मंचूरिया, दक्षिण मंगोलिया, यून्नान, पूर्वी तुर्कस्थान, मकाऊ, हांगकांग, पैरासेल्स और तिब्बत जैसे कई देश हैं जो चीन के पेट में जा चुके हैं । सारा विश्व देखता रहा और चीन इन्हें बड़े आराम से निगल गया। जब चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों के अंतर्गत इन देशों को निगल रहा था तब का भारत का नेतृत्व आंखें मूंदे बैठा था ।उसे लग रहा था कि चीन का ‘हिंदी चीनी – भाई भाई’ – का नारा बहुत सार्थक है और जो कुछ हो रहा है वह अन्य देशों के साथ हो रहा है । भारत के साथ ऐसा कुछ भी नहीं होगा , परंतु 1962 की मार के बाद भारत के नेतृत्व की आंखें खुलीं तो पता चला कि चीन मार तो लगा ही गया साथ ही भारत के बहुत बड़े भू भाग को भी कब्जा कर गया । किसी भी देश के नेतृत्व से गलतियां होना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन जिस समय गलतियां हो रही हों उस समय जब जगाने वाले भी बैठे हों तो भी नेता सोते-सोते गलतियां करता रहे तो ऐसे नेतृत्व को लापरवाह भी माना जाता है और अपने पद के अयोग्य भी माना जाता है।
जब देश आजाद हुआ तो उसके पश्चात नेहरू जी को एक नहीं कई मंत्री या व्यक्तित्व ऐसे थे जो कदम – कदम पर सावधान करके चलते थे , उन्हें यह बताते थे कि यदि देखकर नहीं चले तो आगे गड्ढा है और इसमें गिर पड़ोगे , परंतु नेहरु जी थे कि उन देशभक्त नेताओं की बातों को न सुनकर अतिरेक में उस गड्ढे की ओर भागते रहे और एक दिन उसमें गिरकर देश की बहुत बड़ी हानि कर गए।
विनायक दामोदर सावरकर और संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ऐसे ही तो व्यक्तित्व थे जो नेहरू जी को समय-समय पर सावधान करते थे कि चीन के प्रति अतिरेक मत दिखाओ और ना ही पाकिस्तान पर किसी प्रकार का विश्वास करो। दोनों ने नेहरु जी को इस बात के लिए भी सचेत किया था कि चीन के पंचशील सिद्धांत पर किसी प्रकार का विश्वास नहीं करना चाहिए और उन्हें चाहिए कि तिब्बत को चीन का अंग कभी स्वीकार न करें। दुर्भाग्यवश नेहरु जी ने इन दोनों महान नेताओं की इन बातों पर कभी भी संज्ञान नहीं लिया और ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ के नारे में बहते चले गए। इतना ही नहीं कभी किसी आकस्मिकता के लिए अपनी सामरिक तैयारियों की ओर भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
डॉ. आंबेडकर ने ‘हिंदू कोड बिल’ को लेकर कानून मंत्री के रूप में 1951 में जब अपना त्यागपत्र दिया तो उस समय उन्होंने नेहरू की विदेश नीति पर भारी प्रशन चिन्ह खड़े किए थे। 26 अगस्त 1954 को राज्यसभा सदस्य के रूप में भी उन्होंने देश के तत्कालीन नेतृत्व की विदेश नीति को कटघरे में खड़ा किया था और विशेष रूप से चीन के प्रति प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों की आलोचना की थी । नेहरू जी ने इस प्रकार की सभी आलोचनाओं को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालने का काम किया।
डॉ. आंबेडकर ने अपने त्यागपत्र के जो कारण गिनाए थे उनमें से एक कारण उन्होंने यह भी गिनाया था कि वर्तमान नेतृत्व की विदेश नीति बहुत ही लचर है । जिससे वह पूर्णतया असहमत हैं ।उनका मानना था कि इस प्रकार की लचर नीति का देश को भविष्य में बहुत ही घातक परिणाम भुगतना पड़ सकता है । वह मानते थे कि चीन और पाकिस्तान एक दिन भारत से विश्वासघात करेंगे। इसलिए इनके प्रति वर्तमान नेतृत्व को आंख खोलकर देखना चाहिए और किसी भी प्रकार के अतिरेक में बहकर निर्णय न लेते हुए पूर्ण सावधानी बरतकर निर्णय लिए जाएं । डॉक्टर अंबेडकर का स्पष्ट मानना था कि भविष्य में यह दोनों देश भारत के साथ किसी भी प्रकार का विश्वासघात कर सकते हैं इतिहास में यह स्पष्ट कर दिया कि डॉक्टर अंबेडकर का चिंतन हो समय व्यावहारिक था क्योंकि इन दोनों देशों ने ही भारत पर अभी तक युद्ध ठोकने का काम किया है यदि यह दोनों देश भारत के साथ मित्रता का व्यवहार करते तो निश्चय ही उसका लाभ न केवल दक्षिण एशिया को बल्कि सारे विश्व को भी मिलता , क्योंकि तब शांति का उपासक भारत वास्तव में संसार को शांति का पाठ पढ़ा रहा होता ।
दूसरी ओर सावरकर ने 26 जनवरी 1954 के ‘केसरी’ में छपे एक लेख में कहा, ‘पिछले 6 वर्षों में चीन ने अपना सैन्य-बल बढ़ाकर तिब्बत को हड़प लिया है। अब चीन और रूस की सीमा सीधे भारत से आ लगी है। ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान की रक्षा के लिए अफगानिस्तान, तिब्बत, नेपाल, सिक्किम, भूटान, ब्रह्मदेश आदि बफर राज्य निर्माण कर रखे थे। वे हमारे साथ रहना चाहते थे, लेकिन अब वे भी छितर रहे हैं।’
सावरकर देश के सजग प्रहरी थे, उन्होंने सोते हुए नेतृत्व को जगाने का काम किया । परंतु नींद में ऊंघते हुए नेतृत्व ने देश के उस सजग प्रहरी की बात को भी रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। भारत और चीन के बीच 29 अप्रैल 1954 को यह समझौता हुआ। ये सिद्धांत ही अगले कई वर्षों तक भारत की विदेश नीति की रीढ़ रहे। ये पांच सिद्धांत थे, एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना। एक-दूसरे पर आक्रमण न करना। आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना। समान और परस्पर लाभकारी संबंध और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व।
दिखने में तो यह सिद्धांत बड़े आकर्षक हैं परंतु चीन ने कभी भी किसी भी देश के साथ इस प्रकार के सिद्धांतों का पालन नहीं किया । उसने साम्राज्यवाद और विस्तारवाद को अपनाया और देशों की संप्रभुताओं के साथ खिलवाड़ करना आरंभ किया। उन घटनाओं से भारत के तत्कालीन नेतृत्व को सावधान होना चाहिए था। जब भारत का तत्कालीन नेतृत्व शांति की बातें कर रहा था और चीन की ओर से आंखें बंद किए बैठा था तब डॉक्टर अंबेडकर ने सावधानी भरे शब्दों में लखनऊ विश्वविद्यालय और काठमांडु में हुए विश्व धम्म सम्मेलन में कहा था कि ‘हमें मार्क्स नहीं, बुद्ध चाहिए।’
उनका आशय स्पष्ट था कि नेहरू जी को मार्क्सवादी चीन की बातों में फंसना नहीं चाहिए क्योंकि वह फंसते-फंसते चीन के क्रूर मार्क्सवाद से प्रभावित होते जा रहे हैं , जिससे शांतिप्रिय भारत की बुद्धवादी नीतियों को ग्रहण लगना निश्चित है। यद्यपि सावरकर जी और भी अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले नेता थे। वह इतिहास के मर्मज्ञ विद्यार्थी थे इसलिए वह यह भी जानते थे कि बुद्ध को अपनाना भी हमारे लिए घातक रहा है , इसलिए उन्होंने और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में नेहरू जी को सावधान करते हुए कहा था, ‘हमें बुद्ध नहीं, युद्ध चाहिए।’
सावरकर जी का आशय था कि राक्षसों से ना तो भयभीत होना चाहिए और ना ही उन्हें इस आशा से दूध पिलाना चाहिए कि वे हमारे लिए भविष्य में काम आएंगे ? समय रहते उन्हें कुचलने की तैयारी करनी चाहिए और दाव लगते ही कुचल डालना चाहिए। आत्मरक्षा के लिए आंखें बंद करने की प्रवृत्ति मरणशील जातियों का लक्षण है । इसलिए भारत को अपनी जीवन्तता का परिचय देते हुए चीन जैसे देश के प्रति आंखें बंद करके नहीं बैठना चाहिए अर्थात बुद्धवादी होकर शांति का उपदेश नहीं देना चाहिए बल्कि आवश्यक हो तो युद्ध के माध्यम से अर्थात सामरिक तैयारियां करने की ओर ध्यान देकर अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के लिए तैयारी करनी चाहिए।
काश ! नेहरू जी इन दोनों नेताओं की व्यावहारिक बातों पर और सलाहों पर ध्यान देते तो आज देश के लिए चीन इतना बड़ा सिर दर्द नहीं बना होता । तब हमारे लिए ना कश्मीर समस्या होती ना पीओके की कोई समस्या होती है , ना ही अरुणांचल प्रदेश में चीन कब्जा करने में सफल होता और ना ही आज हमें नेपाल आंखें दिखा रहा होता।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत