ओ३म्
‘मालाबार में मोपला हिंसा में पीड़ित हिन्दू बन्धुओं की रक्षा एवं पुनर्वास का आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास’
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देश के इतिहास में सन् 1921 में केरल के मालाबार में एक गांव में मोपलाओं ने हिन्दू जनता पर अमानवीय क्रूर हिंसा की थी। इस पर अंग्रेजों को तो कोई आपत्ति नहीं थी न उन्होंने इसके अपराधियों पर कोई कार्यवाही की। अनुमान है कि इसे अंजाम देने में उनका गुप्त योगदान था। देश के प्रमुख राजनैतिक नेताओं ने भी इस अमानवीय घटना पर अपने मुंह बन्द रखे थे। इस घटना पर देशभक्त जीवित शहीद वीर सावरकर जी ने ‘मोपला’ नाम का प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था। हिन्दू विरोधी इस कुकृत्य को जानने के लिए हिन्दू जनता द्वारा इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिये। मोपलाओं की हिन्दू विरोधी हिंसक घटनाओं का उल्लेख महात्मा आनन्द स्वामी जी की श्री सुनील शर्मा जी द्वारा लिखी जीवनी में भी आया है। यह भी बता दें कि महात्मा हंसराज जी और महात्मा आनन्द स्वामी जी का वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा आनन्द स्वामी जी लाहौर से प्रकाशित ‘आर्यगजट’ उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक रहे। आपने महात्मा हंसराज जी की प्रेरणा से लाहौर से उर्दू ‘मिलाप’ दैनिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया था। यह पत्र अत्यन्त लोकप्रिय रहा। वर्तमान में भी यह दिल्ली से प्रकाशित होता है। महात्मा आनन्द स्वामी जी की कहानियां आर्यगजट में प्रकाशित हुआ करती थी। उनके तीन कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। आपके उपदेशों के अनेक संग्रह कई शीर्षकों से प्रकाशित हैं। आज भी लोग इन पुस्तकों को बहुत श्रद्धा भक्ति से पढ़ते हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी जीवनी से हम मालाबार में मोपला हिंसा की महत्वपूर्ण चर्चा को श्री सुनील शर्मा के ही शब्दों में ही प्रस्तुत कर रहे हैं।
अंग्रेजी शह पर नर-संहार
अंग्रेजो को लगा कि यदि भारतीयों में यह एकता इसी प्रकार मजबूत होती गई तो उनकी जड़े उखड़ते देर नहीं लगेगी। उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ का हथकण्डा अपनाया। मालाबार के मोपला मुसलमानों की पीठ थपथपाकर उसने ऐसा नर-संहार कराया कि वहां हिन्दुओं का अस्तित्व ही उखड़ने लगा। पुरुषों को जान से मार डाला गया, स्त्रियों का सतीत्व लूट लिया गया, तीर्थ-स्थलों और पूजा-गृहों को मटियामेट कर दिया गया, दुकानें लूट ली गईं, मकान जला दिये गए, निरीह बच्चों और बूढ़ों तक को न छोड़ा गया। कटे हुए मुण्डों के ढेर लग गए। लावारिस पड़ी लाशों को कुत्ते नोचने लगे। आश्चर्य इस बात का रहा कि इतने बड़े हत्याकाण्ड में एक भी अंग्रेज न हत हुआ, न क्षत हुआ और एक भी मोपला हत्यारा गिरफ्तार नहीं किया गया। इसकी बजाय सचाई पर पर्दा डालने का प्रयत्न किया गया। पूरे काण्ड को ‘मोपला-विद्रोह’ का नाम देकर यह प्रमाणित करने का यत्न किया गया कि हिन्दुओं के संत्रास से तंग आकर ही मोपलाओं ने अपने दिल की भड़ास निकाली। अंग्रेज सरकार ने प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया, ताकि मालाबार में हिन्दुओं के सफाये का समाचार तक न छप सके।
किन्तु, जिनका सब-कुछ लुट-पिट गया हो, उनकी चीखों को कौन रोकता? जिन्होंने यह विनाश-लीला स्वयं अपनी आंखों से देखी थी अथवा जिन लोगों ने वहां से भागकर अपनी जान बचाई थी, वे तो फूट-फूटकर धाड़ें मार रहे थे। देर से ही सही, समाचार को पंख लग गए। जिसने भी सुना, कलेजा थाम के रह गया। महात्मा हंसराज जी ने खुशहालचन्द जी को बुलाकर कहा–‘‘दूसरे लोग भले ही इस नर-मेध से आंखें मूंद लें, परन्तु आर्य होने के नाते हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना है। आप कुछ लोगों को अपने साथ लेकर मालाबार जाइए और उन लोगों के लिए राहत-शिविर लगाइए जिनका कुछ नहीं बचा और कोई नहीं रहा। जिन्हें जबर्दस्ती इस्लाम ग्रहण कराया गया है, उनके दोबारा अपने धर्म में लौटने की व्यवस्था कीजिए। आप स्थिति का जायजा लेकर लिखते रहें कि कितने अन्न और धन की आवश्यकता पड़ेगी। इसका जुगाड़ मैं यहां से करके भेजता रहूंगा।”
‘‘मैं तो कब का वहां पहुंच चुका होता, बस आपके ही इस आदेश का इन्तजार था।” खुशहालचन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी, लाहौर) ने कहा–‘‘आप कहें तो मैं आज ही चल पडूं।”
‘‘थोड़ा रुकिए। पहले समाचार-पत्रों में इस नर-संहार को छपवाना होगा, ताकि देशवासियों को पीड़ितों की सहायता के लिए तत्पर किया जाय। ‘आर्य गजट’ में आप कितना ही प्रचारित कर दें, उसका प्रभाव एक सप्ताह बाद ही होगा, क्योंकि साप्ताहिक पत्र रोज-रोज नहीं छप सकता। पंडित ऋषिराम जी बी0ए0 और पंडित मस्तानचन्द जी आपके साथ जाएंगे। आप तीनों तैयार रहें, किसी भी क्षण आपको यहां से चल देना होगा।”
‘‘जी अच्छा।” कहकर खुशहालचन्द जी मुस्करा दिए। मुस्कराने का कारण यह था कि उनका नन्हा-सा बिस्तर तो हमेशा ही सुतली से बंधा रहता था। दफ्तर में यह सन्देश पाते ही कि अमुक आर्य-सत्संग या सभा अथवा जलसे-जुलूस में उन्हें पहुंचना है, वह बंधा-बंधाया बिस्तर बगल में दबाकर चल देते थे। घर में कौन बीमार है और उसे किस तरह की सेवा-टहल दरकार है, यह सब पत्नी को समझाकर वह पलक झपकते चल पड़ते थे।
मालाबार के पीड़ितों की व्यथा-कथा सुनकर हर कोई आठ-आठ आंसू बहाने लगता था, किन्तु आंसू बहाने या हाथ मलकर अफसोस कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। दुःखियों को दिलासा तभी मिलता है जब भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा, रात बिताने को आसरा और पीठ थपथपाने को कोई स्नेह भरा हाथ मिले। खुशहालचन्द और उसके साथियों ने अपने घर-बार की सुध भुलाकर बेसहारों को ऐसा सहारा दिया कि इतिहास में चाहे उनका नाम आए या न आए, प्रभु के दरबार में उनके नाम स्वर्ण-अक्षरों में अंकित हो गए। सैकड़ों हिन्दू, जो प्राण बचाने को पूरे परिवार के साथ इस्लाम में दीक्षित हो गए थे, पुनः निज-धर्म में लौट आए। एक-एक के दिल पर बीसियों घाव थे, जिन्हें अपनेपन की दिव्य मरहम से भर दिया गया। खोया हुआ विश्वास लौटाना कोई सरल काम नहीं था, किन्तु लगन और तन्मयता से संत्रस्त हिन्दुओं को पहली बार ज्ञात हुआ कि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य उसकी पीठ पर था और मालाबार के हिन्दू अकेले नहीं थे।
यहां इस बात की चर्चा आवश्यक जान पड़ती है कि मालाबार को जाते समय खुशहालचन्द जी की पारिवारिक स्थिति क्या थी। सबसे पहली बात तो यह कि निरन्तर दौड़-धूप के कारण स्वयं खुशहालचन्द जी भी स्वस्थ नहीं थे, दूसरी बात यह थी कि हाल ही में उनके यहां पांचवें पुत्र युद्धवीर ने जन्म लिया था, तीसरी बात यह थी कि यश बेटा उन दिनों निमोनिया की लपेट में था। पत्नी ने बहुतेरे आंसू बहाए, बार-बार हाथ-पैर पकड़े, मगर जो मनुष्यता की भलाई के लिए समर्पित हो चुका हो उसे कौन रोक पाता?
मालाबार वह पहली बार जा रहे थे। वहां की बोली उनके लिए अजनबी थी, वहां हिन्दू होना ही जान से हाथ धोने के समान था, फिर भी खुशहालचन्द जी वहां गए और ऐसा पुण्य कमाया कि अंग्रेज सरकार भी अचम्भे में पड़ गई। अंग्रेजों को पहली बार आभास हुआ कि उनका तो एक ही ईसा था, मगर भारत में खुशहालचन्द (तथा महात्मा हंसराज जी) जैसे सैकड़ों ईसा जान हथेली पर लिये मनुष्यता की सेवा में जी-जीन से तत्पर थे। मोपला मुसलमानों ने खुशहालचन्द और उनके साथियों को सूली पर नहीं चढ़ाया तो इसका एक-मात्र कारण उनका आर्य होना था, क्योंकि आर्यजन के लिए सारा संसार अपना परिवार है। खुशहालचन्द जी पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए मालाबार गए थे। उनके लिए ‘न कोई वैरी था, न बेगाना’, सभी धर्मों के लोग उनके लिए आदरणीय थ। उन्हें तो एकमात्र यह सन्देश देना था कि मिल-जुलकर रहो। उन्हें उस विचारधारा को तोड़ना था जो मनुष्य को मजहब के नाम पर पशु बना देती है। वह हिन्दू ही क्या जो मनुष्य नहीं और वह मुसलमान ही क्या जो इन्सान नहीं? मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना। यह सन्देश भूले-भटके लोगों को भी सही राह पर ले आता है। प्रभु के प्यारों के आगे हिंसा, मजहबी पागलपन या भाषा और प्रदेश की दीवारें अपने-आप ढहने लगती हैं।
अंग्रेजों ने मुंह की खाई
खुशहालचन्द और उनके साथी मालाबार में लगभग छह महीने रहे और उनका बाल भी बांका न हआ। अंग्रेजों की सारी कुचालें धरी-की-धरी रह गईं। डरे-सहमें लोगों में ऐसा आत्म-विश्वास जाग उठा कि जो घरों में दुबके बैठे थे, वही सीना ताने गली-बाजारों में दनदनाने लगे। अंग्रेजों की पोल खुल गई। मुसलमानों ने लज्जा से आंखें झुका लीं। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि हिन्दुओं का नर-संहार करके वे भी चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पूरा भारत हिन्दुओं से भरा पड़ा है ओर यही इस देश के मूल निवासी हैं।
आर्यसमाज की दक्षिण भारत में पैठ
दक्षिण भारत के लोगों को पहली बार पता चला कि ‘आर्यसमाज’ भी एक संस्था है जो निस्स्वार्थ और निर्लिप्त भाव से दूसरों की सेवा करना ही अपना परम धर्म समझती है। मालाबार के हिन्दुओं के लिए तो आर्यसमाज के कर्मचारी देवदूतों के समान थे–न कोई जान न पहचान, मगर सैकड़ों मील दूर से जो बाहें पसारे चले आए थे और एक-एक को गले लगाकर जिन्होंने महीनों तक अन्न भी दिया, धन भी दिया, वस्त्र भी दिये, जीने के सभी सहारे जुटाए और मुस्कराते हुए अपने प्रदेश को लौट गए। ऐसे आर्यसमाज पर वे कैसे बलिहारी न जाते। दक्षिण भारत में जगह-जगह आर्यसमाज स्थापित हो गए और दलित वर्ग को तो जैसे नया जीवन मिल गया। जिन हिन्दुओं से सवर्ण हिन्दू घृणा से नाक-भौंह सिकोड़ लेते थे, आर्यसमाज ने उन सबको यह सन्देह दिया कि सभी मनुष्य उसी परम पिता की सन्तान हैं और पिता की दृष्टि में सभी पुत्र लाडले और प्यार-सम्मान के अधिकारी हैं। यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था, जिसने निम्न कही जानेवाली जातियों को एक ही झटके में उठाकर सबके बराबर बिठा दिया। दक्षिण भारत में आर्यसमाजों की स्थापना एक महान् उपलब्धि थी। महात्मा हंसराज द्वारा भेजे गए देवदूतों ने दक्षिण भारत में सेवा-कार्य में महान् यश कमाया। (यहां जीवनी का उद्धरण समाप्त होता है।)
महात्मा आनन्द स्वामी जी की जीवनी अत्यन्त प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। प्रत्येक आर्यबन्धु वा हिन्दू को इसको पढ़ना चाहिये। महात्मा हंसराज ने यदि मालाबार के पीड़ितों की रक्षा, सेवा व पुनर्वास के लिये आर्यसमाज का दल व सहायता वहां न भेजी होती तो शायद देश में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहती। देश के लोगों में ऐसा साहस व भावना नहीं थी कि वह इसका विरोध करते। आर्यसमाज और महात्मा हंसराज जी मालाबार में पीड़ित हिन्दुओं के लिये किसी बड़े देवदूत व फरिश्ते से कम नहीं थे। मालाबार के पीड़ित क्षेत्र में आर्यसमाज द्वारा पंडित ऋषिराम जी के नाम से एक गुरुकुल स्थापित किया गया था जो आज भी वहां चलता है। लेख को विराम देने से पूर्व हम इतना कहना चाहेंगे कि यदि ऋषि दयानन्द न आते और वह वेदोद्धार तथा वेद प्रचार न करते तो सनातन वैदिक धर्म व इसके अनुयायियों की रक्षा होनी सम्भव नहीं थी। आर्यसमाज धर्म रक्षक एवं हिन्दू रक्षक संस्था सिद्ध हुई है। हमें इस कार्य को भविष्य में भी जारी रखना है। धर्म की रक्षा तथा अधर्म को दूर करना प्रत्येक वैदिक धर्मी का कर्तव्य है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य