के उपरान्त भी भारत का क्षत्रिय धर्म अभी भी इतना दुर्बल नहीं हुआ था कि वह इस्लाम की आंधी का सामना नहीं कर सके। भारत के तत्कालीन राजाओं या राजनीतिक लोगों में इतनी सोच ,समझ और राष्ट्रवाद की भावना बनी हुई थी कि वे इस्लाम को भारत के लिए एक खतरा मानते थे।

दक्षिण भारत की स्थिति

अरब के आक्रमणकारियों से पूर्व दक्षिण भारत की स्थिति पर विचार करें तो पता चलता है कि दक्षिण के दुर्ग को इस काल में चालुक्य साम्राज्य ने सुरक्षित बनाए रखा । कल्चूरि वंश का शासन भी वहाँ पर महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसका शासन गुजरात और पश्चिमी मालवा में था। दूसरा राज्य वंश भोज था। छठी शताब्दी के अन्त में और सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भोजों के दो राज्यों की सत्ता के होने का पता चलता है । इनमें से एक बरार क्षेत्र में और दूसरी गोवा क्षेत्र में थी । तीसरा राज्य वंश त्रिकूटक था। कोंकण के उत्तरी क्षेत्र में इस राज्य की सीमाएं स्थापित थीं । चौथा राजवंश राष्ट्रकूट था । इस राजवंश ने मानपुर को अपनी राजधानी बनाया था । वर्तमान सतारा महाराष्ट्र में इसकी सत्ता थी । महाराष्ट्र इन्हीं राष्ट्रकूट शासकों की देन माना जाता है । पांचवा राजवंश पौराणिक राजा नल का है । छठी शताब्दी में इस वंश के होने का उल्लेख मिलता है । छठा राजवंश विष्णुकुण्डी का था । इसके राजा माधव वर्मा जनाश्रय ( 535 585 ई0 ) का विशेष उल्लेख मिलता है। इसका राज्य आन्ध्रप्रदेश की ओर था । सातवां राजवंश कलिंग का था । यह वंश वर्तमान गंजाम जिले के मुखलिंगम कलिंग नगर से शासित होता था । आठवां राजवंश दक्षिण कौशल का था । मध्य प्रदेश के रायपुर बिलासपुर क्षेत्रों में इसका शासन रहा था ।

634 ई0 में इस राजवंश के राजा हर्ष देव को पुलकेशी ने ही पराजित कर दिया था।
हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात उत्तर और दक्षिण भारत में पाल वंश , गुर्जर प्रतिहार वंश और राष्ट्रकूट राजवंश यह तीन राजनीतिक सत्ताएं विशेष रूप से अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल रही थीं । इनमें पाल वंश की स्थापना गोपाल नामक शासक ने 750 ईस्वी में की थी और इस वंश ने 1025 ईस्वी तक शासन किया । जबकि प्रतिहार वंश की विधिवत स्थापना नागभट्ट प्रथम द्वारा 730 ई0 में की गई थी । तीसरे राजवंश राष्ट्रकूट की स्थापना दन्तिदुर्ग नाम के राजा ने 733 ई0 में की थी।
उस समय चन्दि का कलचुरि वंश , मालवा का परमार वंश , राजपूताना के अलग-अलग क्षेत्रों के कई राजवंश , गुजरात और काठियावाड़ के राज्य , उत्तर पश्चिम भारत के राज्य , सिन्ध का राज्य , कश्मीर का राज्य , पर्वतीय क्षेत्रों के राज्य आदि इन सभी राज्यों पर और उनके राजाओं पर यदि विचार करें तो पता चलता है कि भारत में अनेकों राजे रजवाड़े इस समय अस्तित्व में थे।
इससे लगता है जैसे हमारे राजाओं में परस्पर फूट थी। हमारा मानना है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में फूट कम राजनीतिक प्रतिस्पर्धा अधिक थी । इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा कोई दोष नहीं होता , क्योंकि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का भाव देखा जाता है । फूट तब मानी जा सकती है जब हमारे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व या राजाओं ने अलग-अलग देश बनाने का या तो प्रयास किया हो या कोई राजा ऐसा करने में सफल हुआ हो । चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए ये शासक परस्पर लड़ते रहे । यद्यपि उसका लाभ कई बार विदेशी उठाने में सफल हुए । इससे भारत की राजनीतिक एकता को क्षति पहुंची।
यह माना जा सकता है कि छद्म अहिंसा की नीति को अपनाकर भारत के क्षत्रिय धर्म ने अपनी पुरानी गरिमा और वैभव को बहुत अधिक क्षतिग्रस्त कर लिया था । इसके उपरांत भी हमें इस बात पर बहुत ही अधिक गर्व और गौरव की अनुभूति होनी चाहिए कि इस्लाम की खूनी तलवार का जिस वीरता और शौर्य के साथ भारत के क्षत्रियों और भारत के योद्धाओं ने सामना किया , उसका वैसा सामना किसी अन्य देश के क्षत्रियों या योद्धाओं ने नहीं किया ।
हमने ऊपर जिन राजवंशों का उल्लेख किया है इनमें से कई राजवंश ऐसे थे जो या तो गुप्त वंश के एकदम पश्चात भारत का नेतृत्व कर रहे थे या जिस समय इस्लाम अरब से निकलकर अपने विस्तार के लिए संसार के अन्य क्षेत्रों की ओर बढ़ रहा था उस समय भारत में कहीं ना कहीं शासन कर रहे थे या उसके पश्चात मोहम्मद बिन कासिम और गजनी के आने तक यह राजवंश या इनके शासक लोग भारत में कहीं ना कहीं राज्य करते हुए विदेशी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध कर रहे थे । यद्यपि राष्ट्रकूट जैसे राजवंश भी रहे , जिन्होंने भारतीय प्रतिहार वंश के शासकों का साथ न देकर विदेशियों का साथ दिया और भारत में विदेशियों को बसाने या भारत पर उन्हें आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘प्रीहिस्ट्रीक, एनशिएंट एंड हिन्दू इंडिया’ के ‘दी ओरिजिन ऑफ दी राजपूतस एंड द राइज ऑफ़ जी गुर्जर एंपायर’ – नामक अध्याय में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों द्वारा देश व धर्म की रक्षा में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध किए गए संघर्षों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘गुर्जर प्रतिहारों ने जो नवीन हिन्दुओं अर्थात राजपूतों के नेता थे , उत्तर भारत को मुसलमानों द्वारा विजय करके बर्बाद किए जाने से बचाया था और इसी प्रकार सारी जनसंख्या को मुसलमान बनने से बचा लिया।’
इस टिप्पणी में डॉ आर.डी. बनर्जी द्वारा जो कुछ कहा गया है उसमें दो बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है – एक तो वह कहते हैं कि राजपूत नवीन हिन्दू थे और उनके नेता गुर्जर थे । दूसरे वह हमें यह भी बताते हैं कि गुर्जरों के शौर्य और पराक्रम के कारण इस्लाम के आक्रान्ता उत्तर भारत में अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए । जिसका परिणाम यह निकला कि उत्तर भारत की जनसंख्या मुसलमान होने से बच गई । जहाँ तक उनके द्वारा राजपूतों को ‘नवीन हिन्दू’ कहे जाने की बात है तो इससे राजपूतों के प्राचीन होने का भ्रम समाप्त हो जाता है और यह बात फिर पुष्ट हो जाती है कि मध्यकाल में राजपूत हमारे सभी क्षत्रिय वर्ण के लोगों का एक प्रतिनिधि शब्द बन गया था। जबकि उत्तर भारत का इस्लामीकरण न होने देने में गुर्जर शासकों के महत्वपूर्ण योगदान को श्री बनर्जी द्वारा स्पष्ट किए जाने से गुर्जर शासकों की वीरता , शौर्य और पराक्रम का हमें पता चलता है । साथ ही साथ गुर्जरों के इस महान कार्य से हमें उनकी देशभक्ति और संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव भी स्पष्ट होता है । जिसके चलते इस्लामिक आक्रमणकारी भारतवर्ष में भारतीय लोगों के इस्लामीकरण करने की अपनी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके। सचमुच गुर्जर शासकों का यह कार्य बहुत बड़ा है । जिसके लिए भारत की आने वाली पीढ़ियां भी उनकी ऋणी रहेंगी ।
डॉ. एल. मुखर्जी ने ‘भारत के इतिहास’ में लिखा है कि ”गुर्जर प्रतिहार वंश भारत का अंतिम साम्राज्यवादी हिन्दू राज्य वंश था , जिसने अरब आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला किया और अपने जीते जी उन्हें भारत में घुसने नहीं दिया।”
डॉक्टर आर.के. सिन्हा व डॉ. राय ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में स्वीकार किया है कि अब गुर्जरों की ऐतिहासिक महानता स्वयं उनके अपने शिलालेखों के आधार पर स्थापित हो गई है । गुर्जर प्रतिहारों द्वारा अरब आक्रान्ताओं के विरुद्ध देश – धर्म की रक्षा में निरन्तर 250 वर्ष तक लड़े गए सफल युद्धों का उल्लेख करके उसी पुस्तक में डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय ने आगे लिखा है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट शक्तिशाली अरब आक्रमणकारियों को 250 वर्ष तक के निरन्तर युद्ध में पराजित करने में सफल न होते तो प्राचीन भारतीय संस्कृति मिट जाती अर्थात मिश्र तथा बेबीलोन आदि की प्राचीन संस्कृतियों की भांति भारत की संस्कृति भी मृतप्राय हो जाती।”
डॉक्टर के.एम. पणिक्कर ने अपने ‘भारत का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध गुर्जर प्रतिहारों के संघर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुर्जर प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों के समय देश का नेतृत्व संभालकर अरब आक्रमणकारियों से उसके धर्म व संस्कृति की रक्षा का जो कार्य किया उसके लिए भी राष्ट्र की ओर से वे धन्यवाद के पात्र हैं।”
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की बातें हमारे मौलिक संस्कारों में अंतर्निहित हैं । छद्म अहिंसा ने हमारे भीतर एक ‘सद्गुण विकृति’ का विकार पैदा किया । जिसके चलते हमने विदेशियों के सामने कई युद्ध हारने की भूल की । हमने आदर्शों की लड़ाई लड़ना उचित समझा । जैसे भागते हुए शत्रु पर हमला न करना, हथियार फेंककर हाथ ऊपर को खड़े करने वाले शत्रु को छोड़ देना , धोखे , छल , कपट को युद्ध नीति के रूप में न अपनाना – यर कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके आधार पर हमने युद्ध में मिलती हुई विजयलक्ष्मी को अपनी पराजय में बदल लिया। इसके उपरांत भी ऐसे उदाहरण बहुत कम ही हैं जब हम विदेशियों से पराजित हुए। हमने अधिकांश युद्धों में विदेशियों को पराजित किया । पर जिन युद्धों में हमारी विजय और विदेशियों की पराजय हुई उन युद्धों को इतिहास से या तो निकाल दिया गया है या उन पर बहुत कम प्रकाश डाला गया है। जिससे ऐसा लगने लगा है कि जैसे हिंदू जाति कायर है। जिन लोगों ने अहिंसा को अतिरंजित करके दिखाया है और भारतीयों का एक ऐसा संस्कार बनाकर प्रस्तुत किया है कि शत्रु के हाथों पराजय भी अच्छी लगने लगे , उन्होंने हिंदू जाति के बारे में यह भ्रम फैलाने का काम किया है कि यह एक कायर जाति है।
भारत के लिए सौभाग्य की बात है कि हमारे अनेकों हिंदू राजाओं और योद्धाओं ने अशोक की मूर्खतापूर्ण अहिंसावादी नीति को इस देश का राष्ट्रीय संस्कार नहीं बनने दिया । मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के एकदम पश्चात हमारे देश के शासक और धर्माचार्य इस बात के लिए चिंतित हुए कि यदि विदेशी आक्रमणकारी इस प्रकार हमारी सीमाओं के साथ छेड़छाड़ करेगा तो देश की एकता और अखंडता को हम बचा नहीं पाएंगे । इसलिए उन सबने मिलकर आबू पर्वत पर एक यज्ञ का आयोजन किया । जिसमें प्रतिहार , परमार , चालुक्य , चौहान शासकों ने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए संकल्प लिया कि चाहे जितना बड़ा बलिदान हमें देना पड़े पर हम देश की एकता और अखंडता के साथ किसी भी शत्रु को खिलवाड़ नहीं करने देंगे।
आदि शंकराचार्य ने बुद्ध धर्म की छद्म अहिंसा से भारतवर्ष को सावधान करते हुए अपने समय में विशाल आंदोलन खड़ा किया । उन्होंने छद्म अहिंसा की बात करने वाले शासकों और बौद्ध धर्म के धर्माचार्यों को खुली चुनौती दी । उनसे शास्त्रार्थ किए जिसका परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्म भारत से ही भाग खड़ा हुआ । यदि आदि शंकराचार्य जी इस पुरुषार्थ को उस समय ना करते तो निश्चय ही बौद्ध धर्म के कारण आज भारतवर्ष अपना अस्तित्व मिटा चुका होता । यदि इस छद्म अहिंसा को हम अपना संस्कार बना लेते तो प्रतिहार , परमार आदि शासक आबू पर्वत पर बैठकर यह सौगंध नहीं उठाते कि शत्रु का सामना अपने रक्त की अंतिम बूंद के रहने तक करेंगे । इन सब लोगों की सोच थी कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’- शत्रु और देश की एकता और अखंडता से खिलवाड़ करने वाले आक्रमणकारियों का प्रतिशोध और प्रतिरोध हर स्थिति में होना चाहिए। इसी संकल्प ने हमारे प्रतिहार वंश के शासकों को असीम ऊर्जा प्रदान की । जिसके कारण ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – का संस्कार उस काल में हमारा मार्गदर्शन करता रहा और प्रतिहार वंश के शासक इतना विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुए जितना उनके पश्चात इस देश में मुगल ही कर पाए थे।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इतिहास के इस कालखंड में भारत के इस शौर्य के स्वर्णिम पृष्ठों को इतिहास से बाहर कर दिया गया है । यदि उन पृष्ठों को जोड़कर इतिहास को पढ़ा जाए तो पता चलता है कि इस्लाम को भारतवर्ष में कदम रखने से भी 300 वर्ष तक रोकने वाले क्षत्रिय योद्धा अर्थात प्रतिहार गुर्जर वंश के शासक केवल भारतवर्ष में ही मिल सकते है ।
हमने महात्मा बुद्ध को महान माना , उनके वेद संगत सिद्धांतों को भी उचित और तर्कसंगत माना, अशोक को भी महान माना परंतु राष्ट्रीय संदर्भ में उनकी अहिंसा की सीमाओं को कभी महान नहीं माना । कभी भी अशोक की अहिंसा की जंग लगी तलवार को शत्रु के सामने प्रयोग करना हमने उचित नहीं माना । यही कारण रहा कि हम इस्लाम और अन्य विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करते हुए अपनी संस्कृति और अपने धर्म की रक्षा करने में सफल हुए।
इस्लाम को मानने वाले लोग छाती ठोक कर जब यह कहते हैं कि हमने हिंदुस्तान पर इतने वर्ष शासन किया , तब हिंदुओं को भी यह समझना चाहिए कि जितनी देर उन्होंने शासन किया उतनी देर उनसे लड़ाई लड़ने वाले भी हमारे ही पूर्वज थे । लड़ाई लड़ने वाले उससे अधिक महान होते हैं जो किसी की जमीन पर बलात अधिकार स्थापित करने की चेष्टा करता है । अपने पूर्वजों के पुरुषार्थपूर्ण शौर्य को भूलना उनके साथ कृतघ्नता करना है। यदि महात्मा बुद्ध और अशोक की नीतियों से यह देश चलता और उनका छद्म अहिंसावादी दृष्टिकोण हमारा मार्गदर्शन कर रहा होता तो इस्लाम की आंधी के पहले प्रहार के सामने ही हम आत्मसमर्पण कर चुके होते। पर हमने ऐसा किया नहीं इसका अभिप्राय है कि हमारा पराक्रम निरंतर बना रहा।

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