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पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ( 26 अप्रैल 1864-1890 ), महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनन्य शिष्य एवं कालान्तर में आर्यसमाज के प्रमुख नेता थे। उनकी गिनती आर्य समाज के पाँच प्रमुख नेताओं में होती है। मात्र छब्बीस वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया किन्तु उतने ही समय में उन्होने अपनी विद्वता की छाप छोड़ी,अनेकानेक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों की रचना की और डी ऐ वी कालेज की स्थापना की।
डीएवी, “दयानंद एंग्लो वैदिक” का संक्षिप्त रूप है। प्राचीन वैदिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा देने के उद्देश्य से इसका नाम दयानंद एंगलों वैदिक रखा गया । डीएवी निजी क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ी शिक्षण संस्थान है। डीएवी वैदिक आध्यात्मिक उपदेष्टा स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों पर आधारित है। डीएवी स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा देता है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बौद्धिक, वैचारिक एवं आध्यात्मिक रूप से पुनर्जीवित करना था। उन्होने “वेदों की ओर वापस” जाने का आह्वान किया जिसका वास्तविक अर्थ “शिक्षा का प्रसार” करना था। स्वामी दयानन्द का विश्वास था कि शिक्षा के प्रसार के द्वारा ही देश के कोने-कोने में जागृति आयेगी। महर्षि दयानन्द की स्मृति को चिरस्थाई करने व उनके सपनों को साकार करने के लिये पं गुरुदत्त विद्यार्थी ने अपने सहयोगियों से मिल कर “दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट तथा प्रबन्धन समिति” का गठन किया । एक जून सन् 1886 में इस समिति का पंजीयन (रजिस्ट्रेशन) हुआ। 1886 में ही समिति का पहला डीएवी स्कूल लाहौर में स्थापित हुआ और लाला हंसराज इसके अवैतनिक प्रधानाचार्य बनाये गये। इस प्रकार एक शैक्षिक आन्दोलन की नींव पड़ी। अनेक दूरदर्शी एवं राष्ट्रवादी जैसे लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, लाला द्वारका दास, बक्शी रामरतन, बक्शी टेक चन्द आदि ने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया और इसे पूरे देश में फैलाया। महात्मा नारायण दास ग्रोवर (15 नवम्बर 1923 – 6 फ़रवरी 2008) भारत के महान शिक्षाविद थे। वे आर्य समाज के कार्यकर्ता थे जिन्होने ‘दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज आन्दोलन’ (डीएवी आंदोलन) के प्रमुख भूमिका निभायी। उन्होने अपना पूरा जीवन डीएवी पब्लिक स्कूलों के विकास में लगा दिया। उन्होंने इस संस्था की आजीवन अवैतनिक सेवा प्रदान की। इस समय देश विदेश में इसकी हजारों शाखाएं हैं। इसके अतिरिक्त दयानंद विश्वविद्यालय, पोलीटेक्निक कालेज, मैडिकल कॉलेज भी हैं।
जिस उद्देश्य को लेकर पं गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने इसकी स्थापना की थी वह पूरा नहीं हो पा रहा। वर्तमान अधिकारियों का यह परम कर्तव्य है कि वे इस ओर विशेष ध्यान दें। प्रवेश के समय विद्यार्थियों व अध्यापकों को सत्यार्थप्रकाश भेंट किया जाए और कक्षाओं में हर सप्ताह वैदिक विद्वानों के व्याख्यानों की व्यवस्था की जाए।
(In order to save and flourish the pious Vedic Culture and to spread education in english as well as in Anglo Education System (i.e. modern science and maths), DAVs were set up. Hence the Name ANGLO (English) – VEDIC (Vedic culture). Actually, DAV Institution was started or founded as a means to educate the youth about Vedic Culture, but only teaching that wasn’t and still isn’t enough to let a child have a good future ( by good future I mean good job), since that time was of Britons. So, in order to save and flourish the pious Vedic Culture and to spread education in English as well as in Anglo Education System (i.e. modern science and maths), DAVs were set up. Hence the Name ANGLO (English) – VEDIC (Vedic culture). It holds the record for producing the largest number of CBSE (class Xth and XIIth) toppers as a single institution in the last many years)
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अद्भुत प्रतिभा, अपूर्व विद्वत्ता एवं गम्भीर वक्तृत्व-कला के धनी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल 1864 को मुल्तान के प्रसिद्ध ‘वीर सरदाना’ कुल में हुआ था। आपके पिता लाला रामकृष्ण फारसी के विद्वान थे। आप पंजाब के शिक्षा विभाग में झंग में अध्यापक थे।
विशिष्ट मेधा एवं सीखने की उत्कट लगन के कारण वे अपने साथियों में बिल्कुल अनूठे थे। किशोरावस्था में ही उनका हिन्दी, उर्दू, अरबी एवं फारसी पर अच्छा अधिकार हो गया था तथा उसी समय उन्होंने ‘द बाइबिल इन इण्डिया’ तथा ‘ग्रीस इन इण्डिया’ जैसे बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ लिये। कॉलेज के द्वितीय वर्ष तक उन्होंने चार्ल्स ब्रेडले, जेरेमी बेन्थम, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पाश्चात्त्य विचारकों के शतशः ग्रन्थ पढ़ लिये। वे मार्च, 1886 में पंजाब विश्वविद्यालय की एम ए (विज्ञान, नेचुरल साईन्स) में सर्वप्रथम रहे। तत्कालीन महान समाज सुधरक महर्षि दयानन्द के कार्यों से प्रभावित होकर उन्होंने 20 जून 1880 को आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की। महात्मा हंसराज व लाला लाजपत राय उनके सहाध्यायी तथा मित्र थे। वे ‘द रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ के वे सम्पादक रहे। 1884 में उन्होने ‘आर्यसमाज साईन्स इन्स्टीट्यूशन’ की स्थापना की।
अपने स्वतन्त्र चिन्तन के कारण इनके अन्तर्मन में नास्तिकता का भाव जागृत हो गया। दीपावली (1883) के दिन, महाप्रयाण का आलिंगन करते हुए महर्षि दयानन्द के अन्तिम दर्शन ने गुरुदत्त की विचारधरा को पूर्णतः बदल दिया। अब वे पूर्ण आस्तिक एवं भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रबल समर्थक एवं उन्नायक बन गए। वे डीएवी के मन्त्रदाता एवं सूत्रधार थे। पूरे भारत में साईन्स के सीनियर प्रोफेसर नियुक्त होने वाले वह प्रथम भारतीय थे। वे गम्भीर वक्ता थे, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उन्होंने कई गम्भीर ग्रन्थ लिखे, उपनिषदों का अनुवाद किया। उनका सारा कार्य अंग्रेजी में था। उनकी पुस्तक ‘द टर्मिनॉलॅजि ऑफ वेदास्’ को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया। उनके जीवन में उच्च आचरण, आध्यात्मिकता, विद्वत्ता व ईश्वरभक्ति का अद्भुत समन्वय था। उन्हें वेद और संस्कृत से इतना प्यार था कि वे प्रायः कहते थे कि – “कितना अच्छा हो यदि मैं समस्त विदेशी शिक्षा को पूर्णतया भूल जाऊँ तथा केवल विशुद्ध संस्कृतज्ञ बन सकूँ।” ‘वैदिक मैगजीन’ के नाम से निकाले उनके रिसर्च जर्नल की ख्याति देश-विदेश में फैल गई। यदि वे दस वर्ष भी और जीवित रहते तो भारतीय संस्कृति का बौद्धिक साम्राज्य खड़ा कर देते। पर, विधि के विधान स्वरूप उन्होंने 19 मार्च 1890 को चिरयात्रा की तरफ प्रस्थान कर लिया। पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने 2000 ई में उनके सम्मान में अपने रसायन विभाग के भवन का नाम ‘पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी हाल’ रखा है।
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– डा मुमुक्षु आर्य