विष्णु के अवतार नहीं स्वयं विष्णु हैं राम
विष्णु किसको कहते हैं ?
विष्णु का स्वरूप किसमें कहा जा सकता है ?
क्या विष्णु की सवारी गरुड़ है ?
गरुड़ क्या है ? वह विशाल सा पक्षी या कुछ और होता है ? क्षीर सागर क्या तथा कहां है ?
उसमें शेषनाग पर कौन लेट रहा है ?
लक्ष्मी जी पैर दबा रही हैं विष्णु जी के?
यह अलंकारिक हैं या वास्तविक हैं ?
राजा कैसा होना चाहिए ?
महर्षि स्वामी दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के प्रथम समुल्लास में जहां ईश्वर के सौ नामों की व्याख्या की है वहां एक नाम ईश्वर का विष्णु भी बताया है।
और विष्णु ईश्वर को इसलिए कहा गया है कि वह सर्वत्र व्याप्त है, अर्थात सर्वव्यापक है। सर्वांतर्यामी हैं। इस जगत के कण-कण में विद्यमान हैं। साधारण सा अर्थ हुआ कि जो सभी जगह विद्यमान रहता है उसको विष्णु कहते हैं। विष्णु के अनेक पर्यायवाची शब्द हैं। परंतु जैसे परमात्मा के अनेक पर्यायवाची हैं वैसे ही आत्मा के भी अनेक पर्यायवाची हैं । विष्णु आत्मा को भी कहते हैं।
अर्थात आत्मा और परमात्मा को भी विष्णु कहते हैं। क्योंकि वह हमारा लालन पालन कर रहा है , संसार को क्रियाशील बना रहा है । यह जगत उसी परब्रह्म से ,उसी विष्णु से ओतप्रोत रहता है।
विष्णु सूर्य को भी कहते हैं। क्योंकि सूर्य से भी हमको चेतना आती है जो हमारे शरीर में कार्य करती है। इसलिए उस चेतना को भी विष्णु की ही प्रतिभा माना गया है। सतयुग में विष्णु एक उपाधि हुआ करती थी।
विष्णु राजा को भी कहते थे।
ब्रह्मर्षि कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी के अनुसार आत्मा के दो गुण हैं। ये आत्मा के दो -दो सहायक बने रहते हैं। एक को जय दूसरे को विजय कहते हैं। क्योंकि दोनों जय और विजय इसके पुत्रवत होते हैं और दोनों ही इसके समीप रहते हैं । जय और विजय ही इस संसार को तथा संसार की आभा को जानने वाले होते हैं। जय और विजय को ज्ञान और विवेक कहा गया है।
जिससे मनुष्य विवेकी बन जाता है। ज्ञान और विवेक का वाहन बनाकर के आत्मा मानव पवित्र हो जाता है विष्णु कहा जाता है। इससे उस मानव की संसार में विजय होती है।
जय और विजय विष्णु के अर्थात आत्मा के दो वाहन हैं ।विमान हैं। उसके दो गण हैं। इसलिए हमें ज्ञान और विवेक को ऊंचा बनाना चाहिए। इसी ज्ञान और विवेक से हम संसार को विजय कर लेते हैं। इसी विवेक से अपने मन पर अधिकार कर लेते हैं। अपनी प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं ।ज्ञान और विज्ञान से संसार पर छा जाते हैं।
यह संसार प्रभु की विष्णु की विभूति माना गया है। वास्तव में ज्ञान कहते हैं , व्यापकता को। इस बात का ज्ञान होना चाहिए व्यापक रूप में कि जिस वस्तु को विजय करना चाहता है उस पर विजय कैसे हो सकती है ? जिसका सीधा सा उत्तर है कि विजय ज्ञान और विवेक से संभव है। क्योंकि ज्ञान से प्रयत्न करता हुआ मानव लोक में लोकप्रिय बन जाता है और लोक पर छा जाता है ।छा जाने के पश्चात वह जय कर लेता है। संसार में जय हो जाती है। उसके पश्चात जब विवेक उत्पन्न होता है अर्थात ज्ञान के पश्चात विवेक की मात्रा आती है,तब विवेकी हो जाता है। विवेक के उत्पन्न होने पर इस संसार से उस मानव का मन उपराम हो जाता है। मान अपमान की धारा नहीं रहती।
ज्ञान से हम ज्ञानी बन कर के संसार के ऊपर हमारी एक महान सफलता हो जाती है। हमारे विचार अमित रूप से अंकित हो जाते हैं ।उसी का नाम तो ज्ञान कहा गया है। ज्ञान से ही संसार को विजय कर सकते तो ज्ञान बहुत गंभीर विषय है।
ज्ञान से जब हम अपनी इंद्रियों पर छा जाएंगे ,अर्थात इंद्रियों को अपने अधिकार में कर लेंगे। अपनी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा लेंगे तो इंद्रियों का ज्ञान हमारे समीप होगा। और वह व्यापकवाद होगा। संसार हमारा सर्वत्र कुटुंब बन जाएगा और कुटुंब में हम शिरोमणि बन जाएंगे तो हम संसार को विजय कर सकते हैं। संसार में हमारी प्रतिष्ठा हो सकती है ।ज्ञान तो संसार में एक महान है ।ज्ञान से ही संसार ऊंचा बना करता है। देखो ! मानव के द्वारा जो आभाएं उत्पन्न होती हैं, वह ज्ञान के द्वारा होती है। इसलिए मानव में ज्ञान होना चाहिए।
अब विवेक पर विचार करते हैं। विवेक किसे कहते हैं ? विवेक उसे कहा जाता है जो ज्ञान के पश्चात मानव में मौनपन आता है। उसकी प्रवृत्तियों से उस कुटुंब में हम सर्वत्र व्यापक अपनी प्रवृत्तियों को बना करके ज्ञान के द्वारा हम उसमें छा जाते हैं। विवेक से जो इंद्रियों के विषय हैं वे सिमटने लगते हैं, समाप्त होने लगते हैं। हृदय में विवेक जागृत हो जाता है ,जय और विजय दोनों को हम विवेक की दृष्टि से दृष्टिपात करते हैं। आज हमें विवेक को पान करना है।विवेक क्या है ? हम इसको जानना चाहते हैं। वेद का विचार भी यही कहता है। विवेक कहते हैं अपनी प्रवृत्तियों पर संयम करने को। अपने इंद्रियों के विषयों से जो लहर उत्पन्न होती है जब उन पर विजय हो जाती है ।अंतरात्मा में ही उनका दिग्दर्शन करते हैं। ह्रदय स्थल में ही उसको हम अपने में समाहित होता दृष्टिपात करते हैं, तो संसार में यह जो नाना प्रकार का भयंकर विषयों का जगत प्रतीत होता है। इससे मानव का आत्मा उपराम हो जाता है ।मानव की धारा में विचित्र बाद आने लगता है। विवेकी मन और प्राण दोनों का निरोध कर लेता है दोनों का घृत बनाया जाता है। घृत बनाकर के हृदय रूपी जो यज्ञ वेदी है ,जो एक स्थली है, जब हम उस में आहुति देते हैं तो वह जो हृदय में विवेक रूपी अग्नि शांत हो गई थी, उसमें ज्ञान के द्वारा वह जब आहुति दी जाती है, तो विवेक की अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। विवेक ऐसे प्रदीप्त हो जाता है जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा अपने संपन्न १६ कलाओं से युक्त हो जाता है। विवेक हमारे मानवीय जीवन को उत्तम बनाता है ।विवेक से ही देवता कहलाते हैं ।विवेक न हो तो ऋषि, ऋषि नहीं बनेगा ।मुनि ,मुनि नहीं बनेगा ,क्योंकि मुनि में सबसे प्रथम ज्ञान आता है ।ज्ञान के पश्चात विवेक आ जाता है , पांडित्य आ जाता है। और पांडित्य के पश्चात विवेक अपना हो जाने के पश्चात बाल्य प्रवृत्ति बन जाती है और बाल्य प्रवृत्ति वाले ऋषि को ही मुनि कहा जाता है।
विष्णु संसार में हमारे मानवीय शरीरों में व्यापक रूप से व्याप्त है , वह प्रेरणा दे रहा है। हमें उस प्रेरणा को स्वीकार कर लेना चाहिए , विष्णु क्या है? हमने देखा जय विजय अर्थात ज्ञान और विवेक दोनों विष्णु के गण हैं।
इसी प्रकार जब हम अपने राष्ट्र के राष्ट्रीय बनकर दूसरे राष्ट्रों पर विजय करना चाहते हैं तो उस समय हम जय और विजय को अपने समीप लाते हैं। जैसे एक राजा दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करता है। आक्रमण करता हुआ जय और विजय की घोषणा करता है। तब वह भी विष्णु बन जाता है ।विष्णु बन करके रूद्र रूप धारण करके अपने राष्ट्र को उत्तम बनाता है। राष्ट्र में महता लाता है ।उस राष्ट्र की प्रतिष्ठा समाप्त न हो जाए। राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाला चालक ,संचालक होता है। वह चाहता है कि उसकी भी विष्णु की सी महता मानी जानी चाहिए। जो राजा विष्णु बनकर रूद्र रूप को धारण नहीं कर सकता उस विष्णु की आभा को नहीं जान सकता, वह राजा नहीं कहा जा सकता।
महाराज भगवान राम इसीलिए विष्णु बन गए थे।(जिनको बहुत से अज्ञानी लोग विष्णु का अवतार कहते हैं परंतु आर्य समाज के लोग मानते हैं कि ईश्वर कभी भी अवतार रूप में नहीं आते) और जब वशिष्ठ मुनि के आदेशानुसार विष्णु बन गए तो उन्होंने विजय करने के लिए विचारा। माता की आज्ञा पाकर के भयंकर वन को चले गए। परंतु वह कैसा विचित्र महापुरुष था जिसके द्वारा एक महान क्रांति उसके मस्तिष्क में आती रहती थी ।उन्होंने महर्षि भारद्वाज मुनि महाराज से यही कहा कि महाराज मैं विजय कैसे प्राप्त कर सकता हूं ? महर्षि भारद्वाज बोले कि हे राम ! आज तुम विजय प्राप्त करना चाहते हो तो विष्णु बनो , और जय और विजय दोनों को अपनाने का प्रयत्न करो। देखो ! नीतिज्ञ बनो । जिससे तुम्हारी विजय हो जाए ।जो आतातायी है,आक्रमणकारी है वह नष्ट हो जाना चाहिए । भारद्वाज के इस विचार ने भगवान राम के आंगन में ऐसा स्थान ग्रहण कर लिया कि उसी वाक्य को उन्होंने अपने में धारण किया ।धारण करने के पश्चात उन्होंने दोनों जय विजय अर्थात ज्ञान और विवेक का मिलान किया। मिलान करने के उपरांत विष्णु रूप धारण किया।
और रावण का वध करके उसके भाई विभीषण को राज्य तिलक किया।
जो राजा विष्णु नहीं बन सकता ।अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा को ऊंचा नहीं बना सकता तो उत्तम ब्राह्मण समाज को चाहिए कि उस राजा को राष्ट्र से दूर कर दे। जो ज्ञानी और विवेकी न हो । यहां विष्णु बनाने की ही तो विचारधारा है ।इसलिए समाज में भी विष्णु बनने की सदैव आवश्यकता रहती है ।विष्णु वह कहलाता है जो इंद्रियों पर विजय करने वाला ,संयम करने वाला, अपनी उस महान विजय को अग्रणी बना करके अग्नि के समान बना करके वह अग्रणी बनकर के समाज को पवित्र बनाता है तथा स्वयम महान बनता चला जाता है।
विष्णु बन करके हम ज्ञान के द्वारा नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों में रमण करने लगते हैं। जहां यंत्रों का आवागमन हो जाता है। वह इस अंतरिक्ष के परमाणु वाद पर विजय पाना है ।परंतु विष्णु बन करके ही तो विजय पाई जाती है ।विष्णु नाम मानव की प्रवृत्तियों पर संयम करना होता है। परंतु ज्ञान से ही प्रवृत्तियों को शोधन किया जाता है। वे शोधन की हुई प्रवृत्ति है उन्हीं से जय और विजय की दोनों की घोषणा की जाती है।
विवेक से ही मानव संसार को विजय कर लेता है केवल भौतिक विष्णु बनने से हम एक राष्ट्र की ही विजय प्राप्त कर सकते हैं। परंतु जब आध्यात्म के विष्णु बन जाते हैं तो हम संसार पर विजय करने लगते हैं।जिसका ऊपर विवरण दिया जा चुका है कि हृदय में विवेक की अग्नि शांत हो गई थी उसमें ज्ञान के द्वारा जब आहुति दी गई तो विवेक की अग्नि प्रदिप्त हो गई थी । जिसके प्रदिप्त हो जाने से मानव जीवन उत्तम बनता है , देवता ,ऋषि ,मुनि कहलाए जाते हैं। संसार में हमारी प्रतिष्ठा हो जाती है संसार हमारी उस महता के आंगन में रमण करता रहता है। संसार में आकर अपनी मानवीय धारा को विचित्र बनाने का प्रयास करें ।मानव जीवन कैसे ऊंचा बनता है ? जब ज्ञान और विवेक मानव के समीप होगा ।विवेक और ज्ञान ही जय और विजय कहलाते जो विष्णु के गण हैं। विष्णु नाम आत्मा का कहा गया है।
विवेकी पुरुष कौन है ? जो आत्मवान बन जाए ।जो आत्मा को अच्छी प्रकार से पहचान ले। जिसके हृदय स्थल में हृदयता की एक महान प्रतिष्ठा विराजमान होती है। उसी हृदय की शुद्धता को हमें सदैव जानना है। जिस हृदय को हम सदैव पवित्र बनाना है।
हमें उन्हें हृदय को पवित्र बनाना चाहिए , जिन हृदय में जन्म जन्मांतरों के संस्कार विराजमान होते हैं। इन संस्कारों के आधार पर ही मानव संसार में आता रहता है और उसका विच्छेद भी होता रहता है।
अंत में हम कह सकते हैं कि ज्ञान और विवेक ही मानव को ऊंचा बनाते, विवेकी बना देते हैं। विवेकी जो पुरुष होता है वह महान कहलाया गया है ।महत्ता में रमण करने वाला पुरुष होता है वह महान कहलाया गया है। हम अपनी उस मानवीय महत्ता पर विचार विनिमय करने वाले बनें। जहां हमें विष्णु बनना है।
विष्णु के बाद उसके वाहन पर विचार करते हैं। विष्णु का वाहन क्या है?
विष्णु का वाहन गरुड़ बताया जाता है। गरुड़ की कल्पना करना हमारे लिए असंभव हो जाता है ।परंतु जब उसका वास्तविक स्वरूप हमारे समझ में आना प्रारंभ हो जाता है तो हम यह कहा करते हैं कि वास्तव में उनके विज्ञान की उड़ान कितनी विशाल रही है। भगवान विष्णु महान और पवित्र कहलाए गए। हमारे यहां विष्णु नाम परमात्मा को भी कहा गया है परंतु सतयुग में विष्णु नाम एक उपाधि को भी प्रदान किया जाता था। उसका वाहन रहता था। जैसे परमपिता परमात्मा को, एक चेतना को, एक सर्वव्यापक को विष्णु कहा जाता है ,ऐसे विष्णु का वाहन क्या है ?तो उनका ज्ञान स्वरूप होना ही है। क्योंकि गरुड़ नाम ज्ञान और विज्ञान की प्रतिभा को कहा जाता है।
स्पष्ट हुआ की गरुड़ कोई पक्षी नहीं है। बल्कि ज्ञान विज्ञान की प्रतिभा को गरुड़ कहा जाता है।
सतयुग में जिस व्यक्ति के पास ज्ञान ,विवेक ,जय और विजय ,ज्ञान _विज्ञान की प्रतिभा होती थी और जो अपनी इस प्रतिभा के कारण उड़ान भरता था। जो अपने हृदय में ज्ञान की आहुति देकर विवेक को जगाता था, वह विष्णु की उपाधि को प्राप्त करता था
और गरुड़ विष्णु के यहां बहुत बड़े महा वैज्ञानिक को कहा जाता था। इसी गरुड़ की उड़ान ज्ञान की कल्पनाएं ध्रुव मंडल से लेकर जेष्ठा नक्षत्र से आकाशगंगा तक विचरण करती थी उनके विज्ञान की उड़ान बहुत ही विचित्र का भव्य होती थी।
क्षीर सागर , पांच फन वाला शेषनाग ,लक्ष्मी जी पैर दबाती हुई यह क्या?
वास्तव में क्षीर सागर ज्ञान के सागर को कहते हैं ।जहां मानव को ज्ञान होता है। चारों प्रकार की बुद्धि उस मानस के समीप रहती हैं। बुद्धि ,मेधा ,ऋतम्भरा और प्रज्ञा। जहां यह चारों प्रकार की बुद्धि विद्यमान रहती हैं उसे अक्षय क्षीर सागर कहते हैं। बुद्धि निश्चित करती है कि नाना प्रकार के तारामंडल हैं ,यह ब्रह्मांड है।जब मनुष्य यौगिक क्रियाओं से साक्षात्कार कर लेता है तब उसे मेधावी कहते हैं और जब मनुष्य उनके अनुसरण करके अपने हृदय रूपी गुफा में धारण कर लेता है तो उसे ऋतंभरा प्राप्त हो जाती है।
जो परमात्मा में अवस्थित हो जाता है , अपने को ब्रह्मांड में और ब्रह्मांडको अपने ने दृष्टिपातकरता है। पिंड और ब्रह्मांड का दोनों का समन्वय करता है वह प्रज्ञा बुद्धि वाला बन कर के परमपिता परमात्मा का दिग्दर्शन करता है। इसी का नाम अक्षय क्षीर सागर है।
जो इस अक्षय क्षीर सागर में जाता है वही संसार सागर से पार हो जाता है।
हम जानते हैं कि मानव का शरीर एक अयोध्यापुरी है। जो अष्ट चक्र और नौ द्वारों वाली है। इसी पुरी में अंतरात्मा रहती है । परंतु किसी द्वार से निकलती नहीं । कैसा विचित्र राष्ट्र है ? अष्ट चक्र हैं। मूलाधार, नाभि चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, हृदय चक्र, कंठ , घ्राण ,त्रिवेणी, ब्रह्मरंध्र। इन्हीं से सोम रसपान कर लेता है।
यहां एक घटना और याद आ रही है कि आपने जनक के दरबार में अष्टावक्र की उपस्थिति सुनी होगी और बताया यह जाता है कि अष्टावक्र ऋषि के शरीर में आठ जगह कुब्ब अर्थात वक्र बने हुए थे।
अब उनके बारे में सुनिए कि अष्टवक्र क्या थे ?
महाराजा अष्टावक्र अष्ट चक्र की विवेचना जानते थे। अष्ट चक्रों के मूल को जानते थे ।इसलिए उन्हें अष्टावक्र भी कहते थे। अष्टावक्र उनका मूल नाम नहीं था। बल्कि उनकी एक उपाधि थी। ऋषि अष्टावक्र
मूलाधार में पृथ्वी विज्ञान को जानते थे। नाभि चक्र में वह वायु विज्ञान को जानते थे। स्वाधिष्ठान चक्र में अग्नि विज्ञान को जानते थे। हृदय चक्र में अंतरिक्ष विज्ञान को जानते थे ।कंठ चक्र में जन्म जन्मांतरों के उदान _ प्राण के साथ में चित् के मंडल को जानते थे । नासिका चक्र में अंतरिक्ष वाद और सभी दिशाओं को जानते थे और ब्रह्मरंध्र में जब पहुंचते तो सर्वत्र ब्रह्मांड में जितने लोक लोकान्तर हैं सब उस ऋषि के लिए खिलवाड़ बन गए ,और जब सोमरस का पान करने लगे तो जितना चंद्र मंडल है वह उसके अंतर मस्तिष्क में ओतप्रोत होकर ऋषि सोमपान कर रहा होता है।
अष्टावक्र ऋषि एक ही जन्म के ऋषि नहीं थे बल्कि इससे पहले जन्म में वह महर्षि विभांडक और विभांडक से पूर्व जन्म में मार्कंडेय ऋषि के नाम से उच्चारण किये जाते थे।
यह विष्णु रूपी आत्मा अक्षय क्षीर सागर , जिसकी कोई सीमा नहीं है में भ्रमण कर रहा है। शेषनाग क्या है ? पांच फन कौन-कौन से हैं?
विष्णु को समझ चुके हैं कि वह आत्मा है। पांच फन काम, क्रोध, लोभ ,मोह, अहंकार होते हैं। आत्मा रूपी विष्णु इन पांचों को दबा करके इनके ऊपर विश्राम करने लगता है और यह पांचों उसके नीचे हो जाते हैं दब जाते तब यह जो लक्ष्मी है, स्त्री है जो संसार को मोहने वाली है, मोहनी बनकर के मानव को कहीं का कहीं ले जाती है। यह उस ऋषि के जो शेषनाग के शय्या पर विश्राम कर रहा है उसके चरणों की वंदना करने लगती है ।यह वंदनीय बन जाती है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह मृत्यु के कार्य हैं अर्थात मृत्यु में ले जाने वाले हैं , अंधकार में ले जाने वाले हैं और जो ऋषि इनको दबा लेता है वह शेषनाग कहलाता है। वही विष्णु कहलाता है। वही इसके ऊपर लेट कर विश्राम करने लगता है।
फिर नारद जी वीणा बजाने लगते हैं।
अब नया प्रश्न कि नारद जी कौन है ?
वैदिक साहित्य में नारद के बहुत सारे पर्यायवाची हैं। परंतु जैसा हमने पहले कहा कि प्रकरण के आधार पर निर्णय किया जाता है कि क्या अर्थ लेना है ? नारद का अर्थ यहां मन का है। मन चंचल रूपी वीणा को लेकर के विष्णु रूपी आत्मा के समीप आ जाता है, और कहता है प्रभु मुझे क्षमा करो ।मैं वीणा के सहित आ गया हूं।
गंधर्व नाम बुद्धि का है जो गान गाने लगती है। मानव को रत्त बनाने के लिए उदगीत गाने लगती है ।गंधर्व बन जाती है और नारद वीणा को लेकर के मौन हो जाता है । यह वीणा का स्वर चलता रहता है । नृत्य करता रहता है और गंधर्व का स्वर चलता रहता है। वह गीत गाता रहता है । वह गाना गाता रहता है। कैसा वह गाता है। देवताओं से मिलने के लिए, देवता बनने के लिए ,ब्रह्मरक्ष का सब लोकों का गमन करने के लिए, और वह असुरपन को त्याग कर के देवता प्रवृत्ति बनाने के लिए ,यह गान गाने लगता है ।चंचलता को त्याग देता है।
इस प्रकार आत्मा विष्णु उस समय होता है जब वह योगी बन जाता है । जब वह संसार का कल्याण करने वाला हो जाता है। विष्णु उस राजा को भी कहते हैं जिस राजा के यहां चारभुज होते हैं। एक भुज में पदम, दूसरे में गदा ,तीसरे चक्र और चौथे में शंख होता है।
पदम नाम सदाचार और शिष्टाचार का है ।गदा नाम क्षत्रियों का है। चक्र नाम संस्कृति का है और शंख नाम वेद ध्वनि का है। जिस राजा के राज में शिष्टाचार सदाचार, छत्रिय , संस्कृति और वेद की ध्वनि होती है वही चतुर्भुज वाला कहा जाता है । इस प्रकार चतुर्भुज की भी एक उपाधि होती थी ।जिसमें यह चारों गुण होते थे उसको चार भुजाओं वाला कहते थे।
राम के राज्य में सदाचार ,शिष्टाचार , छत्रिय, संस्कृति और वेद की ध्वनि चारों पर्याप्त मात्रा में थे इसलिए उसको रामराज्य कहा जाता है । इसलिए उनको विष्णु कहा जाता है।
विष्णु का अवतार नहीं बल्कि विष्णु क्योंकि विष्णु उपाधि भी है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।