अध्याय 1
वैदिक धर्म और अहिंसा
भारतवर्ष के पास उसका गौरवपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास है । यह इतिहास भारत को शेष संसार से सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। भारत की संस्कृति अनुपम है , अप्रतिम है । इसका अध्यात्मवाद अनोखा और निराला है , तो वेदज्ञान बेजोड़ और अद्वितीय है , जो कि संसार की सभी संस्कृतियों से महानतम और श्रेष्ठतम है । जिस प्रकार भौतिकवाद सभ्यता का उद्गम स्रोत होता है , उसी प्रकार अध्यात्मवाद संस्कृति का उद्गम स्रोत होता है। जिस समाज अथवा राष्ट्र में नैतिकता अथवा उच्च संस्कारों का अभाव होता है और अनैतिकता एवं तुच्छ संस्कारों का बोलबाला होता है , वहाँ संस्कृति नहीं होती । वहाँ या तो पाशविकता होती है अथवा फिर जंगली राज होता है । संसार के अन्य सम्प्रदायों के पास ये दोनों चीजें ही हैं । वहाँ संस्कृति का अभाव है, नैतिकता और न्याय के नाम पर यह ईसाइयत और इस्लाम सहित सभी अन्य सम्प्रदाय या मजहब संसार के समक्ष मात्र ढकोसलाबाजी ही करते हैं। वास्तविकता के धरातल पर यह नीति और न्याय की बातें उनके यहाँ उनके पन्थ के अनुयायियों के लिए हैं, मानव मात्र और उससे भी बढ़कर प्राणिमात्र के हितचिन्तन का प्रेरक और अनुकरणीय आचरण ना के बराबर है ।
वेद प्रणीत है भारत की यह अनुपम संस्कृति
यही कारण है कि सम्प्रदायों ने मानवता को बांटने के अतिरिक्त और उसे अन्याय , अत्याचार , शोषण व उत्पीड़न का शिकार बनाने के और कुछ नहीं किया है । हमारा सौभाग्य है कि हम भारतीय सच्चे अर्थों में अपनी एक अनुपम और अति श्रेष्ठ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्शों पर आधारित मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण नीति और न्याय पर आधारित संस्कृति रखते हैं । जिसने हमें ‘विश्व गुरु’ के सम्मान पूर्ण स्थान पर सुशोभित किया। यद्यपि कालान्तर में हमारा मानवतावाद हमारे लिए उस समय गले की फांस बन गया , जब हम मानवीय मूल्यों पर आधारित नीति और न्याय का आचरण करते रहे , जबकि विदेशी आक्रमणकारी लोग हमारे साथ अनीति और अन्याय का आचरण करते रहे। माना कि हमने विदेशियों को कितनी ही बार परास्त किया या उन्हें अपने देश से भगाने में सफलता प्राप्त की , परन्तु कई बार हमारे मानवतावाद ने भी हमारा रास्ता रोकने का काम किया।
भारत जैसे जीवन्त राष्ट्र की यह संस्कृति गीता , रामायण , महाभारत , उपनिषदों व स्मृतियों जैसे आर्ष ग्रन्थों पर टिकी हुई संस्कृति है । ये सभी आर्षग्रन्थ वेद पर टिके हैं । वेद का शाब्दिक अर्थ है – ज्ञान । इस प्रकार हमारी संस्कृति का मूल आधार ज्ञान है । तभी तो कहा गया है कि ‘वेदोअखिलोज्ञानम मूलम’ । यह ज्ञान स्पष्टत: एकांगी नहीं है , वरन बहुआयामी है । यथा ईश्वरीय ज्ञान , ब्रह्मांड , तारे , नक्षत्र , द्युलोक का पारलौकिक ज्ञान , जीवन मरण का ज्ञान , आत्मा परमात्मा के सम्बन्ध का ज्ञान , राष्ट्रीय व सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान , वैयक्तिक जीवन का ज्ञान इत्यादि। वेद के इस निर्मल ज्ञान पर जब हम दृष्टिपात करते हैं और परमेश्वर के गुण , कर्म , स्वभाव पर चिन्तन करते हैं तो हमें वैदिक ज्ञान की निर्मलता , पवित्रता व स्वच्छता में ईश्वरीय दर्शन हर पग पर होता है। प्रकृति के कण-कण में हमें उस प्यारे का आलोक दृष्टिगोचर होता है । हमारी बाह्यचक्षु जब किसी वस्तु को देखती हैं और उसका चित्र लेकर मानस पटल पर अंकित करती हैं तो हमारी अन्तश्चक्षु का सामंजस्य बाह्यचक्षुओं से तुरन्त हो जाता है । तब हम लोग वस्तु के संघटक तत्वों पर चिन्तन आरम्भ कर देते हैं । तब वह अदृश्य सत्ता जो इस विश्व की नियन्ता व नियामक है ,हमारे लिए दृश्य मान हो जाती है और हम कह उठते हैं :–
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
( ईशोपनिषद्, मन्त्र 1)
अर्थात जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । ईश्वर इस जगत के कण-कण में व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परन्तु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे ।
भारत एक जीवन्त राष्ट्र है
इस प्रकार हमारे वैदिक ज्ञान का मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान है । वह अदृश्य सत्ता स्वयं है जो इस चराचर जगत का आधार है । हमारा सारा लोकाचार उस अदृश्य सत्ता से आरम्भ होकर उसी में समाहित हो जाता है । हम अपने ज्ञान का आरम्भ वहाँ से करते हैं जहाँ एक अजर ,अमर और नित्य सत्ता इस सृष्टि का नियमन और संचालन कर रही है । जिस समाज और संस्कृति का स्वयं का आचार ऐसा हो अथवा जिसका सखा ऐसे दिव्य गुणों से सभी के कल्याण और हित के भावों से पूरित हो , उसका स्वयं का जीवन भी इन्हीं गुणों से संचारित और पूरित हो उठना स्वाभाविक है , क्योंकि सखा के गुणों का चिन्तन उसका अनुकरण करने के लिए प्रेरित करता है । जिससे नए-नए संस्कारों का जन्म होता है और नए सुसंस्कार ही नई संस्कृति का निर्माण करते हैं । इष्ट देव के गुणों का संचरण भक्तों के मन मस्तिष्क में होना स्वाभाविक है । इसलिए नव सृष्टि का होना भी अनिवार्य है । अनन्त काल से उस अनादि , अनन्त, अजर , अमर और नित्य सत्ता के सुपालक और सर्व कल्याणकारक स्वरूप की उपासना और स्तवन करते-करते हम भारतीय मानवमात्र और प्राणिमात्र के प्रति इन्हीं सद्गुणों से अपने जीवन को संचालित करते रहे हैं । यही गुण हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’- की मिश्री घोलने में सहायक बने । हमारे प्यारे भारत वर्ष के एक जीवन्त राष्ट्र बनने का यही कारण है , अन्यथा विश्व रंगमंच पर कितने ही मजहब , संस्कृति व लोग आए तथा काल के विकराल गाल में कालान्तर में कहीं इस प्रकार विलीन हो गए जैसे मानो थे ही नहीं।
भारत के जीवन्त राष्ट्र होने का एक अन्य कारण इसकी संस्कृति में किसी व्यक्ति विशेष के सांत और सीमित ज्ञान की उपासना का प्रावधान न होना भी है। भारतीय संस्कृति का उपासक और पाठक अनन्त और असीमित परमपिता की सत्ता को खोजता है । वह उसे ही पाना चाहता है , इसलिए उसका दृष्टिकोण व्यापक और ह्रदय विशाल होता है। यह हमारे ऊपर हमारे ऋषि – मनीषियों का महान उपकार है कि उन्होंने हमारा चिन्तन किसी विशेष व्यक्तित्व व कृतित्व के अनुशीलन तक सीमित नहीं रहने दिया, अपितु सारी दृश्य मान सत्ताओं से परे उस अदृश्य और सर्वव्यापक सत्ता के ज्ञान सरोवर में ज्ञान क्रीड़ा करने और ज्ञान सरोवर की गहराई मापने व खोजने के लिए खुला छोड़ दिया ।
हमारे ऋषियों की महानता
यदि हमारा चिन्तन किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व में जाकर अटक जाता तो उस व्यक्ति के दृश्यमान शरीर और सांत एवं सीमित ज्ञान को ही हम धारण कर पाते । उसकी दृष्टि की व्यापकता हमारी दृष्टि की सीमा हो जाती । उसकी बुद्धि हमारी बुद्धि से बड़ी हो जाती । तब हम उसकी बुद्धि और दृष्टि के परे का कुछ भी नहीं देख पाते और न सोच पाते ।
यही ईसाइयत और इस्लाम के साथ होता रहा है। यह लोग ईसामसीह और मोहम्मद साहब के दृष्टिकोण व सोच के परे कुछ भी नहीं देख पाते । सांत और सीमित ज्ञान के उपासक ये लोग यदि किसी भी अनन्त और असीमित सत्ता के उपासक होने की बात कर रहे हैं तो यह कोरा ढकोसला ही है । यही कारण है कि वहाँ यदि कोई ‘गैलीलियो’ किसी भी युग में होता है और उस असीम , अदृश्य , सर्व व्यापक , सर्वाधार जगत के नियामक शक्तियों के अनुसार कोई खोज अथवा अनुसन्धान करता है , जो उनके आदर्श पुरुष की मान्यताओं और धारणाओं के विपरीत हो तो उसे फांसी पर झूलना पड़ता है ,अथवा हलाहल का पान करना पड़ता है । दूसरी ओर एक वैदिक विद्वान जितना अधिक ज्ञान सरोवर में उतरता जाता है उतना ही अधिक उसे अपने अज्ञान और ज्ञान सरोवर की गहराई का भान होता चला जाता है।
ऐसा साधक उस अदृश्य को देखना चाहता है क्योंकि जो अदृश्य है , वही सत्य है । इस सत्य की खोज का अनवरत अनुसन्धान सृष्टि के आदि से अद्यतन जारी है । इस ज्ञान सरोवर का हर गोताखोर सृष्टि के आदि से आज तक का हर ऋषि , महर्षि , सन्त, महात्मा और मनीषी अत्यन्त निर्मल और ईश्वरीय ज्ञान का स्वामी होने के उपरान्त भी स्वयं को कोई अवतार अथवा पीर पैगम्बर सिद्ध नहीं कर पाया , अपितु ‘नेति नेति’ कहकर आगामी जिज्ञासु के लिए जहाँ अनुसन्धान और तर्क की सम्भावनाएं छोड़ गया वहीं अपने ज्ञान की सीमितता को भी खुलेमन से सहर्ष स्वीकार कर गया । यही उनकी महानता रही।
संसार में कैसे – कैसे पीर और पैगम्बर अवतार आए ? – यह बड़े आश्चर्य की बात है। यदि ये आए हैं तो यह भी निश्चित है कि ये लोग स्वयं ही ‘ओच्छी गगरी’ थे । ज्ञान में गम्भीर व्यक्तित्व ऐसी कोई भी बचकानी हरकत नहीं करता जो उसे किसी पीर , पैगम्बर अथवा अवतार की श्रेणी में रखे । यदि इन पीर पैगम्बरों अथवा अवतारों को इनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय , मजहब व पन्थों से निकाल कर बाहर खड़ा कर दिया जाए तो यह सारे सम्प्रदाय , मजहब व पन्थ आधारहीन होने के कारण धड़ाधड़ धरती पर आ गिरेंगे और अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेंगे। ऐसा क्यों है ?
इसका कारण स्पष्ट है कि इन सम्प्रदायों व पन्थों के प्रवर्तक मानव थे । उनके दिशानायक मानव थे । जिनमें कई मानवीय दुर्बलताएं थीं । यह मानवीय दुर्बलताएं परिवर्तित होकर उनके उत्तराधिकारियों और अनुयायियों में जाती रहती हैं । फिर इस प्रकार की स्थिति आ जाती है जहाँ केवल ट्रेडमार्क की भान्ति इन मजहबों में कोई न कोई प्रतीक चिन्ह अथवा आसमानी किताब को घर में रखने मात्र तक ही लोग सीमित रह जाते हैं । शेष सारी दुर्बलताएं उनके जीवन में प्रवेश कर जाती हैं । इस स्थिति में यदि आदर्श पुरुष जिससे केवल एक भावनात्मक सम्बन्ध इन लोगों का होता है , को उनसे अलग कर दिया जाए तो फिर उनके पास कुछ भी नहीं बचता । अब देखिए आप कि बिना ईसा के ईसाइयत कुछ नहीं है , बिना मोहम्मद साहब के इस्लाम कुछ नहीं और बिना महात्मा बुद्ध के बौद्ध धर्म कुछ नहीं आदि – आदि ।
एक वैदिक धर्मी के लिए जिस प्रकार यह उचित और अपेक्षित है कि वह सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने को सर्वदा उद्यत रहे , वह बात व्यक्तित्व के उपासकों पर समान रूप से लागू नहीं होती। वहाँ इसीलिए विकास और अनुसन्धान की गति धीमी पड़ जाती है । समाज में रूढ़िवाद को प्रश्रय और प्रोत्साहन मिलता है । इस रूढ़िवाद के घरौंदे को तोड़कर व्यक्तित्व की उपासना अथवा पीर ,पैगम्बर और अवतारों की विचारधाराओं के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता मानव समुदाय यदि निष्पक्ष भाव से ज्ञान सरोवर में गोते लगाए तो सच्चे मानव धर्म की पुनर्स्थापना सम्भव है । यह मानव धर्म निश्चय ही वैदिक धर्म ही हो सकता है।
मजहबी दीवार और अस्तित्व बनाए रखना पीर पैगम्बरों के अनुयायियों की दुकानदारी बनाए रखने के लिए आवश्यक है । इनके बने रहने का यही कारण है और इसी कारण यह भविष्य में भी बने रहेंगे । फिर भी क्योंकि इस पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय यह सब उल्लिखित करना अथवा विस्तार से वर्णन करना कदापि नहीं है , इसलिए हम स्वयं को पुस्तक के प्रतिपाद्य विषय की ओर ही लाते हैं । अतः स्वयं को वैदिक धर्म की चर्चा तक ही सीमित रखेंगे।
वैदिक धर्म की महान विशेषता
वैदिक धर्म हमें तर्क , भाषण और अभिव्यक्ति , सोचने एवं मनन करने में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है । हमारी बुद्धि किसी की बुद्धि से बन्धकर उसकी बुद्धि की अनुगामी नहीं हो सकती । बस वैदिक धर्म की इसी महान विशेषता में इस राष्ट्र की जीवन्तता का रहस्य छुपा है । संसारारण्य में मानवता को पल्लवित, पोषित , विकसित करने एवं जीवित रखने के लिए जिसकी महती आवश्यकता होती है , उसका नाम धर्म होता है । जिसमें मानवता को धारण करने की क्षमता एवं सामर्थ्य होती है । संसार में इस ‘धर्म’ शब्द की परिभाषा करने में आधुनिक विद्वानों ने अत्यन्त ही असावधानी से काम लिया है । इस शब्द का महत्व भारतीय ऋषि ही समझ पाए । अन्यत्र संसार में किसी महापुरुष ने धर्म की सटीक परिभाषा नहीं की । यही कारण रहा कि जब तक भारतीय मनीषियों के चिन्तन के अनुसार संसार की राज्य व्यवस्था और समाज व्यवस्था संचालित होती रही , तब तक इस ‘धर्म’ शब्द पर कहीं भी कोई आपत्ति अथवा विवाद नहीं हुआ और संसार व समाज में शान्ति – व्यवस्था बनी रही ।
इस प्रकार की व्यवस्था के चलते जनसाधारण ने अपने चहुँमुखी विकास में कोई अवरोध अनुभव नहीं किया । उसने अपने चहुँमुखी विकास में धर्म को सहायक तत्व ही स्वीकार किया । पाश्चात्य और अरबी – इस्लामी विद्वानों के शासन द्वारा जिस प्रकार धर्म शब्द को परिभाषित किया गया, उससे इस शब्द की गरिमा एवं महिमा को अत्यधिक अनुपात में ठेस पहुंची । इसके पश्चात इस शब्द के आधार पर समाज में होने वाली अशान्ति एवं उपद्रव की घटनाओं से व्यक्ति का विकास बाधित हो गया । धर्म को तथाकथित सभ्य समाज के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने व्यक्तिगत विकास में बाधक तत्व घोषित किया और इसे व्यक्तिगत जीवन की वस्तु मानकर ‘अफीम’ की संज्ञा भी दी गई । फलस्वरुप धर्म शब्द अपनी व्यापकता , उत्कृष्टता एवं सर्वग्राह्यता को गंवाकर संकुचितता की सीमाओं में सिमटकर रह गया । कहना न होगा कि संसार में सर्वाधिक अन्याय का शिकार यही शब्द अर्थात धर्म हुआ ।
देश में छा गया नेतृत्व का संकट
वैदिक संस्कृति के दिव्य दिवाकर पर जब अज्ञानता एवं पाखण्ड की काली घटा छा गई अर्थात भारतवर्ष के विद्वानों में आलस्य और प्रमाद छा गया , नीति और न्याय की बातें प्रकाश रूप में जनसाधारण तक पहुंचनी दुर्लभ हो गईं तो देश के धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र में नेतृत्व का संकट उत्पन्न हो गया । महाभारत के युद्ध के कई सौ वर्षों बाद तक कोई भी ऐसा व्यक्तित्व भारतीय राजनीतिक गगन में नहीं उभर पाया जो हर क्षेत्र में भारतीयों को सक्षम नेतृत्व प्रदान कर सके । विशेष रूप से धर्म क्षेत्र तो इस काल में सर्वांशत: सूना – सूना हो गया ।
फलस्वरूप क्षेत्रीय धर्म – क्षत्रपों की चांदी बनी और जनसाधारण को उन्होंने अपना अपंग नेतृत्व प्रदान करना आरम्भ किया । जिससे भारतीयों की युगों पुरानी एकता और अखण्डता पन्थों और सम्प्रदायों में परिवर्तित होने लगी । भारत में सामाजिक स्तर पर अनेकता और पतन का क्रम पहली बार प्रारम्भ हो गया । जब ज्ञान सरोवर ही सूख जाए तो फिर ज्ञान – पिपासा को शान्त करना असम्भव हो जाया करता है । यही स्थिति भारतीयों के इस प्रकार की स्थिति हो जाने पर शेष संसार की हुई। समाज अनैतिकता , अन्याय , शोषण और उत्पीड़न के गर्त में फंस गया । जिससे समाज में मानवीय नैतिक मूल्यों का सूखा पड़ गया । समस्त संसार अशान्ति तथा अवन्नति के गर्त में जा पड़ा । परिणाम स्वरूप अनैतिकता , अन्याय की बातें और हिंसा हमारे जीवन की आवश्यक वस्तुएं बन गईं ।
भारतीय मनीषियों ने अहिंसा, सत्य , अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम की परिभाषा दी है। यम में सर्वप्रथम स्थान अहिंसा को दिया गया है । सभ्य और सुसंगठित शांति – व्यवस्था में विश्वास रखने वाले समाज एवं मनुष्य से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह समस्त जीवधारियों के प्रति प्रेम और अहिंसा का व्यवहार करे । सामाजिक और वैश्विक शान्ति के लिए हमको व्यष्टि से समष्टि की ओर चलते हुए सर्वप्रथम समाज की ईकाई अर्थात व्यक्ति में इन मानवीय मूल्यों का समावेश करना होगा । यदि प्रत्येक व्यक्ति मानवीय मूल्यों से प्रेरित होकर सचमुच में एक सभ्य मानव बन जाए तो फिर विश्व में आनन्द और प्रेम का ही साम्राज्य स्थापित हो जाएगा , किन्तु आज के तथाकथित सभ्य मानव के लिए यह यम , नियम ( शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ) की बातें व्यावहारिक जीवन में अपनाने और ग्रहण करने की नहीं हैं , अपितु मात्र सिद्धांत की बातें हैं।
वास्तविकता यह है कि आज का संसार इस आदर्श जीवन की बातों से इतना अधिक दूर चला गया है कि उसके लिए इन बातों को जीवन में अपनाना सर्वथा असम्भव हो गया है । यह भटकाव की स्थिति है , जो किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर होने वाली पीड़ा या वेदना की प्रतीक है । जिस प्रकार किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर मानवीय मानस की स्थिति होती है , उसी प्रकार आज का तथाकथित सभ्य संसार जीवन मूल्यों से विरक्त होकर व्यथित है और वेदना का शिकार हो गया है ।
अहिंसा और महाभारत
जैसा कि हमने अभी कहा है कि यम की परिभाषा में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है , यह इसलिए कहा कि अहिंसा को जब तक अपने जीवन का धर्म नहीं बना लिया जाता है , तब तक उपासना में सफलता मिलना संदिग्ध है । इसीलिए महाभारत में अहिंसा के विषय में कहा गया है :–
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः ।
अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥28॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 116, दानधर्मपर्व)
(अहिंसा परमः धर्मः तथा अहिंसा परः दमः अहिंसा परमम दानम् अहिंसा परमम् तपः ।)
शब्दार्थ – अहिंसा परम धर्म है, वही परम आत्मसंयम है, वही परम दान है, और वही परम तप है।
अहिंसा का इतना महिमामण्डन हमारे शास्त्रों में किया गया है । इसका कारण यही था कि समाज में सर्वत्र शान्ति बनी रहे , किसी भी व्यक्ति के मन – मस्तिष्क में किसी के प्रति वैर – विरोध और मनसा- वाचा – कर्मणा किसी भी जीवधारी के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न न होने पाए । ऐसी निर्मल और पवित्र स्थिति में ही ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सपना साकार हो सकता था । यहाँ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना व्यक्तिपरक है , जो व्यष्टि से समष्टि की ओर मानव जीवन का आदर्श पथ प्रशस्त करती है । जबकि इसी प्रकार बोला जाने वाला ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ का उद्घोष समष्टिपरक है जो कि मानव के अंतिम लक्ष्य की ओर संकेत करता है ।
ऐसी पुनीत भावना को बलवती करने के लिए अहिंसा का मर्यादित और संयमित गुणगान अति आवश्यक था । यही कारण है कि हमारे मनीषियों ने अहिंसा के दो अर्थ निकाले – हिंसा न होने देना और हिंसा न करना । हिंसा न होने देना और हिंसा न करने के अपने इसी आदर्श को भारत के लोगों ने विदेशी आक्रमणकारियों के समय भी अपनाया और जब किसी ने यहां पर अपना राज्य स्थापित कर लिया तो उसे उखाड़ने के लिए भी वे अपने आदर्श के लिए संघर्ष करते रहे । इसीलिए जब वेद कहता है कि ‘पशून पाहि’ अर्थात पशुओं की रक्षा कर तो वह अहिंसा के इन दोनों अर्थों पर बल देता है । हम मानव मात्र के प्रति ही नहीं बल्कि प्राणिमात्र के प्रति भी दया भाव से भरे हों – ऐसी वेद की आज्ञा है और यही वेद का सन्देश भी है । पशु जगत भावना शून्य होता है। उसके प्रति अथवा स्वयं से अलग किसी भी व्यक्ति अथवा प्राणी के प्रति हिंसा का भाव बरतना उसके जीवन का समापन करना , मन – वचन – कर्म से उसके कोमल हृदय को आहत करना , मानव के लिए अशोभनीय कृत्य ही कहा जाएगा इसीलिए हमारे महान मनीषियों ने अहिंसा की नीति पर बल देते हुए उद्घोष किया :-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् ‘धर्म का सर्वस्व जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।’
पतन की स्थिति
बात स्पष्ट है कि जब खून खराबा , मारकाट हम अपने प्रति दूसरों से नहीं चाहते तो उपरोक्त कसौटी के आधार पर हमें ईश्वरीय व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हुए दूसरों के जीवन को लेने का या उसके प्रति हिंसक व्यवहार करने का नैतिक अधिकार नहीं है । मनुष्य और पशु में मात्र धर्म का ही तो अन्तर है । मानव अपने मानव धर्म को जानता है । जिसमें उससे अमर्यादित आचरण की अपेक्षा की जाती है कि वह दूसरों के लिए एक अनुकरणीय मर्यादित और संयमित आचरण प्रस्तुत करेगा । ऐसे लोगों की हिंसा समाज व राष्ट्र के हितानुकूल ही होती है । यह भी हर काल में होता आया है कि जहाँ शान्ति है , वहाँ अशान्ति भी होगी । जहाँ अच्छाई है वहाँ बुराई भी होगी । व्यवस्था के साथ अव्यवस्था और नीति के साथ अनीति भी इसी प्रकार संलग्न है ।
तब यह अपेक्षा भी स्वाभाविक रूप से की जा सकती है कि उपरोक्त आदर्श सामाजिक व्यवस्था को भंग करने वाले भी हर युग में अशान्ति ,अव्यवस्था और अनीति के प्रतीक बनकर किसी न किसी रूप में विद्यमान रहते आए हैं और रह रहे हैं । तब क्या शासन व्यवस्था को और समाज को इन लोगों के प्रति भी हर स्थिति में हिंसा की ही बातें करनी अपेक्षित हैं ? अथवा कुछ कठोर उपाय उठाने की आवश्यकता है ? इस पर भारतीय शास्त्र और भारतीय संस्कृति क्या कहती है ? – देखिए जैसा कि हम अब तक भारतीय शास्त्रों एवं संस्कृति के अनुसार अहिंसा के व्यापक अर्थों पर विचार कर रहे थे और कह रहे थे कि हर स्थिति में हमको मानवीय नैतिक मूल्यों का पालन करना चाहिए तो यह बात सामान्य परिस्थितियों के लिए है अर्थात जब चारों ओर मानवीय मूल्यों और नैतिक आचरण पर बल देने वालों का ही बोलबाला और बाहुल्य हो । असामान्य परिस्थितियों में जबकि समाज में अस्त – व्यस्तता और आतंक फैलाने वालों का , व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन और उत्पीड़न करने वालों का प्राबल्य हो जाए तो उस समय राज्य व्यवस्था की आवश्यकता हो जाती है । इससे पूर्व धर्म की व्यवस्था के आधार पर चलने वाले सुव्यवस्थित समाज में राज्य व्यवस्था की आवश्यकता नहीं होती । ऐसी ही परिस्थितियों में मानव ने राज्य व्यवस्था की खोज की थी।
समाज विरोधी और राष्ट्रविरोधी लोगों का किया जाए सफाया
ऐसी परिस्थितियों में यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में बाधक तत्वों पर शासन और राज्य व्यवस्था को कड़ा नियंत्रण स्थापित करना चाहिए । क्योंकि उसकी खोज ही ऐसे तत्वों पर नियन्त्रण रखने के लिए की गई। अहिंसा अर्थात सुव्यवस्थित सामाजिक स्थिति की अवस्था में हिंसा न होने देना , हर स्थिति में समाज में और राष्ट्र में शान्ति व्यवस्था स्थापित रखना राज्य व्यवस्था का पुनीत कर्तव्य है , यही उसका राष्ट्रधर्म है । इसीलिए स्वतन्त्र भारत की पुलिस व्यवस्था का आदर्श वाक्य ‘परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम’ है । इसी आदर्श राज्य व्यवस्था के प्रति आदर्श वाक्य के आधार पर पुलिस अथवा शासन – प्रशासन समाज में घातक और उपद्रवी लोगों से निपटने के लिए रणनीति बनाता है । यह वैदिक व्यवस्था है । जिसमें हिंसा न होने देना ही अहिंसा है अर्थात हिंसा न होने देने के लिए अपनायी जाने वाली रणनीति भी अहिंसा की ही श्रेणी में आती है । इसीलिए मनु ने कहा है :-
आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणाँनाँ च संगरे,
स्त्री विप्राभ्युपपत्तो चाघ्नन्धर्मेण न दुष्यति॥
मनु. 8। 34॥
अर्थात्- अपनी रक्षा पर धन के लूटे जाने पर, स्त्रियों और ब्राह्मणों पर संकट आने पर, दुष्टों को मारने वाला दोषी नहीं होता। शास्त्रों ने आततायी को मारने में कोई दोष माना ही नहीं।
नाततायी वधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन,
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति॥
मनु. 8। 351॥
अर्थात्- सामने या छिप कर मारने वाला जो आततायी है, उसके मार डालने में कोई दोष नहीं, क्योंकि मन्यु (क्रोध) उस मन्यु (क्रोध) को प्राप्त होता है अर्थात् दुष्ट ने निरपराधी को मारने के लिये जो क्रोध किया है, अपनी रक्षा में वही क्रोध उस दुष्ट के क्रोध से लड़ता है।
दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करो नीतिमत्ता और विवेक का तकाजा यही होता है । यह हमारा व्यक्तिगत चिन्तन नहीं वरन् यह इस महान राष्ट्र की महान संस्कृति के महान कर्णधारों का मौलिक चिन्तन है । यह उन्हीं का चिन्तन है जिन्होंने हमें बताया था कि अहिंसा ही परम धर्म है । ऐसी परिस्थितियों में दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने और ‘अहिंसा परमो धर्म:’ – मानने की दोनों बातें परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरे की पूरक हैं । ध्यान रहे कि यह पूरक तभी हो सकती हैं जब हिंसा न करना और हिंसा न होने देना – इस बात को कोई भी राष्ट्र अपना राष्ट्र धर्म स्वीकार कर ले। गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है :–
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
‘हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधुजनों (भक्तों) की रक्षा करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भली भाँति स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।’ श्री कृष्ण जी के कहने का अभिप्राय है कि संसार में सज्जन शक्ति के कल्याण के लिए व्यक्ति को मोक्ष का आनंद छोड़कर भी जन्म लेने की प्रार्थना करनी चाहिए।
श्री राम और श्री कृष्ण का उदाहरण
भारतीय इतिहास में अति प्राचीन काल से ही निर्मित ग्रंथों में हम श्रीराम और कृष्ण जी के कार्यों का बहुत प्रशंसनीय वर्णन पाते हैं । यदि इन दोनों चरित्रों का अनुशीलन किया जाए तो हम इनके वैदिक व्यवस्था में पालित पोषित आचरण और तदानुरूप किए गए कृतित्व का ही गुणगान करते हैं । श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम की संज्ञा से विभूषित किया गया है । उन्होंने आजीवन आततायी लोगों के विरुद्ध संघर्ष किया और समय आने पर उनका संहार भी किया । यही स्थिति हम योगिराज श्री कृष्ण जी महाराज के कार्यों में देखते हैं । उन्होंने भी जीवन भर अन्यायी , अनैतिक, अत्याचारी और पापाचारी लोगों या शासकों का भरपूर विरोध किया और उचित समय आने पर उनका विनाश भी किया । कंस जैसे आततायी राजा को मारकर श्री कृष्ण जी ने वैदिक धर्म का ही पालन किया था । यदि भारतीय धर्म के विपरीत आचरण कृष्ण जी का होता तो हमें हजारों वर्ष पूर्व का मरा हुआ कृष्ण आज भी भारतीय मानस पटल पर इस प्रकार छाया हुआ दिखाई नहीं देता कि लोग उन्हें भगवान के समकक्ष जानकर ही पूजने लगें ?
हमने श्री कृष्ण जी को भगवान की महती उपाधि से विभूषित किया तो इसके पीछे एकमात्र कारण यह था कि उन्होंने हमें आततायी से मुक्त किया था । जिस आततायी के शासन में प्रजा त्राहिमाम कर उठी थी , उसी के अत्याचारों से प्रजा को एक साधारण मानव ने मुक्त किया तो अपनी कृतज्ञतापूर्ण आस्था से भारतीय लोगों ने इस साधारण मानव को असाधारण महामानव बना दिया और जब इससे भी सन्तोष न मिला तो फिर भगवान बना डाला।
श्री राम और श्री कृष्ण को भगवान बना कर पूजना और उनमें अपनी आस्था और विश्वास को प्रकट करना भारतीयों द्वारा उनके वीरोचित कार्यों का पूजन करना ही है । जिससे स्पष्ट है कि हमें वीरता पूर्ण कृत्य ही अच्छे लगते हैं । हमारा इतिहास तो वीरता के नीतिस्तम्भों से भरा पड़ा है । किन्तु हम कायरता पूर्ण अहिंसा के पाखण्डवादी उपासक बने पड़े हैं । इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि हिंसा का यह कायरता पूर्ण अर्थ और परम्परागत इतिहास हमको प्राचीन काल में देखने को नहीं मिलता , बल्कि यह बीच में ही गलत ढंग से हमारे समाज में रचा , बसा व रमा है । इसे उचित नहीं कहा जा सकता । यदि अहिंसा का यही प्रचलित अर्थ होता कि किसी भी मूल्य पर तुम्हें अन्याय ,अत्याचार और शोषण का सामना अस्त्र-शस्त्र और हिंसा से नहीं करना है और भगवान स्वयं इन अत्याचारों से ही हमें मुक्त करा देंगे तो हम स्वयं , हमारा नाम हमारी कीर्ति संसार से कब की समाप्त हो गई होती । भारतवर्ष के इतिहास में हमारे अनेकों ऐसे महापुरुष ,क्रांतिकारी वीर योद्धा हुए हैं ,जिन्होंने अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा करने में तनिक भी संकोच नहीं किया । यही कारण है कि हम आज भी संसार के सामने अपना अस्तित्व बचाने में सफल दिखाई दे रहे हैं जिन लोगों ने हर स्थिति में अहिंसक बने रहने को भारत का मौलिक संस्कार बनाने का प्रयास किया उन्होंने भारत की आत्मा के साथ छल किया।
व्यावहारिक जीवन में ऐसा नहीं हो सकता कि अन्याय और अत्याचार जिसे मानव स्वयं अपनी मानसिक विकृति की स्थिति में पालता और बढ़ाता है, उस विकृति से उसे छुटकारा दिलाने हेतु स्वयं आ जाएं । ईश्वरीय व्यवस्था के अन्तर्गत रहते हुए और धर्मानुकूल आचरण करते हुए मानव समाज की विकृति को मानव द्वारा ही दूर किया जाना शास्त्र संगत और नीति संगत और व्यावहारिक है ।
अवतारवाद की कल्पना पाखण्ड है
अवतारवाद की वैदिक धारणा के अनुसार यह भावना हम भारतीयों के मन – मस्तिष्क में रच बस गई कि जब अनाचार और अत्याचार बढ़ जाता है तो भगवान स्वयं अवतार लेते हैं । इस धारणा ने हम भारतीयों को वीरोचित कृत्यों से विमुख कर दिया तथा हम आलस्य और प्रमाद के गहरे जंजाल में फंसकर अत्याचार और अनाचार को इस आशा के साथ सहन करने लगे कि समय आने पर भगवान स्वयं इन अत्याचारों का सफाया कर डालेंगे । इससे क्षात्र वर्ग या शासक वर्ग अपने धर्म से पथभ्रष्ट हो गया । जिसके दीर्घकालीन परिणाम यह हुए कि दोबारा इन अत्याचारों एवं अनाचारों का सफाया करने के लिए श्रीराम अथवा श्रीकृष्ण तो नहीं आए , हाँ इस्लाम और ईसाइयत अवश्य आततायी और अत्याचारी के रूप में इस राष्ट्र में आ गये । जिन्होंने अपने अत्याचारों से बहुत देर तक इस राष्ट्र को अपनी पराधीनता में जकड़े रखा । जिसका उल्लेख हम आगे करेंगे।
भारतीय चिन्तन में महापुरुष उसी को कहा जाता है जिसके मन , वचन और कर्म में पवित्रता और एकात्मता होती है । श्रीराम और श्रीकृष्ण का जीवन इसी कसौटी में कसा हुआ था । यही कारण है कि ये दोनों महापुरुष आप्तपुरुष की श्रेणी में रखे जाकर हमारे लिए श्रद्धा और सम्मान के पात्र बन गए । आततायी , अत्याचारी , प्रजा – उत्पीड़क शोषक एवं अधर्मी शासक के राज्य में अत्याचारों का प्राबल्य हो जाने से धर्म की हानि और अधर्म का विनाश हुआ करता है । जिससे प्रजा नाना प्रकार के दुखों और क्लेशों में फंस जाया करती हैं । क्योंकि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ – अर्थात शासक के गुण प्रजा में अवश्यमेव आ जाते हैं । यदि राजा भ्रष्ट है तो प्रजा भी वैसी ही हो जाएगी , ऐसा निश्चित है । तब समाज में साधुओं और सज्जनों का जीना दूभर हो जाता है।
इतिहास के इस सिद्धान्त पर ध्यान दें
इतिहास का यह भी एक सिद्धान्त है कि समाज में भले लोग जितना अधिक दुखित होते हैं , समाज में उतना ही अधिक नई क्रांति का मार्ग प्रशस्त होता है । उनका दु:ख और कुंठा उनके आत्मा की पुकार बनकर एक मौन आवाहन प्रकृति में उत्पन्न करते हैं । जिससे परमपिता परमात्मा उनके इस मौन आवाहन को सुन लेते हैं। तब कोई महान आत्मा संसार में उस आवाहन के आधार पर प्रजा के कष्टों के निवारण हेतु जन्म लेती है और उनका शस्त्रबल से विरोध और सफाया करती है। इसी बात को श्री कृष्ण जी ने उपरोक्त श्लोक में स्वयं अपने लिए कहा है । अतः इसे ईश्वर का अवतार मानना नितान्त अवैज्ञानिक और अतार्किक है।
जब कृष्ण जी इस प्रकार की बात कह रहे हैं तो उसका एक ही अर्थ है कि भले लोगों के वर्चस्व की स्थापना हेतु और समाज में शान्ति व्यवस्था , विधि का शासन या ईश्वरीय नियमों के अनुकूल व्यवस्था स्थापित करने हेतु ऐसी महान आत्माएं जन्म लेती हैं। समाज की वेदना के आवाहन पर ऐसी महान आत्मा का कोई भी वीर पुरुष यहाँ पर अत्याचारी , अनाचारी , दुष्ट और आततायियों का संहार करता है। इस संहार को हिंसा कहना अपना वैचारिक खोखलापन ही सिद्ध करना है । गीता के उपरोक्त श्लोक का अर्थ यही है कि हिंसा यदि धर्म की स्थापना हेतु की जाती है तो वह हिंसा होते हुए भी हिंसा की श्रेणी में नहीं आती है ,अपितु पुण्य ही मानी जाती है। अहिंसा की भारतीय परिकल्पना अथवा अवधारणा ‘एक विश्व’ की परिकल्पना को साकार करने हेतु एक सेतु का कार्य कर सकती है । जैसा कि हम इसी अध्याय में उल्लेखित कर चुके हैं कि अहिंसा ही ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना के आधार पर समस्त संसार को सही मार्गदर्शन करा सकती है । हम फिर इसी विषय पर आते हैं कि जब और जहाँ से मानव ने अपने जीवन पथ को परिवर्तित कर अन्याय और अनीति के रास्ते को चुना और उस पर आगे बढ़ा , वहीं से उसके जीवन में तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई। यही तनाव और दुराव धीरे-धीरे समय अन्तराल से पारस्परिक अविश्वास में परिवर्तित हो गया । फलस्वरूप कालान्तर में समाज में और विश्व में हथियारों की होड़ आरम्भ हो गई । जिससे विश्व में बड़े भयंकर और विनाशकारी युद्ध हुए । यदि इन लोगों के मानस में सचमुच में अहिंसा प्रेरित ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना होती तो जिस विकृति का शिकार हुए थे वह ना होते । इससे मानवता का जो अहित हुआ, वह भी ना होता ।
अहिंसा कायरता नहीं
हमारी संस्कृति के महान शिल्पकारों की यह मान्यता सर्वथा उचित ही है कि ‘ आत्मवत सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पश्यति।’ अर्थात जो सब भूतों को या सभी जीवधारियों को अपने समान मानता है , वही विद्वान है । भारतीय संस्कृति में अहिंसावाद का यह सिद्धान्त समानता के सन्दर्भ में हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होता है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैदिक धर्म में अहिंसा का सर्वोच्च स्थान होते हुए भी उसकी अपनी सीमाएं हैं । समाज द्रोही और राक्षसवृत्ति के पुरुषों अथवा हिंसक पशुओं पर वह हमें लोक कल्याण को दृष्टिगत रखते हुए वार करने से नहीं रोकती। हमारे हाथ में लाठी को वह आवश्यक बनाती है । जिससे कि समाज में शान्ति व्यवस्था स्थापित हो सके । हमारी अहिंसा लाठी वाले हाथ को अर्थात शस्त्र को दूसरे हाथ अर्थात शास्त्र से इतना नियंत्रित कर लेने की अनुमति भी साथ – साथ देती है कि वह अनियंत्रित होकर सर्वथा तानाशाह ही न बन बैठे । मानवता एवं प्राणीमात्र का अकल्याण ही ना कर बैठे । इस मर्यादित और संयमित आचरण के सन्दर्भ में हर विपरीत परिस्थिति में अपना धैर्य और संयम बनाए रखना अर्थात उत्तेजक क्षणों में भी अनावश्यक आधार पर दूसरे के प्राणों का ग्राहक न बनना ।
जिस तपस्वी जीवन की अपेक्षा यह अहिंसावाद हमसे करता है उसके आधार पर निष्कर्ष रूप से यह कहना भी उचित होगा कि अहिंसा वीरों का ही आभूषण है । आत्मानुशासन और ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास रखने वाले मनीषी और तपस्वी के जीवन का धर्म है। किंतु समाजद्रोही और राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति राज्य व्यवस्था रखने वालों के लिए कायरता है । इसी प्रकार रक्त पिपासु , समाजद्रोही , जनकल्याण के कार्यों में अरुचि रखने वाले , प्रमादी , आलसी और जनता पर अनाचार , अत्याचार व क्रूरता दिखाने वाले प्रजापीड़क शासक का ऐसी हिंसा के द्वारा प्रतिकार करना उचित है । ऐसे अत्याचारी शासक को सहन करने की अहिंसावाद की नीति आत्मघाती होती है । साथ ही अत्याचार को प्रश्रय देने के कारण कायरता की द्योतक बन जाती है। हम राम और कृष्ण के उपासक और भारतीय संस्कृति के उत्तराधिकारी अपनी आदर्श सामाजिक स्थिति के पुनः ध्वजवाहक बन कर उठें । आवश्यकता इस बात की है।
अगले अध्यायों में हम यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि भारत में श्रीराम और श्री कृष्ण जी के जीवन की आदर्श परम्परा को अपनाकर किस प्रकार अपने राष्ट्र और राष्ट्रीयता की रक्षा की ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत