क्या है योग दर्शन की सिद्धियों का सच ?
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– भावेश मेरजा
महर्षि दयानंद जी ने योग दर्शन में उल्लिखित विभूतियों के बारे में कहीं ऐसा विधान नहीं किया है कि ये सारी विभूतियां सत्य हैं। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में एक स्थान पर यह बताया है कि योगी भी सृष्टि नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता है। कोई भी योगी आंख से सुनना और कान से देखने का प्रबंध नहीं कर सकता है। ईश्वर के सृष्टि नियमों के विरुद्ध योगी कुछ भी नहीं कर सकता है। (ये स्वामी जी के शब्द नहीं हैं, उनके शब्दों का भाव मात्र है) इसलिए योग दर्शन के विभूति पाद की सिद्धियां जहां तक सृष्टि क्रम अनुकूल हैं, वहां तक ही मान्य हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। महर्षि दयानंद जी की एक धारणा यह भी है कि 4 वेद मंत्र संहिताओं को छोड़कर अन्य ऋषि कृत (आर्ष या परत: प्रमाण) ग्रंथों में भी यदि कोई बात वेद विरुद्ध पाई जाती है, तो वह त्याज्य है। स्वमंतव्यामंतव्यप्रकाश में यह बात उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखी है। इसलिए यदि कोई आर्य विद्वान् योग दर्शन में वर्णित किसी सिद्धि के बारे में ऐसा मत व्यक्त करता है कि यह सिद्धि योग दर्शन में प्रक्षिप्त है या यह सिद्धि असंभव कोटि की है, तो इससे हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। महर्षि जी ने सत्य और असत्य की पांच कसौटियां अपने ग्रंथों में लिखी हैं। ये कसौटियां भी सिद्धियों की वास्तविकता जानने में बहुत उपयोगी हो सकती हैं।
- प्रमाण :
1. “देखो! कोई भी आज तक ईश्वरकृत सृष्टिक्रम को बदलनेहारा नहीं हुआ है और न होगा। जैसा अनादि सिद्ध परमेश्वर ने नेत्र से देखने और कानों से सुनने का निबन्ध किया है इस को कोई भी योगी बदल नहीं सकता।” (सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास)
2. “चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और 1127 (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उनका अप्रमाण करता हूँ।” (स्वमंतव्यामंतव्य प्रकाश)
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