सिकन्दर और भारत का क्षत्रिय धर्म
महाभारत के युद्ध में अपने सगे – सम्बन्धी , मित्र , पुत्र- कलत्र को अपने सामने युद्ध के लिए खड़ा देखकर अर्जुन बहुत अधिक दुखी हो गया । अबसे पहले उसने यद्यपि कितनी ही बार अपने क्षत्रियपन का परिचय दिया था , परन्तु आज कुछ और ही बात थी ।
अर्जुन उस काल में वीरता ,पराक्रम ,साहस और शौर्य का पर्याय बन चुका था । युद्ध करने के लिए मोहग्रस्त होकर श्री कृष्ण जी से आज शौर्य का प्रतीक अर्जुन ही आग्रह करने लगा – ‘न योत्स्ये’ अर्थात मैं युद्ध नहीं करूंगा ।
श्री कृष्ण जी समझ गए कि अर्जुन मोह ग्रस्त होकर कायर न होते हुए भी कायरों का सा आचरण कर रहा है । अतः उन्होंने अर्जुन को गीता का जग प्रसिद्ध उपदेश महाभारत के समरांगण में दिया। जिसको सुनकर अर्जुन का मोह दूर हो गया । उसे सारे सांसारिक सम्बन्ध शरीर की भांति ही नश्वर और क्षणिक दिखने लगे । तब उसने कहा – ‘ धर्म की स्थापना हेतु युद्ध अवश्य करूंगा एवं अपने क्षत्रिय धर्म पर किसी भी प्रकार से आंच नहीं आने दूँगा।’ योगीराज श्री कृष्ण जी महाराज का अर्जुन को दिया गया यह क्षात्र धर्म सम्बन्धी उपदेश महाभारत के युद्ध के पश्चात भी क्षत्रिय वर्ग के योद्धाओं का देर तक मार्गदर्शन करता रहा है । यद्यपि महाभारत युद्ध के पश्चात भारतीय क्षत्रिय धर्म को बहुत अधिक ठेस पहुंची , क्योंकि महान योद्धाओं का इस युद्ध में विनाश हो गया था ।
इस अध्याय में हम विचार करेंगे कि श्री कृष्ण जी के इस उपदेश के सदियों पश्चात भी उनका उपदेश भारत के ‘अर्जुन’ का किस प्रकार मार्गदर्शन कर रहा था ? हमारे शासक और क्षत्रिय वर्ग को अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण ज्ञान और भान बना रहा । जिस प्रकार अर्जुन और अन्य पांडवों ने अपने क्षत्रिय धर्म के अनुकूल आचरण करते हुए शस्त्र उठाकर दुर्योधन जैसे दुष्टों का वध करके धर्म की स्थापना की , उसी प्रकार अर्जुन के पश्चातवर्ती शासकों के मन – मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना और प्रजावत्सलता का भाव यथावत बना रहा ।
सिकन्दर का आक्रमण
326 ईसा पूर्व में अर्जुन की इस वीरोचित परम्परा के प्रतीक पुरुष के रूप में जो व्यक्ति भारत पर शासन कर रहा था ,उसका नाम पुरु या पोरस था । दुर्योधन की भूमिका में उस समय कोई परिवार का व्यक्ति न होकर एक विदेशीआक्रमणकारी था जिसका नाम सिकन्दर था । भारतवर्ष के निरन्तर चल रहे पतन और धीरे-धीरे भारतीय शासकों द्वारा विश्व में अपने विशाल साम्राज्य को समेटते चले जाने के कारण विश्व इतिहास में पहली बार सिकन्दर ने विश्व विजेता बनने का सपना लिया । सिकन्दर का विश्व विजेता बनने का सपना और भारतवासियों के द्वारा विश्व साम्राज्य स्थापित कर चक्रवर्ती सम्राट बनने की परम्परा – इन दोनों में भारी अन्तर था।
सिकन्दर महान दार्शनिक व्यक्तित्व वाले महात्मा अरस्तू का शिष्य था । वास्तव में सिकन्दर ने सर्व कल्याण के पथिक महात्मा अरस्तू के आचरण को अपने जीवन में आत्मसात नहीं किया था । भारतीय प्राचीन शासकों के चक्रवर्ती साम्राज्य की विश्व प्रसिद्ध कथाओं ने सिकन्दर को विश्व विजेता बनने के लिए प्रेरित और उत्साहित किया । बात स्पष्ट है कि सिकन्दर ने प्राचीन भारतीय शासकों की राजनीतिक इच्छाशक्ति का तो अनुकरण किया पर उसने उन लोगों के साधनों का अनुकरण नहीं किया ।
सिकन्दर ने विश्व इतिहास में अपने विश्व विजेता होने के सपने को साकार करने के लिए पहली बार हिंसा के रास्ते को अपनाया । जिसने अपने गुरु अरस्तु की भांति आत्मविजय को न अपनाकर विश्व को तलवार के बल पर विजयी करने का मार्ग चुना। सिकन्दर चिन्तन के भटकाव का शिकार बन चुका था। उसके चिन्तन को सही मार्गदर्शन नहीं सूझ रहा था। अपने विश्व विजयी होने के स्वपन को साकार करने के लिए वह इतना व्यग्र और आतुर था कि उसने अपनी युवावस्था में अपने पिता की स्वाभाविक मृत्यु की प्रतीक्षा न करके उसकी भी हत्या कर दी थी । वह पितृहन्ता बनकर भी इस बात पर प्रसन्न था कि अब वह एक शासक बनकर अपने विश्व विजयी होने के सपने को साकार कर सकेगा । यदि किसी व्यक्ति के मन – मस्तिष्क को किसी सच्चे धार्मिक अथवा महात्मा का उपदेश भी अपने रंग में रंगने में असमर्थ हो जाए तो फिर ऐसे व्यक्ति को शैतान की श्रेणी में रखना ही श्रेयस्कर होगा । क्योंकि वह व्यक्ति मानवता का शुभचिन्तक और हितचिन्तक नहीं माना जा सकता और ना ही उससे प्राणिमात्र के कल्याण की अपेक्षा की जा सकती है। वह तो संसार को विनाश की भट्टी में झोंकने के लिए जन्म लेता है । सारे संसार के लिए उसके जीवन का सार और सन्देश भी यही होता है।
सिकन्दर ने अपने जीवन में अपने गुरु महात्मा अरस्तु की शिक्षाओं का तनिक सा भी ध्यान न दे करके हिंसा के रास्ते को अपनाया । उससे उसके जीवन से मिलने वाला सार और सन्देश मानवता और प्राणिमात्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता है। सिकन्दर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पतन के प्रारम्भिक काल में पहला रक्त पिपासु शासक था , जिसने भारत पर उस समय आक्रमण करने की योजना बनायी । जिसका अनुकरण कालान्तर में विदेशियों और विशेष रूप से इस्लामिक शासकों द्वारा भारत के विरुद्ध किया गया । दूसरे शब्दों में कहें तो सिकन्दर के पश्चात भारत वर्ष पर जितने भी विदेशी आक्रमण हुए उन सबका बीजारोपण सिकन्दर ने ही अपने आक्रमण के माध्यम से कर दिया था। सिकन्दर और बाद के इस्लामी शासकों अथवा आक्रमणकारियों में अन्तर मात्र इतना था कि सिकन्दर स्वयं यहाँ अपना शासन स्थापित नहीं कर पाया था और न ही उसने निर्णायक जीत ही प्राप्त की थी। पोरस के रूप में भारतीय पौरुष ने उसे बहुत भयंकर ढंग से पराजित किया था । पोरस नाम की शक्ति के कारण सिकन्दर अपने लक्ष्य में ही असफल सिद्ध हो गया था । जबकि बाद में आये इस्लामिक आक्रमणकारियों में से कई ने भारतवर्ष में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
पोरस महान और आम्भी की गद्दारी
सिकन्दर का व्यक्तित्व एक लुटेरे , डाकू, हत्यारे , अनाचारी , रक्तपिपासु शासक से बढ़कर कुछ नहीं है। इतिहास में स्थान पाने के लिए उसके द्वारा जो रास्ता अपनाया गया था वह सर्वथा निन्दनीय और घृणित था। इतिहास का यह अत्याचारी शासक अपनी विश्व विजय की महत्वाकांक्षा की प्यास को बुझाने के लिए कई देशों को अपनी विश्व विजेता बनने की इच्छा के समक्ष झुकाता और मिटाता हुआ भारत की ओर बढ़ा । उसने इस पावन राष्ट्र की सुन्दर
सीमाओं की खिड़कियों से इसके राजनीतिक दृश्यपटल पर दृष्टिपात किया तो चिनाब नदी के निकट के क्षेत्रों पर शासन करने वाले शासक पोरस पर इसकी दृष्टि पड़ी।
पोरस महान भारत के राजनीतिक अखाड़े में मस्ती के साथ घूमने वाला एक शेर था । वह स्वाभिमान और आत्म गौरव की प्रतिमूर्ति था । इस स्वाभिमान और आत्मगौरव की प्रतिमूर्ति से सर्वाधिक ईर्ष्या भाव की किसी अन्य विदेशी शासक द्वारा न रखने के स्थान पर स्वजातीय भाई आम्भी नामक भारतीय नरेश द्वारा ही बरता जा रहा था ।
यहीं पर हमें भारतीय इतिहास में ‘जयचन्द’ और ‘मीर जाफर’ का पूर्वज आम्भी के रूप में मिलता है। यह भारतीयों के भीतर श्वान प्रवृत्ति सर्वप्रथम जागृत हुई । जिसका इतिहास में प्रतिनिधित्व आम्भी ने किया । इस प्रवृत्ति के तहत स्वजातीय भाई से ईर्ष्या और मत्सर अर्थात जलन की अधिकता होती है। जो हमारे भीतर उस समय प्रविष्ट हो चुकी थी।
पोरस की तीव्र दृष्टि ने यह भली-भांति भांप लिया था कि सिकन्दर से होने वाला युद्ध वास्तव में अपने धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए होने वाला युद्ध है ।अपनी राष्ट्रीय अस्मिता स्वाभिमान को बचाए और बचाए रखने के लिए वह पूर्ण मनोयोग , पूर्ण शक्ति व सामर्थ्य से इस विदेशी आक्रान्ता से भिड़ गया । जिसमें पोरस की निर्णायक जीत और सिकन्दर की पराजय हुई ।
इतिहासकारों ने किया है छल
जबकि हमारे इतिहासकारों ने एक बहुत ही बड़ा ऐतिहासिक विभ्रम उत्पन्न कर दिया है कि इस युद्ध में पोरस की पराजय और सिकन्दर की जीत हुई थी। इस ऐतिहासिक विभ्रम को सिकन्दर की एक प्रेमिका ने पैदा किया था । जिसने युद्ध से पूर्व पोरस की कलाई पर राखी बांध कर उसे अपना भाई बना लिया था। सिकन्दर की उस प्रेमिका ने बदले में अपने प्रेमी सिकन्दर के प्राण न लेने का वचन राजा पोरस से ले लिया था। जिसे पोरस ने युद्ध क्षेत्र में प्राणपण से निभाया । कई बार सिकन्दर उसके सामने आ गया था, पर राजा ने अपनी ‘बहन’ को दिए गए वचन का ध्यान कर उसके प्राण नहीं लिए। राजा ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार हो गया।
सिकन्दर का युद्ध से बच निकलना और यूनानियों द्वारा इस घटना को अतिरंजित करते हुए लिखने से इस झूठ को और अधिक बल मिला कि राजा पोरस को सिकन्दर ने परास्त किया था। भारतीयों द्वारा इसके प्रति उदासीनता बरतने के भाव ने उक्त ऐतिहासिक विभ्रम को मान्यता प्रदान करा दी ।
हम भारतीयों ने ईर्ष्या भाव से पोरस की महानता और वीरता का गुणगान नहीं किया । यह पतन का लक्षण है । उधर विदेशियों ने अपनी एक घटना को भी खूब बढ़ा – चढ़ाकर प्रस्तुत किया , जबकि सच तो यही है कि :–
यवन को दिया दया का दान
चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण भूमि को रतन
शील की सिंहल में भी सृष्टि।।
जयशंकर प्रसाद जी की राष्ट्रप्रेम से परिपूर्ण उपरोक्त पंक्तियां इसी ऐतिहासिक विभ्रम को दूर करने के लिए लिखी गईं ।
सिकन्दर उल्टे पैरों भाग गया
सिकन्दर के आक्रमणकालीन भारतीय क्षत्रिय धर्म के सशक्त होने का एक प्रमाण यह भी है कि सिकन्दर और उसकी सेना का मनोबल पोरस से परास्त होने के पश्चात इतना टूट गया कि उसने भारत की केंद्रीय सत्ता अथवा अन्य शासकों से युद्ध करने के स्थान पर स्वदेश वापसी की योजना बनाकर स्वदेश गमन कर दिया अर्थात वह उल्टे पैरों भाग गया । इस घटना से यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत का आदर्शवाद इसके लिए इतिहास में सदा घातक रहा है । इस आदर्शवाद ने ही हमको अहिंसावाद की मिथ्या परिभाषा के जाल में फंसाया। पोरस ने आदर्शवादी बनकर जिस प्रकार सिकन्दर को परास्त करने के उपरान्त भी प्राणदण्ड से मुक्त कर दिया , वह एक सामान्य व्यक्ति के लिए तो उचित कहा जा सकता है, किन्तु जिस व्यक्ति के सिर पर राष्ट्रीय दायित्वों का बोझ हो , उससे इस प्रकार के भावनात्मक निर्णय की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । राजा पोरस को उस समय अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को पहचानते हुए सिकन्दर के प्रति कूटनीति अपनानी चाहिए थी।
यदि पोरस ऐसा ही राष्ट्रीय कर्तव्यपरक निर्णय सिकन्दर के प्रति लेता तो सिकन्दर विश्व इतिहास का महान व्यक्तित्व न होकर मानवता का हत्यारा बनकर रह जाता । जबकि पोरस अपनी संस्कृति और अपने धर्म की सुरक्षा हेतु मानवीय मूल्यों के प्रति पूर्णतया समर्पित अदम्य साहस , पराक्रम और शौर्य का प्रतीक बनकर विश्व के इतिहास में सुशोभित होता । भारत का दुर्भाग्य रहा कि उसकी जनता वीरोपासक होते हुए भी अपने वीरों को राष्ट्रभक्त और देश प्रेमियों को सच्ची श्रद्धांजलि न देने के लिए हमेशा ठगी जाती रही है ।
इस आत्मघाती विचार को यूरोपियन इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को तोड़ – मरोड़ कर प्रस्तुत करते हुए प्रोत्साहन दिया । उन्होंने अपने साम्राज्य की सुदृढ़ता के लिए हमें सदा हमारे महान वीरों और राष्ट्र भक्तों के राष्ट्रप्रेम को इस प्रकार पढ़ाने व समझाने का प्रयत्न किया कि वे सर्वथा कायर लगने लगें । उन्होंने यह प्रयास किया कि भारतीयों को यह अनुभूति हो जाए कि हम तो प्राचीन काल से ही पिटते हुए आए हैं ।
फैलाई गई हैं भारत के बारे में भ्रान्तियां
और तो और भारतीयों के विषय में यह भी ऐतिहासिक विभ्रम उत्पन्न किया गया कि आर्य अर्थात भारत के मूल निवासी भारत में कहीं बाहर से आए थे । अपने घर में हम बेगाने हैं अथवा यहीं के मूल निवासी हैं ? – यह प्रश्न उत्तरित होते हुए भी हमारे कई इतिहासकारों के लिए एक पहेली बना हुआ है,क्योंकि हमारे मन में यह संस्कार भली प्रकार बैठा दिया गया है कि :-
सर जमीन ए हिंद पर अक्वामे आलम के फिराक। काफिले आते गए हिन्दोस्तां बनता गया।।
रघुपति सहाय ‘फिराक’ के इस शेर से भारत और भारतीयता के प्रति ऐसी – ऐसी अतार्किक और निराधार धारणाओं को स्थापित किया गया जिससे भारतीयता अपमानित हुई । पोरस का व्यक्तित्व भी इसका अपवाद नहीं है । ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में सिकन्दर के विश्व विजेता बनने के सपने को चकनाचूर करने वाला पोरस वास्तव में महान था। पोरस निश्चित रूप से हम भारतवासियों के लिए इतिहास में एक पूजनीय और गौरवपूर्ण व्यक्तित्व है। यदि पोरस सिकन्दर को अपने नियन्त्रण में कर उस समय उसे पराजित न करता तो वह और भी न जाने कितने निरपराध लोगों को मौत के घाट उतार देता। यहाँ पर विचारणीय तथ्य यह भी है कि हमने पोरस को मानवता की सेवा के बदले में क्या दिया ? इतिहास के इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत करते हुए स्वयं इतिहास की आंखें नम हो जाती हैं । क्योंकि हमने अपने इतिहास के इस महानायक को उपेक्षा और अपमान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिया है । इतिहास से सिकन्दर को बलात महान कहलवाया जाता है । जिससे इतिहास की अपनी आत्मा की कराह उठती है ।
‘इंडो ग्रीक’ संस्कृति की भ्रान्ति
इतिहास की पुस्तकों में हमने यह भी पढा है कि इस आक्रमण के पश्चात यूनानी और भारतीय संस्कृति दोनों एक दूसरे के निकट आईं । इतिहास में पढ़ाया जाता है कि इन दोनों संस्कृतियों के इस प्रकार निकट आने से एक नई संस्कृति अर्थात ‘इंडो-ग्रीक’ संस्कृति विनिर्मित हुई । वास्तव में यह भी एक ऐतिहासिक विभ्रम ही है । सच्चाई यह है कि वैदिक वांग्मय की ज्ञानधारा को अपनाकर और उसकी चिन्तन शैली के आधार पर ही आज तक संसार में वैज्ञानिक उन्नति सम्भव हुई है । यही प्राचीन काल से भारत के साथ होता आया है कि इसकी ज्ञानधारा को चुराकर नई-नई खोजें और नए-नए आविष्कार संसार ने किए हैं । सत्य तो यही है कि वेद समस्त ज्ञान का भण्डार है। इसीलिए समस्त संसार वेद और वैदिक लोगों से ज्ञान – विज्ञान की खोजों और अनुसन्धानों की आशा करता आया है । इस भाव के कारण भारतद्वेषी लोगों ने भारतीय संस्कृति की प्रधानता को नष्ट करने का हर सम्भव प्रयास किया है । यह अलग बात है कि वैदिक संस्कृति के मूल तत्व और ज्ञान-विज्ञान को चुरा – चुरा कर उससे अनुप्राणित होकर ये लाभ उठाते रहे। पोरस और सिकन्दर के युद्ध के पश्चात जो भी वैज्ञानिक खोजें यूनानियों की ओर से विश्व के समक्ष उजागर हुईं उनके मूल में भारतीय दर्शन और ज्ञान – विज्ञान ही कार्य कर रहा था । इसलिए इन शोधों, अनुसन्धानों या आविष्कारों को किसी काल्पनिक ‘इंडो -ग्रीक’ संस्कृति की परिणति बताना ऐतिहासिक विभ्रम को प्रोत्साहित करना है।
सिकन्दर को महान मानने की भूल
हम भारतवासियों की आतिथ्य सत्कार की आदर्श भावना राष्ट्र के लिए कई बार दुखदायक रही है। इतिहास की दृष्टि में हर इतिहासकार इसे हमारे एक गुण के रूप में प्रस्तुत करता रहा है। आतिथ्य सत्कार भावनाओं पर आधारित होता है । हमें ध्यान रखना चाहिए कि उसकी भी अपनी सीमा है। फिर पता नहीं ये इतिहासकार हमें राजनीति में भी भावनाओं के आधार पर बढ़ने के लिए क्यों प्रेरित और उत्साहित करते आ रहे हैं ? जबकि भावनाओं का राजनीति से कोई लेना देना नहीं होता । आतिथ्य सत्कार के क्षणों में भावनाएं प्रकट की जा सकती हैं, परन्तु जिस समय दोनों देशों के राजनयिक अपने अपने देशों का पक्ष रखने के लिए बैठते हैं तो उस समय केवल राष्ट्रीय दायित्व बोध ही एकमात्र विकल्प रह जाता है। वहाँ तो कर्तव्य को ही प्राथमिकता देना उचित और अनिवार्य होता है ।
हो सकता है राजनीति में भी भावनाओं को ही उचित और अनिवार्य मानने वाले लोगों ने सिकन्दर को महान बताया हो। यद्यपि सिकन्दर का भावनाओं से दूर दूर तक का भी कोई सम्बन्ध नहीं है , जो व्यक्ति स्वयं अपने पिता को मारकर शासक बना हो ,उसके यहाँ भावनाओं को कितना सम्मान हो सकता है ? – इस एक उदाहरण से ही इस तथ्य को भली प्रकार समझा जा सकता है। राजनीति और भावनाओं की इस बेमेल खिचड़ी से हम सिकन्दर को महान मानते आ रहे हैं।
उस समय के साथ भारतीय क्षत्रिय धर्म के सच्चे प्रतिनिधि पोरस को उपेक्षित करते आ रहे हैं । जब तक भारतीय राष्ट्र विदेशियों की परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा रहा , तब तक विदेशियों ने ही हमारे इतिहास का लेखन कार्य किया । जिनसे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सचमुच में भारत के इतिहास के साथ न्याय करते हुए अतीत की घटनाओं का यथावत चित्रण करते ।
ऐसा करने का अभिप्राय होता कि भारतवासियों को उनके पराक्रम और शौर्य से परिचित कराकर परतन्त्रता की बेड़ियों को शीघ्रातिशीघ्र काटने के लिए प्रेरित करना । अंग्रेजों ने कूटनीति से काम लिया। फलस्वरूप हमें ऐसा इतिहास पढ़ाया गया जो हमें स्वाधीनता के सपने भी न लेने दे और परतन्त्र रहने को ही ‘सौभाग्य’ मानकर हमें चलने के लिए प्रेरित करता रहे । हमारे तर्क और विवेक पर मैक्समूलर , लेनपूल आदि विदेशी लेखकों के तर्क और विवेक को बैठाकर उसे बन्द कर दिया गया । जो लोग राष्ट्रीयता के दृष्टिकोण से हमारे लिए स्वभाव से शत्रु भाव रखते थे उन्होंने हमें बुद्धिहीन और तर्कहीन बनाकर मानसिक दिवालियापन की अंधेरी कोठरी में धकेल दिया। फलस्वरूप हम आज तक भी शेर को सियार मानकर चल रहे हैं । यह झूठ हमारे अंतःकरण में इस प्रकार सच बनाकर बैठा दिया गया है कि इसे परिवर्तित करने का साहस हम स्वाधीन भारत में भी ऐतिहासिक तथ्यों के उपलब्ध होने के उपरान्त भी नहीं कर पा रहे हैं ।
वास्तव में पोरस स्वतन्त्रता की देवी का सच्चा आराधक ,मानवीय धर्म की गरिमा को भंग करने वाले एक विदेशी आक्रमणकारी को नष्ट करने वाला महान शूरवीर ,अहिंसा की रक्षा करने में तनिक भी संकोच न करने वाला महान सेनानायक और राष्ट्र धर्म की प्राणपण से रक्षा करने वाला महान राष्ट्रनायक था । यह तथ्य यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय तक भारतीय राष्ट्रवाद के पतन काल में भी मिथ्या अहिंसावाद को हमारे शासकों ने अपनाया नहीं था , अपितु भारत का क्षत्रिय धर्म अपने शुद्ध और निर्मल स्वरूप में कार्यरत था।
सिकन्दर के आक्रमण से जो थोड़ी बहुत क्षति हुई भी थी , उसकी पूर्ति भी चाणक्य और चन्द्रगुप्त की जोड़ी ने बहुत शीघ्रता से कर दी थी। उन्होंने जिस प्रकार सिकन्दर के आक्रमण के तुरन्त पश्चात देश की सीमाओं की रक्षा के विशेष प्रयत्न किए , वे सब यह सिद्ध करते हैं कि भारत में उस समय भी राष्ट्रवाद की भावना प्रबल थी । चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने अपने राष्ट्रवादी कार्यों से यह सिद्ध किया कि उनके लिए राष्ट्र प्रथम है। मिथ्या अहिंसावाद या देश को दुर्बल करने वाला कोई भी विचार उन्हें छू तक नहीं गया था। एक प्रकार से चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने राजा पोरस के महान राष्ट्रवादी कार्यों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए उसकी कार्य योजना को आगे बढ़ाया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत